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निधिवन

यह लेख सम्पूर्ण आस्था का विषय है। जिन्हें ईश्वर पर विश्वास नहीं है, वो इस लेख को नहीं पढ़े।


लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व पहली बार तीर्थ स्थल वृंदावन जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। उसके बाद अनेकों बार तीर्थ स्थल वृंदावन दर्शन के लिए जाना हुआ लेकिन पहली यात्रा का चित्रण सदा मष्तिष्क में विशेष छाप छोड़ती है। वृंदावन में बंदर बहुत है और चश्मों से विशेष प्रेम है। आप वृंदावन के बाजार और गलियों से गुजर रहे हैं औऱ आपका चश्मा बंदर बड़ी चतुराई से आपकी आँखों से दूर ले जाएं और आप सिर्फ हाथ मलते रह सकते हैं और कुछ भी करने की स्थिति में आप नहीं होते हैं। कुछ ऐसा मेरी पहली वृंदावन यात्रा में घटित हुआ।


मैं पत्नी के साथ रिक्शे पर बैठ कर तंग गलियों से गुजरते हुए निधिवन की ओर जा रहे थे। मैं अपना चश्मा जेब में रखना भूल गया। मकान की छत पर बैठा एक बंदर मेरे कंधे पर कूद कर मेरा चश्मा उतार कर ले गया। एक भार मेरे कंधे पर पड़ा जो बंदर का था। मैं समझा कि ऊपर से कोई ईंट मेरे कंधे पर गिरी है लेकिन जब मेरा चश्मा नदारत महसूस हुआ तब बंदर जी की हरकत मालूम हुई। 


ऊपर देखा, बंदर दूसरी मंजिल पर चश्मे के साथ बैठा था। रिक्शे वाले ने तुरंत चाय की दुकान से फेन का पैकेट खरीदने को कहा। मैंने रिक्शे वाले को दो पैकेट फेन के खरीद कर दिए। रिक्शे वाले ने छत पर चढ़ कर फेन के पैकेट बंदर को दे कर मेरा चश्मा बंदर से ला कर मुझे दिया। एक हाथ दे, दूसरे हाथ ले के सिद्धांत पर बंदर वृंदावन में रह कर अपना जीवन श्रीकृष्ण भक्ति में बिता रहे हैं।


बंदर ने चश्मे को अधिक क्षति नही पहुंचाई थी। चश्मे के शीशे सही सलामत थे, सिर्फ एक कमानी को थोड़ा नुकसान पहुंचाया था।


अब चश्मे को जेब में रख कर निधिवन के दर्शन किये। जो देखा, सुना और महसूस किया वह आपसे सांझा कर रहा हूँ। यह आस्था का विषय है। आप सत्य कह सकते हैं और यदि आपकी भक्ति में आस्था नहीं है तब आप सत्य को झुठला सकते हैं परन्तुउपहास नहीं करें क्योंकि आस्था ही सत्य है। 


निधिवन में मानव श्रद्धालुओं से अधिक मुझे बंदर श्रद्धालु मिले।


निधिवन में आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाने के लिए आते हैं। इस वन को शाम होते ही बंद कर दिया जाता है और फिर यहाँ कोई नहीं रहता। यहाँ तक कि आज्ञाकारी बंदर भी शाम को निधिवन छोड़ देते हैं और अगली सुबह निधिवन फिर से आते हैं।


इस वन की सबसे खास बात यह है कि अगर वृंदावन में सबसे ज्यादा बंदर कहीं है तो यहीं हैं। लेकिन शाम होते ही यह बंदर चले जाते हैं। उसके बाद बिल्कुल भी नजर नहीं आते हैं। बंदर ही नहीं कोई भी जीव जंतु यहाँ शाम में नजर नहीं आता है। यह बात हैरान करती है कि बंदर ही नहीं बल्कि सारे पशु पक्षी शाम ढलते ही यहाँ से रोजाना स्वयं चले जाते है। उन्हें जाने के लिए कोई नहीं कहता है। यह ईश्वर की अद्भुत लीला है। पशु और पक्षी स्वयं निधिवन छोड़ देते हैं लेकिन मनुष्य को कौतूहल देखने की लालसा रहती है अतः रात में निधिवन में रुकने की सख्त मनाही है। जिस किसी ने भी रात में रुकने की कोशिश की है वह काल-कलवित हुआ है। वृंदावन के स्थानीय पुजारी और निवासियों के मुताबिक अगर किसी भक्त, साधु संत ने निधिवन में रुकने की गलती की तो वह चौबीस घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह पाया है। मान्यता है कि भगवान का दर्शन उस अमुक व्यक्ति को जरूर प्राप्त हो जाता होगा लेकिन वह भगवान की अपार उर्जा को देखकर सहन नहीं कर पाता होगा, लिहाजा उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है। स्थानीय लोगों और पुजारियों के मुताबिक उनकी मौत भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के बाद ही होती होगी। यही वजह है कि उन सभी लोगों की समाधि इसी वन में आज भी मौजूद है।


निधिवन में उगने वाले पेड़ भी एक खास और अलग तरह से बढ़ते हैं। आम तौर पर पेड़ की शाखाएं ऊपर की ओर बढ़ती हैं लेकिन यहाँ पेड़ों की शाखाएं नीचे की ओर बढ़ती हैं। ऐसी मान्यता है कि निधिवन की सारी लताएं गोपियां हैं जो एक दूसरे कि बाँहों में बाँहें डाले खड़ी हैं।  जब आधी रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती हैं तो ये लताएं गोपियां बन जाती है। यहाँ मान्यता है कि जो कोई भी यहाँ से किसी वृक्ष के पत्ते को ले गया है उसके साथ कुछ ना कुछ अहित होता है। इसलिए लोग पत्तियों को ले जाने से परहेज करते हैं।


वृदांवन शहर को बसाने में स्वामी हरिदास का अहम योगदान था। हरिदास जी संगीत सम्राट तानसेन के गुरु थे। पंद्रहवी सदी में उनका जन्म मथुरा के करीब एक गांव में हुआ। स्वामी हरिदास कृष्ण भगवान और राधा की भक्ति में डूब गए। लगभग 1500 ई.मे स्वामी श्री हरिदास जी (1480-1575 ई) का आगमन हुआ था, जिनका प्रकाट्य वृंदावन के निकट राजपुर मे अपने ननिहाल मे हुआ था। इनके पिता श्री आशुधीर थे। स्वामी जी अपने स्वरूपगत दिव्यता तथा अगाध प्रेम से अपने "स्वामी श्यामा-कुंज बिहारी" की नित्य लीला का रसास्वादन किया करते थे। उनके भजन का प्रताप आज भी निधिवन की उज्ज्वलतम मधुरता के रूप मे परिलक्षित हो रहा है। स्वामीजी ने नित्य विहार को प्रकाशित किया। "सहज जोरी प्रकट भई","रूचि के प्रकाश परस्पर विहरन लागे", उनके पहले दो पद है। उनके आत्मस्वरूप स्वामी "श्यामा-कुंजविहारी" सहज जोरी है, जो शाश्वत है,और अपनी रूचि के वश विहार मे रत है। श्री हरिदास जी समाधि अवस्था में सदा इन्ही का दर्शन करते रहते थे। वे एकतानता से अपार रस समुद्र को अपने ह्रदय मे रमाये रहते थे। कभी रसावेश मे मधुर वाणी से जो गाते थे , वह उनके परम शिष्य श्री विट्ठल विपुल कंठस्थ कर लेते थे। यही पद संग्रह केलिमाल कहलाता है, जिसमे निधिवन की सहज माधुरी पल्लवित हुई है। निधिवन मे ही वह लीला प्रवेश कर गये। उनकी बैठक ही निधिवन राज में उनकी समाधि कहलाती है। दोनो पार्श्व मे स्वामी जी के शिष्य विठ्ठल विपुल जी एवं प्रशिष्य विहारिनदास जी की समाधि है। यही विठ्ठल विपुल जी के निमित्त स्वामी जी ने बाँके बिहारी जी का स्वरूप उद्घाटित किया था। बिहारी जी का प्राकट्य स्थल घेरा(परिक्रमा) में है। स्वामी जी वृंदावन मे आने वाले सर्वप्रथम महापुरुष थे। स्वामी जी ने ही वृंदावन-श्री को स्थापित किया। बादशाह अकबर स्वामीजी के शिष्य तानसेन के साथ उनके दर्शनार्थ आया था (लगभग ई.1573)। आधुनिक युग मे भी निधिवन मे ही पूर्ण जीवंतता है। जो न केवल आध्यात्मिकता की उच्चतम गहराई को संजोए हुए है,साथ ही आधुनिक प्रौद्योगिक मनुष्य तक को भगवदानुभूति से आप्लावित करती है। स्वामी हरिदास भगवान कृष्ण के साथ गोपियों की अलौकिक रास को वह अपनी आँखों से देख पाते थे। स्वामी हरिदास जी भगवान कृष्ण की अराधना किया करते थे।


निधि वन के अंदर स्थित है रंग महल, जिसके बारे में मान्यता है कि यहाँ प्रतिदिन रात में राधा और कन्हैया आते हैं। रंग महल में राधा और कन्हैया के लिए रखे गए चंदन की पलंग को शाम सात बजे के पहले ही पूरी तरह सजा दिया जाता है। पलंग के ही बगल में एक लोटा पानी, राधाजी के श्रृंगार का सामान और दातुन संग मीठा पान रख दिया जाता है।


सुबह पाँच बजे जब रंग महल का दरवाजा खुलता है तो बिस्तर अस्त-व्यस्त मिलता है, लोटे का पानी खाली होता है, दातुन कुची हुई नजर आती है और पान खाया हुआ मिलता है। रंगमहल में भक्त केवल श्रृंगार का सामान ही चढ़ाते है और प्रसाद के स्वरुप उन्हें भी श्रृंगार का सामान मिलता है।


भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला आज भी होती है। गोपियां आज भी वृन्दावन में आती हैं और कृष्ण जी आज भी रास रचाते हैं। यह पवित्र जगह वृंदावन का निधिवन है। रात होते ही निधिवन का रहस्य गहरा जाता है। दिन में यह जगह जितनी गुलजार रहती है, रात होते ही यहाँ इंसान तो दूर की बात है, उल्लू और चीटियां भी कदम नहीं रखते हैं। मान्यता है कि रात को इस जगह पर बांके बिहारी रासलीला करते हैं। खास बात यह है कि रासलीला देखना मना है। इसलिए वन के आसपास घरों में खिड़कियां ही नहीं हैं। जो रात में होने वाले भगवान श्री कृष्ण और राधा के रास को देख लेता है वो पागल या अंधा हो जाता है। इसी कारण निधिवन के आसपास मौजूद घरों में लोगों ने उस तरफ खिड़कियां नहीं लगाई हैं। जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, वो शाम सात बजे मंदिर की आरती का घंटा बजते ही बंद कर लेते हैं। कई लोगों ने अपनी खिड़कियों को ईंटों से बंद भी करा दिया है। आसपास रहने वाले लोगों के मुताबिक, शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता है।


निधिवन की सारी लताये गोपियाँ हैं जो एक दूसरे की बाहों में बाहें डाले खड़ी हैं जब आधी रात में निधिवन में राधा रानी जी, बिहारी जी के साथ रास लीला करती है तो वहाँ की लता पताये गोपियाँ बन जाती है और फिर रास लीला आरंभ होती है। इस रास लीला को कोई भी नहीं देख सकता है। दिन भर में हजारों बंदर, पक्षी, जीव जंतु निधिवन में रहते है पर जैसे ही शाम होती है, सब जीव जंतु वहाँ से अपने आप चले जाते है और एक परिंदा तक भी वहाँ नहीं रुकता। यहाँ तक कि जमीन के अंदर के सभी जीव चींटी आदि भी जमीन के अंदर चले जाते हैं। राधा कृष्ण की रास लीला को कोई नहीं देख सकता क्योंकि रास लीला इस लौकिक जगत की लीला नहीं है रास तो अलौकिक जगत की परम दिव्यातिदिव्य लीला है जो कोई साधारण मनुष्य या जीव अपनी आँखों से देख ही नहीं सकता। जो बड़े बड़े संत है उन्होंने निधिवन से राधारानी जी और गोपियों के नुपुर की ध्वनि सुनी है।


जब रास करते-करते राधा रानी जी बहुत थक जाती है तो बिहारी जी उनके चरण कमल दबाते है और रात्रि में निधिवन में शयन करते है आज भी निधिवन में शयन कक्ष है जहाँ आज भी पुजारी जी जल का पात्र, पान, फुल और प्रसाद रखते है। और जब सुबह पट खोलते है तो जल पीला, पान चबाया हुआ और फूल बिखरे हुए मिलते है।


आइए निधिवन की प्रामाणिक कथा जानते हैं


कलकत्ता में रहने वाले एक भक्त अपने गुरु जी की सुनाई हुई भागवत कथा से इतना मोहित हुआ कि वह हर घडी वृंदावन आने की सोचने लगा। उसके गुरु जी उसे निधिवन के बारे में बताते थे और कहते थे कि आज भी भगवान यहाँ निधिवन में रात्रि को रास रचाने आते है पर उस भक्त को इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा था और एक बार उसने निश्चय किया कि वृंदावन जा कर स्वयं रासलीला देखूंगा। उसने वृंदावन धाम में बिहारी जी के दर्शन किए। लेकिन अब भी उसे इस बात का यकीन नहीं था कि निधिवन में रात्रि को भगवान रास रचाते है। उसने सोचा कि एक दिन निधिवन रुक कर देखता हूँ। इसलिए वह वही पर रूक गया और देर तक बैठा रहा और जब शाम होने को आई तब एक पेड़ की लता की आड़ में छिप गया। शाम के वक़्त वहाँ पुजारी निधिवन को खाली करवाने लगे तो उनकी नज़र उस भक्त पर पड गयी जो लता के पीछे छिपा हुआ था और उसे वहाँ से जाने को कहा। भक्त वहाँ से चला गया लेकिन अगले दिन फिर से वहाँ जाकर छिप गया और फिर से शाम होते ही पुजारियों द्वारा निकाला गया। आखिर में उसने निधिवन में एक ऐसा कोना खोज निकाला जहाँ उसे कोई न ढूंढ़ सकता था और वो आँखे मूंदे सारी रात वही निधिवन में बैठा रहा और अगले दिन जब सेविकाएं निधिवन में साफ़ सफाई करने आई तो पाया कि एक व्यक्ति बेसुध पड़ा हुआ है और उसके मुँह से झाग निकल रहा है।


उन सेविकाओं ने सभी को बताया तो लोगों की भीड़ वहाँ पर जमा हो गयी। सभी ने उस व्यक्ति से बोलने की कोशिश की लेकिन वह कुछ भी नहीं बोल रहा था। लोगों ने उसे खाने के लिए मिठाई आदि दी लेकिन उसने नहीं ली और वह ऐसे ही तीन दिनों तक बिना कुछ खाए पिये बेसुध पड़ा रहा और पाँच दिन बाद उसके गुरु जो कि श्री गोवर्धन में रहते थे, उनको बताया गया तब उसके गुरूजी वहाँ पहुंचे और उसे गोवर्धन अपने आश्रम में ले आये। आश्रम में भी वह ऐसे ही रहा और एक दिन सुबह-सुबह उस व्यक्ति ने अपने गुरूजी से लिखने के लिए कलम और कागज़ माँगा। गुरूजी उसे कलम और कागज़ देकर स्नान करने चले गए। जब गुरूजी स्नान करके आश्रम में आये तो पाया कि उस भक्त ने दीवार के सहारे लग कर अपना शरीर त्याग दिया था और उस कागज़ पर कुछ लिखा हुआ था।


उस कागज पर जो लिखा था वो इस प्रकार है।


गुरूजी मैंने यह बात किसी को भी नहीं बताई है। पहले सिर्फ आपको ही बताना चाहता हूँ। आप कहते थे न कि निधिवन में आज भी भगवान रास रचाने आते है और मैं आपकी कही बात पर विश्वास नहीं करता था। लेकिन जब मैं निधिवन में रूका तब मैंने साक्षात श्री बांके बिहारी जी को राधा रानी जी और अन्य गोपियों के साथ रास रचाते हुए दर्शन किया और अब मेरी जीने की कोई इच्छा नहीं है। इस जीवन का जो लक्ष्य था वो लक्ष्य मैंने प्राप्त कर लिया है और अब मैं जीकर करूँगा भी क्या?


श्री श्याम सुन्दर की सुन्दरता के आगे ये दुनिया वालों की सुन्दरता कुछ भी नहीं है इसलिए आपके श्री चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये। वह पत्र जो उस भक्त ने अपने गुरु के लिए लिखा था, वह आज भी मथुरा के सरकारी संग्रहालय में रखा हुआ है। जो की बंगाली भाषा में लिखा हुआ है।


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