रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

श्री बाँकेबिहारी जी

बाँकेबिहारी मन्दिर भारत में मथुरा जिले के वृन्दावन धाम में रमण रेती पर स्थित है। यह भारत के प्राचीन और प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। बाँकेबिहारी श्रीकृष्ण का ही एक रूप है जो इसमें प्रदर्शित किया गया है। इसका निर्माण स्वामी हरिदास ने करवाया था।


श्रीधाम वृन्दावन, यह एक ऐसी पावन भूमि है, जिस भूमि पर आने मात्र से ही सभी पापों का नाश हो जाता है। ऐसा आख़िर कौन व्यक्ति होगा जो इस पवित्र भूमि पर आना नहीं चाहेगा तथा श्री बाँकेबिहारी जी के दर्शन कर अपने को कृतार्थ करना नहीं चाहेगा। यह मन्दिर श्री वृन्दावन धाम के एक सुन्दर इलाके में स्थित है। इस मन्दिर का निर्माण स्वामी श्री हरिदास जी के वंशजो के सामूहिक प्रयास से संवत 1921 के लगभग किया गया।


मन्दिर निर्माण के शुरूआत में किसी दान-दाता का धन इसमें नहीं लगाया गया। श्रीहरिदास स्वामी विषय उदासीन वैष्णव थे। उनके भजन–कीर्तन से प्रसन्न हो निधिवन से श्री बाँकेबिहारीजी प्रकट हुये थे। स्वामी हरिदास जी का जन्म संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गाँव में हुआ था। इनके आराध्यदेव श्याम–सलोनी सूरत बाले श्रीबाँकेबिहारी जी थे। इनके पिता का नाम गंगाधर एवं माता का नाम श्रीमती चित्रा देवी था। हरिदास जी, स्वामी आशुधीर देव जी के शिष्य थे। इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहाँ पधारे हैं। हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है। किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना समीप निकुंज में एकान्त स्थान पर जाकर ध्यान-मग्न रहने लगे। जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्तावेष प्राप्त किया एवं संसार से दूर होकर निकुंज बिहारी जी के नित्य लीलाओं का चिन्तन करने में रह गए। निकुंज वन में ही स्वामी हरिदासजी को बिहारीजी की मूर्ति निकालने का स्वप्नादेश हुआ था। तब उनकी आज्ञानुसार मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को बाहर निकाला गया। यही सुन्दर मूर्ति जग में श्रीबाँकेबिहारी जी के नाम से विख्यात हुई। यह मूर्ति मार्गशीर्ष, शुक्ला के पंचमी तिथि को निकाला गया था। अतः प्राकट्य तिथि को हम विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मानते है। युगल किशोर सरकार की मूर्ति राधा कृष्ण की संयुक्त छवि या ऐकीकृत छवि के कारण बाँकेबिहारी जी के छवि के मध्य ऐक अलौकिक प्रकाश की अनुभूति होती है, जो बाँकेबिहारी जी में राधा तत्व का परिचायक है। 


श्री बाँकेबिहारी जी निधिवन में ही बहुत समय तक स्वामी जी द्वारा सेवित होते रहे थे। फिर जब मन्दिर का निर्माण कार्य सम्पन्न हो गया, तब उनको वहाँ लाकर स्थापित कर दिया गया। सनाढय वंश परम्परागत श्रीकृष्ण यति जी, बिहारी जी के भोग एवं अन्य सेवा व्यवस्था सम्भाले रहे। फिर इन्होंने संवत 1975 में हरगुलाल सेठ जी को श्रीबिहारी जी की सेवा व्यवस्था सम्भालने हेतु नियुक्त किया। तब इस सेठ ने कोलकत्ता, रोहतक, इत्यादि स्थानों पर श्रीबाँकेबिहारी ट्रस्टों की स्थापना की। इसके अलावा अन्य भक्तों का सहयोग भी इसमें काफी सहायता प्रदान कर रहा है। आनन्द का विषय है कि जब काला पहाड़ के उत्पात की आशंका से अनेकों विग्रह स्थानान्तरित हुए। परन्तु श्रीबाँकेविहारी जी यहाँ से स्थानान्तरित नहीं हुए। आज भी उनकी यहां प्रेम सहित पूजा चल रही हैं। कालान्तर में स्वामी हरिदास जी के उपासना पद्धति में परिवर्तन लाकर एक नये सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय से स्वतंत्र होकर सखीभाव संप्रदाय बना। इसी पद्धति अनुसार वृन्दावन के सभी मन्दिरों में सेवा एवं महोत्सव आदि मनाए जाते हैं। श्रीबाँकेबिहारी जी मन्दिर में केवल शरद पूर्णिमा के दिन श्री श्रीबाँकेबिहारी जी वंशीधारण करते हैं। केवल श्रावन तीज के दिन ही ठाकुर जी झूले पर बैठते हैं एवं जन्माष्टमी के दिन ही केवल उनकी मंगला–आरती होती हैं। जिसके दर्शन सौभाग्यशाली व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं। और चरण दर्शन केवल अक्षय तृतीया के दिन ही होता है। इन चरण-कमलों का जो दर्शन करता है उसका तो बेड़ा ही पार लग जाता है। 


स्वामी हरिदास जी संगीत के प्रसिद्ध गायक एवं तानसेन के गुरु थे। एक दिन प्रातःकाल स्वामी जी देखने लगे कि उनके बिस्तर पर कोई रजाई ओढ़कर सो रहा हैं। यह देखकर स्वामी जी बोले– अरे मेरे बिस्तर पर कौन सो रहा हैं। वहाँ श्रीबिहारी जी स्वयं सो रहे थे। शब्द सुनते ही बिहारी जी निकल भागे। किन्तु वे अपने चुड़ा एवं वंशी को विस्तर पर रखकर चले गए। स्वामी जी, वृद्ध अवस्था में दृष्टि जीर्ण होने के कारण उनकों कुछ नजर नहीं आया। इसके पश्चात श्री बाँकेबिहारीजी मन्दिर के पुजारी ने जब मन्दिर के कपाट खोले तो तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी के पलने में चुड़ा एवं वंशी नजर नहीं आयी। किन्तु मन्दिर का दरवाजा बन्द था। आश्चर्यचकित होकर पुजारी जी निधिवन में स्वामी जी के पास आए एवं स्वामी जी को सभी बातें बतायी। स्वामी जी बोले कि प्रातःकाल कोई मेरे पंलग पर सोया हुआ था। वो जाते वक्त कुछ छोड़ गया हैं। तब पुजारी जी ने प्रत्यक्ष देखा कि पंलग पर श्रीबाँकेबिहारी जी की चुड़ा–वंशी विराजमान हैं। इससे प्रमाणित होता है कि श्रीबाँकेबिहारी जी रात को रास करने के लिए निधिवन जाते हैं।


इसी कारण से प्रातः श्रीबिहारी जी की मंगला–आरती नहीं होती हैं। कारण–रात्रि में रास करके यहाँ बिहारी जी आते है। अतः प्रातः शयन में बाधा डालकर उनकी आरती करना अपराध हैं। 


स्वामी हरिदास जी के दर्शन प्राप्त करने के लिए अनेकों सम्राट यहाँ आते थे। एक बार दिल्ली के सम्राट अकबर, स्वामी जी के दर्शन हेतु यहाँ आये थे। 


ठाकुर जी के दर्शन प्रातः 9 बजे से दोपहर 12 बजे तक एवं सायं 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक होते हैं। विशेष तिथि उपलक्ष्यानुसार समय के परिवर्तन कर दिया जाता हैं।


श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन सम्बन्ध में अनेकों कहानियाँ प्रचलित हैं। जिनमें से एक तथा दो निम्नलिखित हैं– एक बार एक भक्तिमती ने अपने पति को बहुत अनुनय–विनय के पश्चात वृन्दावन जाने के लिए राजी किया। दोनों वृन्दावन आकर श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे। कुछ दिन श्रीबिहारी जी के दर्शन करने के पश्चात उसके पति ने जब स्वगृह वापस लौटने कि चेष्टा की तो भक्तिमति, श्रीबिहारी जी दर्शन लाभ से वंचित होना पड़ेगा, ऐसा सोचकर रोने लगी। संसार बंधन के लिए स्वगृह जायेंगे, इसलिए वो श्रीबिहारी जी के निकट रोते–रोते प्रार्थना करने लगी कि– 'हे प्रभु मैं घर जा रही हूँ, किन्तु तुम चिरकाल मेरे ही पास निवास करना, ऐसा प्रार्थना करने के पश्चात वे दोनों घोड़ागाड़ी में बैठकर चल दिये। उस समय श्रीबाँकेबिहारी जी एक गोप बालक का रूप धारण कर घोड़ागाड़ी के पीछे आकर उनको साथ लेकर ले जाने के लिये भक्तिमति से प्रार्थना करने लगे। इधर पुजारी ने मन्दिर में ठाकुर जी को न देखकर भक्तिमति के प्रेमयुक्त घटना को जान लिया एवं तत्काल वे घोड़ा गाड़ी के पीछे दौड़े। गाड़ी में बालक रूपी श्रीबाँकेबिहारी जी से प्रार्थना करने लगे। दोनों में ऐसा वार्तालाप चलते समय वो बालक उनके मध्य से गायब हो गया। तब पुजारी जी मन्दिर लौटकर पुनः श्रीबाँकेबिहारी जी के दर्शन करने लगे।


इधर भक्त तथा भक्तिमति श्रीबाँकेबिहारी जी की स्वयं कृपा जानकर संसार का गमन त्याग कर श्रीबाँकेबिहारी जी के चरणों में अपने जीवन को समर्पित कर दिया। ऐसे ही अनेकों कारण से श्रीबाँकेबिहारी जी के झलक दर्शन अर्थात झाँकी दर्शन होते हैं।


श्रीबिहारी जी मन्दिर के सामने के दरवाजे पर एक पर्दा लगा रहता है और वो पर्दा एक दो मिनट के अंतराल पर बन्द एवं खोला जाता हैं और भी किंवदंती हैं।


एक बार एक भक्त देखता रहा कि उसकी भक्ति के वशीभूत होकर श्रीबाँकेबिहारी जी भाग गए। पुजारी जी ने जब मन्दिर की कपाट खोला तो उन्हें श्रीबाँकेबिहारी जी नहीं दिखाई दिये। पता चला कि वे अपने एक भक्त की गवाही देने अलीगढ़ चले गये हैं। तभी से ऐसा नियम बना दिया कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा। ऐसी ही बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित है।


श्री बाँके बिहारी प्रतिमा प्राकट्य स्थल


स्वामी हरिदासजी के द्वारा निधिवन स्थित विशाखा कुण्ड से श्रीबाँकेबिहारी जी प्रकटित हुए थे। इस मन्दिर में कृष्ण के साथ श्रीराधिका विग्रह की स्थापना नहीं हुई। वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन श्रीबाँकेबिहारी के श्रीचरणों का दर्शन होता है। पहले ये निधिवन में ही विराजमान थे। बाद में वर्तमान मन्दिर में पधारे हैं। यवनों के उपद्रव के समय श्रीबाँकेबिहारी जी गुप्त रूप से वृन्दावन में ही रहे, बाहर नहीं गए। श्रीबाँकेबिहारी जी का झाँकी दर्शन विशेष रूप में होता है। यहाँ झाँकी दर्शन का कारण उनका भक्तवात्सल्य एवं रसिकता है।


एक समय उनके दर्शन के लिए एक भक्त महानुभाव उपस्थित हुए। वे बहुत देर तक एक-टक से इन्हें निहारते रहे। रसिक बाँकेबिहारी जी उन पर रीझ गये और उनके साथ ही उनके गाँव में चले गये। बाद में बिहारी जी के गोस्वामियों को पता लगने पर उनका पीछा किया और बहुत अनुनय-विनय कर ठाकुरजी को लौटा-कर श्रीमन्दिर में लाया गया, इसलिए बिहारी जी के झाँकी दर्शन की व्यवस्था की गई ताकि कोई उनसे नजर न लड़ा सके। लोगों की आस्था इतनी है कि आश्विन शुक्ल पंचमी को दर्शनार्थ आये भक्तों में से एक जिन्हें आँखों से कुछ नहीं दिखता था,जिज्ञासा बस पूछा बाबा आप देखने में असमर्थ है, फिर भी बिहारी जी के दर्शन हेतु पधारे हैं। उन्होंने उत्तर दिया लाला मुझे नहीं दिखता है,पर बिहारी जी मुझे देख रहे हैं।


श्रीबिहारीजी महाराज के दर्शन तो आपने किए ही होंगे। मन्दिर के विशाल चौक में प्रवेश करते ही ऊँचे जगमोहन के पीछे निर्मित गर्भग्रह में भव्य सिंहासन पर विराजमान श्रीबिहारीजी के दर्शन होते हैं। उत्सवों के अवसर पर और ग्रीष्म ऋतु में जब फ़ूल-बंगले बनते हैं तब श्रीबिहारीजी महाराज जगमोहन में विराजते हैं और परमोत्कृष्ट साज-श्रृंगार के साथ अपने भक्तों को दर्शन देते हैं तथा सभी भक्तों की मनोकामनाओं को पूरी करते हैं।


आइये ! एक बार पुनः बिहारीजी महाराज के दर्शन कीजिए। सिंहासन पर बीचोबीच श्रीबिहारीजी महाराज विराजमान हैं। उनके वामांग में उनकी प्रियतमा परम दुलारी श्री श्यामा प्यारी की गद्दी सेवा है और उन्ही के बगल में छोटे से चित्र पट के रूप में विराजमान हैं श्री स्वामी हरिदास जी! 


श्रीस्वामी हरिदासजी का जन्म संवत 1535 में हरिदासपुर नामक ग्राम में हुआ था। 25 वर्ष की अवस्था में अपने समस्त धन-धाम का परित्याग कर श्रीस्वामी हरिदासजी अपने पूज्य पिता श्रीआशुधीर जी महाराज से दीक्षा लेकर श्रीधाम वृन्दावन में परम रमणीय़ श्रीनिधिवन नामक नित्यविहार की भूमि में आकर निवास करने लगे। उनके साथ उनके भतीजे बीठलविपुल जी भी आये थे। उस समय संवत 1560 में वृन्दावन एक गहन वन था एवं वृन्दावन में भवन व सड़कें भी नहीं थी। श्रीस्वामी हरिदासजी ने वृन्दावन में निवास किया और वहाँ परम विलक्षण रस-रीति का प्रवर्तन किया। श्रीस्वामी हरिदासजी महाराज नित्य-निकुँज लीलाओं में ललिता स्वरूप हैं व नित्यविहार के नित्य सागर में रसमग्न रहकर प्रिया-प्रियतम का साक्षात्कार करते हुए उन्हीं की केलियों का गान करते हैं। स्वामी जी जब भी अपने तानपुरे पर संगीत की आलौकिक स्वर लहरियाँ बिखेरते थे तब सम्पूर्ण वृन्दावन थिरकने लगता था, एक आलौकिक छटा बिखर जाती थी, सभी पशु-पक्षी भी मंत्र मुग्ध होकर उनका संगीत सुनने लगते थे। उनके भतीजे बीठलविपुल जी हमेशा सोचते थे कि स्वामी जी का संगीत किसके लिये समर्पित है। उसी प्रश्न के साथ एक प्रश्न और जुड़ गया कि स्वामीजी जिस निकुंज के द्वार पर बैठकर संगीत की रागिनी छेड़ते हैं, उसके भीतर कौन विद्यमान है जिससे वे एकान्त में बातें भी करते हैं। श्री बीठलविपुलजी ने अनेक बार उसके भीतर झाँककर देखा था – किन्तु अंधेरे के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं दिया था ।


एक दिन स्वामी हरिदासजी ने बीठलविपुल जी को अपने पास बुलाया और पूछा – "जानते हो, आज क्या है?"


बीठलविपुलजी ने कहा, – "नहीं तो, मुझे तो आप बताओ आज क्या है?"


हरिदासजी ने उत्तर दिया – "देखो आज तुम्हारा जन्मदिन है और इस अवसर पर मैं तुम्हें कुछ सौगात देना चाहता हूँ।"


बीठलविपुल जी बोले – "मुझे कोई सौगात नहीं चाहिये। मैं तो उस निकुंज द्वार का रहस्य जानना चाहता हूँ और आपके प्राणाराध्य श्यामा-कुंजबिहारी के स्वरूप की एक झलक पाना चाहता हूँ।"


स्वामी जी बोले – "वही तो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। बुलाओ जगन्नाथ जी को और भी सबको।"


यह सुनकर बीठलविपुल जी बहुत खुश हुए। हरिदासजी के भ्राता जगन्नाथ जी भी वहीं आ गए और भी समाज जुड़ गया। स्वामीजी नेत्र मूँदे तानपुरा लेकर बैठे थे। सभी विमुग्ध थे और रस में डूबे थे। संगीत के स्वरों के आरोह के साथ ही सबने अपने अन्तर में एक अद्‍भुद प्रकाश का अनुभव किया। तभी उस नूतन निकुँज में नील-गौर-प्रकाश की कोमल किरणें फ़ैलने लगीं। सब एक टक होकर देख रहे थे, कुछ दिव्य घटित होने जा रहा था। प्रकाश बढ़ता गया और इसी बीच परस्पर हाथ थामे श्यामा-कुँजबिहारी जी के दर्शन हुए। 


स्वामी जी ने गाया।


माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर श्याम घन-दामिनि जैसें।

प्रथम हूँ हुती, अबहूँ आगे हूँ रहिहै, न टरिहै तैसें॥

अंग-अंग की उजराई, सुघराई, चतुराई, सुन्दरता ऐसें।

श्री हरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजविहारी सम वैस वैसे॥


पद समाप्त होते ही श्री श्यामा-कुंजबिहारीजी बोले – "तुम्हारी मनोकामना पूर्ण हुई। अब हम यहाँ इसी रूप में अवस्थित रहेंगे।"


स्वामीजी बोले – "प्राणाराध्य, आप ऐसे ही…….। निकुंज के बाहर आपकी सेवा कैसे होगी? विष्णु-शिव-इन्द्र आदि की सेवा का तो वैदिक विधान है।"


श्रीबिहारीजी बोले – "सेवा तो लाड़ प्यार की होगी।"


तभी स्वामीजी ने निवेदन किया, "आपके सौंदर्य को लोक सहन नहीं कर पाएगा। अतः आप एक ही रूप में प्रकाशित होकर दर्शन दें।" तभी श्यामा-कुंजबिहारी की युगल छवि बाँकेबिहारीजी के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी। 


स्वामीजी और बाँकेबिहारीजी की महिमा जब हरिदासपुर पहुंची तो जगन्नाथ जी के तीनों पुत्र – श्रीगोपीनाथजी, श्री मेघश्यामजी एवं श्रीमुरारीदासजी वृन्दावन आ गये। स्वामी हरिदासजी की केवल एक ही इच्छा थी कि बिहारीजी की सेवा लाड़-प्यार से हो। स्वामीजी ने बिहारीजी की तीन आरतियों का क्रम निर्धारित किया। 


सुबह श्रृंगार आरती, मध्याह्‍न राजभोग आरती और रात को शयन आरती। स्वामीजी ने बिहारीजी की सेवा श्रीजगन्नाथ जी एवं उनके तीनो पुत्रों को सौंप दी। तभी से जगन्नाथ जी के वंशज श्रीबिहारीजी की परम्परागत सेवा करते आ रहे हैं।


कई वर्षों तक श्रीबिहारी जी की सेवा का क्रम निधिवन में ही चलता रहा। कालान्तर में आवश्यकता के अनुसार उन्हें सन् 1864 में इस भव्य मन्दिर में स्थानान्तरित कर दिया, जहाँ वे आज विराजमान हैं। इस मन्दिर का निर्माण गोस्वामियों द्वारा तन-मन-धन से सहयोग देकर कराया गया।


श्रीबिहारीजी महाराज की उपासना प्रेम रस की उपासना है, किसी एक विधि-विधान, कर्मकाण्ड या सम्प्रदायवाद के दायरे में यह नहीं समा सकती। यही कारण है कि सभी सम्प्रदायों, मतों और धार्मिक विश्वास के वे व्यक्ति, जिनका हृदय प्रेम रस से भरा है, यहाँ आते हैं और अपनी भक्ति भावना के अनुसार फ़ल पाते हैं। श्रीबिहारीजी नित्यधाम श्रीवृन्दावन में नित्य लीलारत हैं। ये सब अवतारों के अवतारी हैं, नित्यबिहारी हैं। लक्ष्मीपति, व्रजपति के लिए भी ये दुर्लभ हैं। ये एक होकर भी दो हैं और दो होकर भी एक। ये न निर्गुण हैं, न सगुण अपितु दोनों से ही विलक्षण हैं। "निर्गुन-सर्गुन डबा हैं रतन बिहारीलाल।" ये निर्गुण-सगुण-रूप, दो पल्लों वाली डिबिया के मध्य रखे हुए रत्न हैं। ये सबके हैं, सब इनके हैं। स्वामीजी कहते हैं- "मीत भले पाए बिहारी, ऐसे पावौ सब कोऊ।" गरीब-अमीर, अनपढ़-विज्ञ सबको इन्हें पाने का हक़ है। इन्हें पा लेने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता। "बाँके की बाँकी झाँकी करि बाकी रही कहा है?"


आइए,, श्रीबाँकेबिहारी की इस बाँकी छवि के दर्शन फ़िर एक बार करते हैं। ध्यान से दर्शन करिये! सिर पर टेढ़ी पाग है, टिपारे-कटारे-किरीट की शोभा है तो साथ में माथे पर बिंदी है और नाक पर बेसर और कटि में पटका है, तो पास ही नागिन सी लहरदार वेणी है। झगा है पायजामा है तो घुमावदार लहँगा है और पीठ पीछे इकलाई भी है। एक ओर श्याम जी का साज है तो दूसरी ओर श्यामा जी का श्रृंगार। श्यामा के वस्त्राभूषणों के दर्शन तो सबको होते हैं, किन्तु उनके स्वरूप का साक्षात्कार कोई रसिक प्रेमी ही कर पाता है। जब स्वामी जी की कृपा होती है, तभी श्याम तमाल से लिपटी कंचन लता की तरह अथवा सघन घन में कौंधती हुई विधुल्लता की तरह श्रीबाँकेबिहारीजी के स्वरूप से झाँकती हुई श्यामा जू की शोभा को निहारा जा सकता है। इसलिए कहा गया है।


कूँची नित्यविहार की, श्रीहरिदासी के हाथ।

सेवत साधक सिद्ध सब, जाँचत नावत माथ॥





टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु