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स्वाभिमान

कहानी प्रतियोगिता मन की गहराई से

स्वाभिमान

सावन का महिना था राखी का त्योहार भी नजदीक ही था इस समय अधिकांश बहने राखी मनाने अपने भाइयो के यहा अर्थात मायके आती है । मेरी एक प्रिय सहेली भी मायके आयी हुई थी । एक दो दिन बाद उसने मुझे फोन कर के घर पर मिलने बुलाया । उसकी शादी के बाद हम पहली बार मिल रही थी । मैं भी समय निकालकर उसके घर पर पहुच गयी । तब उसका पूरा परिवार घर पर ही था वे लोग अपनी बातों मे लगे हुए थे तो मुझे अंदर जाने मे संकोच हुआ पर सहेली ने कहा आ जाओ तुम भी हमारे घर परिवार जैसी ही हो । अब मैं अंदर जाकर बैठ गयी । वहाँ मेरी सहेली की बड़ी दीदी भी आयी हुई थी । मेरी सहेली के पिताजी की रेडिमेड कपड़ो की शॉप है जो उसका भाई भी संभालता है । उसकी दीदी अच्छे सम्पन्न घर मे ब्याही है । वो जब भी मायके आती है तो बच्चो के कपड़े ले जाती है । इस बार मेरी सहेली के पिताजी उसके भाई से बोले दीदी का बिल तो बना दिया न । तब उसकी दीदी हसते हुए बोली पिताजी इस बार कपड़े आपकी तरफ से । उसके पिताजी बोले ठीक है एकाध ड्रेस रख लेना ओर बाकी का बिल बनवा लेना । स्वाभिमान भी तो कोई चीज है इससे भाई ओर तुम्हारे बीच मधुर संबंध बने रहेंगे ।

स्वाभिमान शब्द सुना ओर मैं भी अतीत के पन्नो मे खो गयी । मैं अपनी माताजी ओर भाई के परिवार के साथ रहती हु । भाई की एक बेटी तथा उससे छोटा एक बेटा है । तब मेरे भाई की बेटी 3 या 4 साल की थी । एक दिन भाई उसके दोस्त की दुकान पर गया था साथ मे उसकी बेटी भी थी । भाई अपने दोस्त से बाते कर रहा था इधर उसकी बेटी दुकान मे रखे खिलौने को बार बार उठाकर रख देती । यह भाई के दोस्त ने देख लिया था तथा उसने भाई की बेटी को वह खिलौना पेक करके दे दिया । घर पहुचकर जब ये बात भाई को पता लगी की बेटी ने बिना पैसे दिये खिलौना ले लिया है तो उसने डाटते हुए कहा की बेटा आइंदा कभी बिना पैसो के कोई चीज मत लाना । वे अंकल मेरे दोस्त है ठीक है पर स्वाभिमान भी तो कोई चीज है ओर खिलौने की कीमत तुरंत ही अपने दोस्त को भिजवा दी ।

यह मेरे पिताजी की दी हुई सीख है जो मुझे हमेशा याद रहती है आज मेरे पिताजी हमारे बीच नहीं है पर उनके सबक मुझे अभी भी याद आते है। पिता के ये सबक तभी समझ आते है जब स्वयं के बच्चे बड़े हो जाते है । जब हम छोटे होते है तब पिताजी का डाटना समझाना कुछ सीखाना रोक टोक ये कुछ भी अच्छा नहीं लगता । पर बड़े होने पर ही पता चलता है की वे कितने सही थे तथा हमारे भले के लिए ही हमे डाटते थे। यह सुनकर अच्छा लगा की मेरा भाई भी पिताजी की दी सीख याद रखकर अपने बच्चों को भी वही सीख दे रहा है । हर पिता को ऐसा ही होना चाहिए । किसी की मदद करना अलग बात है ओर स्वाभिमान एक अलग चीज है ।

- जयश्री गोविंद बेलापुरकर हरदा
 

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