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लोककथा का बदलता स्वरूप

लोककथा का बदलता स्वरूप

        अपने बचपन में,रंगा सियार की कहानी सुनी और पढ़ी थी . तब कहानी का सियार भटकता हुआ रंगरेज़ के घर में घुस गया और नीले रंग की हौदी में गिर कर नीला हो गया था आदि आदि ।

    मेरे बच्चे कहानी सुनने लायक़ हुए तब रंगरेज का कार्य समाप्त प्रायः था और हौदी शब्द ग़ायब होगया था। इसलिए भटकता हुआ सियार धोबी के घर में घुस गया और नील के टब में गिर कर नीला होगया ।

     कल मैं अपने बेटे की छह बर्षिया बेटी को कहानी सुना रही थी, जंगल से निकल कर भटकता सियार धोबी के घर तक पहुँचा ही था कि वह बोली -धोबी कौन होता है ?

मैंने कहा -कपड़े धोने वाले को धोबी कहते हैं ।

        बच्ची की पतली पतली भौंहें किंचित् सिकुड़ी देख मैं आगे बोली -पहले समय में जो आदमी घर घर से गंदे कपड़े लेजाकर नदी पर जाकर उन्हें धोने का काम करता था उसे धोबी कहते हैं ।

बच्ची तेज़ी से बोली -अरे ! उसे किसी ने रोका नहीं,नदी का पानी गंदा करने पर, पुलिस ने नहीं पकड़ा?

    मैं संभल कर बोली - सियार धोबी के घर पहुँचा था,अब वह घर पर काम करता है न ।

⁃ ठीक है ।

⁃ सुनो,धोबी ने घर में एक बड़े टब में नील घोलकर रखा हुआ था ।

⁃ नील क्या होता है ?                                                                              वाशिंगमशीन के इस युग में बच्ची ने घर में नील घुला आधी बाल्टी पानी भी नहीं देखा,टब की कल्पना कैसे करती ?                                               मैंने कहा-चलो छोड़ो,दूसरे सियार की कहानी सुनाती हूँ ।                                                     अब मेरी कहानी का सियार पेंट की दुकान में पहुँच गया । पेंट की दुकान,डिब्बे सब बच्ची की समझ से मेल करने लगे क्योंकि कुछ दिन पूर्व घर में पेंट का कार्य उसने बहुत उत्साह और उत्सुकता से देखा था ।

        

           कहानी चल निकली ।चलते चलते अंत पर पहुँच गई,वहाँ बारिश में भीगने पर सियार के ऊपर से पेंट का रंग उतरने लगा , मैंने कनखियों से बच्ची की ओर देखा,वह नींद से बोझिल अपनी पलकों को सप्रयास खोलकर कहानी सुन रही थी ।

       रंग उतरने पर सच का पता चला और सब जानवरों ने राजा बने सियार को जंगल में दौड़ा दौड़ा कर मारा । यह सुन कर भोले मुख पर मुस्कान खिल गयी और वह नींद में डूब गयी ।

      मैंने चैन की एक लंबी श्वास ली।

लेकिन डर रही हूँ कि कहानी वह पूर्ण चेतना में सुनती और कह बैठती -अरे ! पेंट का रंग बारिश में नहीं धुलता है।             

           तब मैं तीसरे सियार को कहाँ पहुँचाती ?   


    आजकल झूठ का रंग सरलता से कहाँ उतरता है ?

  आत्मकथ्य-  रश्मि पाठक

                    २१.१०.२०२२ (अबरडीन)

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