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पतंग और धागा

              एक थी पतंग। एक था धागा। दोनो पास ही में रहने आये। दोनो का घर नजदीक नजदीक ही था। दोनो हर हंमेश घर में ही रहते थे ।  न कभी बाग में जाते,  न कभी समुद्र के किनारे। " मेला कैसा होता है ? " दोनो में से  किसी को मालूम ही नही था। बहार घुमने का बहुत मन करता। पर उसको सभी से डर लगता। इसलिए घर से बाहर निकलते ही नही। इस तरह दिन पर दिन बितते थे। ऐसे मे दिसम्बर माह आया। घर के नजदीक  फिरकी रहने आयी। थोडी बहुत पहचान हुई।  एक बार पतंग और धागा फिरकीजी से बात कर रहे थे। बातो बातो मे बाहर घुमने की बात हुई।  फिरकीजी ने थोडा सोचा। फिर बोली "१५-२० दिन ठहर जाओ। १४जनवरी मकरसंक्राति को सूरज  उत्तर दिशा की ओर गती करना शरू करता है। इस दिन पवन की गती तेज होती है।  इसलिए मैं तुम दोनो को  गगन में घुमने ले जाऊगी। वहाँ तुम निर्भय होकर उड़ान भर सकोगे।   वहा किसी का भी डर नही रहेगा। धरती पर तो सब घुमते है। गगन में कोई घुमने नही ले जाते।  मैं तुमको गगन में घुमाऊगी।  पतंग और धागा बहुत ही खुश हो गये। १४  जनवरी मकरसंक्राति का दिन आ गया।  फिरकी ने  दुरभाष से  पतंग और धागे को  अगासी पर बुला लिया । पतंग और धागा तो इतने खुश हुये कि साथ में  गुड और तिल के लड्डू ले लीया। बैर और गड्डा भी लिया। फिर तो फिरकीजी ने ऐसी जमावट कर दी कि  पतंग और धागा आकाश में उडने लगे।  इस तरह घुमे, उस तरह घुमे। लड्डू खाते जाये।  गड्डा को चबाते जाय और उडते जाये। फिरकी   पिप्पडी बजाते पी..पी.. करती थी, जोर से बुलाती थी।   फिर भी पतंग और धागा सुनते ही नही थे ।  शाम होने पर भी  पतंग निचे आने का नाम ही नही लेती थी। फिरकी ने सोचा,  अंधेरे में इन दोनो को कुछ दिखाई नही देगा।  दिया जलाकर गुब्बारे भेजती हुं।  गुब्बारे के साथ संदेशा भी भेजा। "अब मै थक गई हुं, गुब्बारे के साथ थोडा उड़कर बापस आ जाओ । वरना दुसरी बार घुमने नही ले जाऊंगी "।  फिरकी का संदेशा पाकर  पतंग और धागा थोडी देर में वापस आ गये। दोनो ने फिरकीजी का धन्यवाद किया। फिर अपने अपने घर गये। 

बोध :  बच्चे लोग फिरकीजी की तरह हमे सभी त्योहार बडी धूम-धाम से मनाना चाहिए। 

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