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आनंद आश्रम: मस्ट व्हाच!

#आनंद_आश्रम 


हट!  'ऐसा' सच में थोड़े ही होता, 'ऐसा' तो सिर्फ फिल्मों में होता है... ये 'ऐसा' फैक्टर ही फिल्मों से गायब हो गया है! 

'ऐसा' माने सच्चा वाला प्यार, अच्छाई की जीत, चरित्रवान नायक, आदर्श नायिका, सच्चे दोस्त, प्यारी दुनिया, प्यारे लोग और 'हैप्पी एंडिंग' 

ढ़ाई- तीन घंटे की फिल्म देखकर, उस अंधेरे हॉल से निकलते समय हम सात रंग के सपने आँखों में सजाकर लाते थे, इस विश्वास के साथ कि मेरे साथ भी ऐसा ही अच्छा होगा! 

और आज फिल्मों में सबकुछ 'वैसा' ही होता है 'जैसा' असली जिंदगी में होता है,  जिंदगी के तनाव, भागमभाग इन सब से दूर जाने के लिए 500/- रुपये का टिकट लेकर ए. सी. थिएटर में वही सब कुछ देखते हैं, जिससे हम भाग कर आये थे! 

मन में एक डर, एक अशांति लेकर बाहर निकलते हैं, किसी पर भरोसा करने का मन नहीं होता, दुनिया पराई लगने लगती है.. एक अजीब- सी दहशत होती है माहौल में...! 

यह सब विचार मेरे मन के हैं, मेरा अपना दृष्टिकोण है यह और इसकी वजह है कल रात आई के कहने पर देखी हुई फिल्म "आनंद आश्रम"... 

आहाहा.... फिल्म क्या थी, तपती गर्मी में ठंडे पानी की बौछार थी बस! क्या तो कहानी, क्या तो अभिनय! 

कहानी में इतनी पकड़ थी, कि आखिर तक देखते ही चले जाईये... 

शर्मिला टैगोर और मौसमी चटर्जी साधारण सिंथेटिक साड़ियों में भी ऐसी गजब सुंदर लग रही थी, कि उनका सौंदर्य आँखों में भर लेने का मन कर रहा था! 

कितनी सादगी अभिनय में, कितना शांत पार्श्व संगीत! कितनी सच्चाई, कितनी अच्छाई! 

नायक उत्तम कुमार, राकेश रोशन से लेकर उत्पल दत्त, आसित सेन सभी का सशक्त अभिनय... और दादा मुनि तो फिर दादा मुनि हैं! 

हमारे ही इस बॉलीवुड में एक समय ऐसी फिल्में बनी थी, विश्वास नहीं होता! 

ऐसी अच्छी, सीधी, सच्ची, शांत फिल्में अब क्यूँ नही बनती? क्यों हम इतने 'प्रैक्टिकल' हो गए कि फिल्मों में तक 'आभासी दुनिया' को पसंद नहीं करते?? 

वो 'ऐसा' जो सिर्फ फिल्मों में ही होता था, अब फिल्मों में भी नहीं होता... लेकिन.. 

यूट्यूब को धन्यवाद जहाँ अब भी इन पुरानी , दुर्लभ फिल्मों का खजाना है, महीने में एक- आध ऐसी फिल्म घर बैठे, मुफ्त में देखो... थोड़ी देर के लिए ही सही, दुनिया सुंदर लगने लगेगी... प्यार, रिश्ते जैसे शब्द फिर सच्चे लगने लगेंगे! 


©ऋचा दीपक कर्पे


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