मेरा दर खुला है
रिया ऑफिस की वर्कशॉप में तीन दिन के लिए धर्मशाला आई थी। आज
तीसरा और अन्तिम दिन था। दोपहर के बाद का समय खाली था। रात की वॉल्वो बस से दिल्ली
वापिस जाना था।
दोहपर बाद रिया होटल से अपना सामान लेकर बाजार घूमने निकल
पड़ी। हर दूसरी दुकान पर विंडो शॉपिंग कर रही थी कि कहीं कुछ माँ और बहन के लिए
उपहार खरीद सके।
फरवरी के महीने में भी अच्छी ठंड थी। बाजार समाप्त होने से पहले दोराहे से बाईं ओर
मुड़ गई जहाँ रिहायशी मकान थे। सड़क के दोनों ओर चीड़ के
वृक्ष की घनी कतार थी और सूरज की रोशनी छन कर सड़क पर छा रही थी। उस सड़क पर कोई दुकान
न देख कर वह वापिस मुड़ी ही थी कि एक घर के सड़क वाले कमरे का दरवाजा खुला जहाँ खूबसूरत
कलाकृतियों का भंडार रखा हुआ था। वह ठिठक गई।
उसके कंधे पर बैग टंगा था और एक हाथ में
ट्रॉली वाला सूटकेस था। कमरे में एक छोटी लड़की जिसकी उम्र लगभग दस वर्ष की थी, एकदम
गोरी चिट्टी, तीखे नैन नक्श, जो पहली ही नजर में किसी को अपनी ओर आकर्षित करने में
सक्षम थी। उस लड़की को देखकर रिया ने अपने बारे में सोचा, उसका व्यक्तित्व, रंग रूप,
नैन नक्श भी पहली नजर में अपनी ओर खींचता है फिर भी उस दस वर्ष की लड़की उससे अधिक सुंदर
लग रही थी। रिया की रुचि घर के कमरे में रखी कलाकृतियों के बजाय उस लड़की की सुंदरता
में थी। वह कमरा कलाकृतियों की दुकान थी यहाँ बोर्ड लगा था "डॉली हैंडीक्राफ्ट"।
वह लड़की कलाकृतियों के बीच रखे स्टूल पर बैठ गई और रिया से बोली।
"मैम भीतर आकर देखिए।"
इतने प्यारे अंदाज में उसने कहा, रिया को उसने एक तरह से सम्मोहित
कर लिया। उसके मुख से फूल झड़ते बोल सुनते ही रिया बरबस उत्सुकतावश अंदर जाकर कलाकृतियों को देखने लगी और दो कलाकृतियों
को पसंद किया। उनके दाम पूछकर मोलभाव करने लगी। मोलभाव देखकर उस लड़की ने आवाज दी।
"पापा आना।"
आवाज सुनकर भीतर से रितेश आया। रितेश के कदम
वहीं ठिठक गए।
उसने रिया को देखा। रिया ने भी उसे देखा। रितेश को देखकर रिया के दिल की धड़कनें यकायक रुक सी गई।
आवाज गले में फंस गई। रितेश भी रिया को देखकर बुत बना बस एकटक देखता
रहा।
दोनों को बुत बना देख वह लड़की भी रितेश और रिया की शक्लें देखने
लगी।
"आओ रिया।"
अब लड़की समझ गई कि पापा उसको जानते हैं।
"पापा मैं होमवर्क करने जा रही हूँ।" कह कर लड़की घर के भीतर चली गई।
अब रितेश क्या बोले और रिया क्या कहे? दोनों गुमसुम से एक
दूसरे को देखे जा रहे थे। कुछ नजरें दोनों की झुकी।
“तू तू तुम!” रितेश टूटे फूटे शब्दों में
बोला।
“यह लड़की?” बस इतना सा रिया ने पूछा।
"दर्पण नाम है, प्यार से डॉली कहता हूँ।" रितेश ने
रिया को लड़की के बारे में बताया।
"तुम्हारी है?" रिया ने पूछा।
"हमारी है।" रितेश के इस छोटे से उत्तर से रिया स्तब्ध
रह गई।
“हमारी!” रिया रितेश को एकटक देख रही थी।
“तुमने नौ महीने कोख में रखा, उसी को भूल गईं!”
रिया के हाथ से ट्रॉली सूटकेस छूट गया।
रितेश ने सूटकेस दुकान के भीतर रखा।
“तुमने उसकी शक्ल ध्यान से नहीं देखी। तुम्हारी
ही कॉपी है।“
“डॉली! आंटी के लिए जरा पानी लाना।“
“आई पापा!” दर्पण फटाफट भागती आई। “आंटी
पानी।“ फिर फुर्ती से वापस चली गई। “पापा, अब आवाज नहीं
लगाना। आज होमवर्क बहुत ज्यादा मिला है।“
रिया ने दर्पण को देखा और उसकी आँखें नम हो गईं। दर्पण
हुबहू उसकी जैसी तो है। जब खुद वो स्कूल में पढ़ती थी, बिलकुल दर्पण जैसी थी। रिया
का सिर घूमने लगा। रितेश ने उसे कुर्सी पर बिठाया।
“तुम्हारी हुबहू कॉपी है। तुम इसको देखो या
दर्पण देखो, एक ही बात है। यही सोचकर नाम दर्पण रखा। तुम्हें दर्पण में अपना अक्स
दिखाई दिया न!”
कुछ देर की चुप्पी के पश्चात रिया ने रितेश से टूटे फूटे
शब्दों में पूछा, “तुम्हारी पत्नी?”
अब तक गम्भीर रितेश के चेहरे पर थोड़ी सी मुस्कान छा गई, “अब
पत्नी अपने बारे में पूछ रही है!”
“क्या मतलब?”
“तुम बताओ रिया, क्या हमारा सम्बन्ध विच्छेद हुआ
हैं क्या? तुम मेरे जीवन से दूर चली गई थीं, दिल से नहीं जा सकी। वैसे भी हम दोनों
अभी भी पति पत्नी हैं। तलाक तो हुआ ही नहीं।“
रिया कुछ नहीं बोली। बस सोचती रही।
“तुम कमरे में रखी कलाकृतियों को देखो। डॉली
स्कूल का होमवर्क कर रही है। उसे परेशान नहीं करता। मैं चाय बनाता हूँ।“
रिया रितेश के पीछे रसोई में आ गई।
“अकेले रहते हो?”
“जब तुम अकेला छोड़ गई तब किसके साथ रहूँ।“ रितेश
ने चाय कप में डाली। बिस्कुट का जार रखा और कलाकृतियों के मध्य रिया के संग बैठ
गया।
“मम्मी!”
“उनको गुजरे पांच वर्ष हो गए।“
“ओह!” रिया बस इतना कह सकी।
चाय के घूँट के साथ रिया अतीत
के पन्ने पलटने लगी। कॉलेज में रितेश के संग पढ़ती थी। प्रेम हुआ
फिर विवाह हुआ। परन्तु महत्वकांक्षी रिया विवाह के बंधन में बंध नहीं सकी। पुत्री भी नहीं बांध सकी। डॉली दो वर्ष
की थी उसे छोड़ कर चली गई। रिया ने डॉली की कस्टडी भी नहीं ली।
वह नौकरी करके आजाद जिन्दगी जीना चाहती थी। गृहस्थी बेड़ियां लगी। तोड़कर
चली गई।
"शादी की?" रितेश ने प्रश्न किया।
“जब तुमने नहीं की, मैंने भी नहीं की। आजाद जीना चाहती थी। अब
तक तो जी रही हूँ। तुम बताओ, यहाँ कैसे?”
“मम्मी की मृत्यु के बाद मैंने दिल्ली
छोड़ दी। नौकरी भी छोड़ दी और फिर यहाँ बस गया हूँ। स्कूल में अध्यापक
हूँ और शाम के समय यह दुकान खोलता हूँ। डॉली अपने खाली समय में दुकान पर बैठ जाती है।
यही है मेरी दिनचर्या। तुम बताओ, यहाँ कैसे?"
"ऑफिस की तीन दिन की वर्कशॉप थी, आज रात की वॉल्वो से दिल्ली
वापस जाना है।" रिया कहने के बाद रितेश को एकटक देख रही
थी। रितेश का वैसा ही आकर्षक व्यक्तित्व अभी भी बरकरार है जिसके ऊपर वह कॉलेज के समय मंत्रमुग्ध हो गई थी।
रितेश भी रिया को देख रहा था। वही आकर्षक रिया जैसे कॉलेज
में थी। शायद उसकी उम्र थम सी गई है।
धर्मशाला के मौसम का मिजाज़ ही कुछ ऐसा है, कब बरसात हो
जाए। दोपहर के समय धूप थी और अब काले बादलों ने सूर्यदेव को पीछे धकेल दिया। हल्की
बूंदाबांदी शुरू हो गई।
“भारत में सबसे अधिक बारिश चेरापूंजी में
होती है उसके बाद धर्मशाला में होती है। बारह महीने बरसात का मौसम रहता है। अभी
गली के नुक्कड़ पर एक हलवाई की छोटी सी दुकान है। शाम के समय गर्मागर्म समोसा और
देसी घी की स्वादिष्ट जलेबी बनाता है। तुम रुको, मैं उसको फोन करता हूँ। अभी थोड़ी
देर में यहीं दे जाएगा।“ रितेश ने रिया से कहा।
“तुम्हारी कमजोरी है न समोसा और जलेबी।“ रिया
को अब रितेश की पसन्द याद आ रही थी।
“दर्पण भी शौक से खाती है।“
“बेटी किसकी है!”
दोनों मुस्कुरा दिए। मीठी मीठी जलेबी साथ में नमकीन समोसा।
“तुम्हें याद है न हमारे घर के समीप वाला
हलवाई भी जलेबी समोसा बनाता था। चाशनी में डुबो कर जलेबी देता था।“
“हाँ वैसा ही तो हमारा चाशनी सा मीठा जलेबी
जैसा प्यार था।“ रितेश बोल उठा।
“हाँ बरसात में भीगना और फिर समोसा जलेबी
खाना।“ रिया अपने पुराने यादों के पिटारे को खोल रही थी।
रितेश मुस्कुरा दिया तभी हलवाई की दुकान से एक लड़का
गर्मागर्म समोसा और जलेबी दे गया।
“इनको खाने का मजा गर्म में आता है।“ रितेश
ने दर्पण को भी आवाज लगाई, “डॉली बाहर आओ समोसा जलेबी खानी है।“
डॉली बाहर आई तब बारिश तेज हो गई। डॉली बाहर बारिश का मजा
लेते हुए भीगने लगी।
“डॉली! जुकाम लग जाएगा। भीतर आओ।“ रितेश ने
आवाज लगाई।
“थोड़ा तुम भी भीग लो। कुछ पुराने दिन याद
करो।“ रिया ने हाथ आगे बढ़ाया।
रितेश एक पल के लिए हिचका। रिया ने उसका हाथ थामा। रितेश
इनकार नहीं कर सका। दोनों बाहर बारिश में दर्पण संग झूम उठे। आज वही अल्हड़पन जो
कॉलेज के समय होता था, वही अल्हड़पन जो विवाह के बाद था। रितेश का हाथ थामे बारिश
में भीगती रिया के गालों पर शर्म की लालिमा छा गई।
जब से रिया ने रितेश को छोड़ा था, उसके बाद आज पहली बार रिया
के गाल इस तरह से लाल हुए, वह समझ गई। वही समोसा के साथ जलेबी वाला प्यार उसे वापस
बुला रहा है।
दर्पण को दो छींक आईं। रिया हाथ पकड़कर भीतर ले गई।
“जुकाम लग जाएगा।“
“जुकाम में गर्म दूध में जलेबी डालकर खाते
है।" दर्पण खिलखिला उठी।
“तुम भी कपड़े बदल लो। भीग गई हो।“ रितेश ने रिया
की ओर देखा।
रिया ने सूटकेस से कपड़े निकालकर बदले। बाल गीले हो गए थे। खोलकर
झटका।
रितेश देखता रह गया। वही पुराना शादी के बाद वाला अंदाज। उफ्फ!
आज की जलेबी क्या इशारा कर रही है!
रिया का फोन बजा। उसके सहपाठी बुला रहे थे।
“मैं छुट्टी की ईमेल करती हूँ। यहीं रुक रही हूँ।“
रिया की बात सुनकर रितेश हैरान हो गई। क्या बोल रही है?
“ऐसे क्यों घूर कर देख रहे हो। पहली बार तो
देख नहीं रहे हो?”
“वर्षों बाद देख रहा हूँ।“
“फिर आराम से तसल्ली से देखो। मैंने दिल्ली
वापस जाने का प्रोग्राम कैंसल कर दिया है।“
रितेश कुछ नहीं बोला।
दर्पण समोसा जलेबी ओवन में गर्म करके ले आई थी।
“डॉली आज तुम्हारे साथ रह सकती हूँ?”
रिया के प्रश्न पर दर्पण परेशानी की हालत में रितेश की ओर
देखने लगी। आई तो एक ग्राहक बनकर थी। अब घर रहने की बात कर रही है। उसने रितेश पर बात
टाल दी।
“अच्छी आंटी हैं। तुम्हारा ख्याल रखेगी।“ रितेश
ने रुकने की इजाजत दे दी।
“मैं आंटी नहीं, मुझे मम्मी कहो!” रिया ने
दर्पण को अपने आगोश में ले लिया और बेतहाशा प्यार करने लगी, “मैं तुझे छोड़कर कभी
भी कहीं नहीं जाऊंगी।“
रितेश बस चुपचाप देखता रहा। रिया की आँखें भरी हुई थीं।
“मैं आज से तुम्हारे पास रहूँगी।“ रिया दर्पण
के साथ व्यस्त हो गई। उसके स्कूल और पढ़ाई की बात करने लगी।
शाम हो गई थी। रिया के बॉस का फोन आया, “कहाँ हो तुम? हम
तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।“
“सर, मैंने छुट्टी के
लिए ईमेल लिखी है। मैं दो दिन बाद आपको बताती हूँ। कुछ निजी बात है। अभी बता नहीं
सकती।“
“ओके, टेक केयर।“ बॉस
ने बस इतना ही कहा।
“क्या आज किसी रेस्त्रां में डिनर करोगी?” रिया
ने दर्पण से पूछते हुए मुड़कर रितेश की ओर देखा, “आज का डिनर मेरी ओर से।“
रितेश ने स्वीकृति दे दी।
रात के आठ बजे पैदल चलते हुए समीप के एक रेस्त्रां में पहुँचे।
डिनर दर्पण की पसन्द का हुआ।
“वो जलेबी मिलेगी?”
“यस मेम। आज स्वीट डिश में रबड़ी जलेबी है।“ रेस्त्रां
मैनेजर ने मुस्कुराते हुए रिया के प्रश्न का उत्तर दिया।
“फिर देर किस बात की है। हमारी डॉली और प्रिय
के लिए रबड़ी जलेबी पेश की जाए।“
“रितेश, जलेबी के साथ
रबड़ी का भी अलबेला स्वाद होता है।“
प्रिय सुनकर रितेश सोचने लगा। आज रिया को अचानक से क्या हुआ
जो इतने वर्ष बाद जलेबी रबड़ी जैसी मिठास भरी प्रेम से बात कर रही है।
रात को रिया दर्पण के पास बिस्तर पर ढेरों बात करती रही। बातों
बातों में दर्पण सो गई।
रिया रितेश के कमरे में आई।
रितेश एफएम रेडियो पर संगीत सुन रहा था। गीत बज रहा था।
मेरा दर खुला है
खुला ही रहेगा
तुम्हारे लिए
रिया ने ठीक उसी प्रकार रितेश का हाथ पकड़ा जैसे वो शादी के
बाद पकड़ती थी।
“शायद यह गीत तुम्हारा उत्तर ही होगा। तुम्हारा
दर खुला है, मैं तुम्हारा जीवन समोसा जैसा नमकीन और रबड़ी जलेबी जैसा मिठास से भर
देना चाहती हूँ।“
रितेश ने रिया का हाथ अपने दिल पर रखा। दिल की धड़कन तेज हो
गई।
“सच में?”
रिया ने अपने नरम होंठ रितेश के होठों पर रख दिए।
“मेरा जलेबी जैसी मिठास वाला प्यार।“
“आज इतने वर्ष बाद जलेबी के साथ रबड़ी भी
मिला दी।“
दो तन एक हो गए।
एफएम रेडियो अभी भी बज रहा था। गीत बज रहा था।
गुण तो न था कोई भी
अवगुण मेरे भुला देना
सुबह उठते ही रिया ने अपना त्यागपत्र ईमेल कर दिया। कारण
लिखा।
मुझे मेरा जलेबी रबड़ी जैसा मीठा प्यार वापस मिल गया।
स्कूल जाने से पहले रिया ने दर्पण का मुख चूमा, “मैंने अपनी
दर्पण को कभी नहीं छोड़ना।“
“सच मम्मी!”
रिया ने अपनी ममता दर्पण पर न्योछावर कर दी।
“बिलकुल सच्ची।“
दर्पण स्कूल चली गई।
रिया ने रितेश का हाथ पकड़ा। रितेश ने रिया को अपने आगोश
में लिया। रिया की आँखें नम थीं।