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पिया मिलन की आस

जेठ की गर्मी कुछ न भाए
मन में हरपल याद सताए 
समय कटे ना पीर मिटे ना 
सब समझाए मन समझे ना

जबसे उनसे नैन मिले हैं 
मन उपवन में फूल खिले हैं 
कूक रही है कोयल मन में 
झाँक रहा कोई दर्पण में

बदरा तू ही मन बहला जा
रिमझिम सावन तू बरसा जा
 सुन पुकार तू इस विरहन की
सुध ले कुछ इस सूने मन की

सुन बदरा मोहे मन की धुन
बरसन लागा रुनझुन रुनझुन
हिरदय में फिर पंख पसारे
नाचे झूमे सपने सारे

नभ से बरसे नीर निरंतर
मैं भी अपनी सुधबुध खोकर
जा पहुँची मिलने को पी से
याद न जाए पी की जी से

पिया मिलन की आस जगी थी
बूंदों की अरदास लगी थी
आखिर वे मिलने को आए
दो मन भीगे तन हरषाए

©ऋचा दीपक कर्पे

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