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श्रद्धा पत्र


      

(जलेबी प्रतियोगिता के लिए जरा हट कर)


श्रद्धा पत्र


   "अरे छोटू! सुन तो, ये क्या है भाई? किसने दिया?....अरे सुन तो .. कहाँ भाग रहा है?"


सात वर्षीय बंटी सुरभि को  एक मोटा सा लिफाफा थमा कर भाग गया था।


वह अचरज भरी निगाहों से  उस बिन नाम पते के लिफाफे  को उलट पलट कर देखे जा रही थी।


एक जमाना था जब ऐसे लिफाफे उसे खूब मिला करते थे, जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही आशिकों की बाढ़ सी आ गयी थी। वह बिना पढ़े ही अक्सर उन लिफाफों को कूड़ेदान के हवाले कर दिया करती थी।


यह सिलसिला लगभग  बारहवीं जमात  तक चला,  उसके बाद  ये बाढ़ थम सी गयी।


पर अब जबकि  वह अपनी पढ़ाई पूरी करके जॉब जॉइन करने वाली थी तो आज इतने लंबे अंतराल के बाद बेनाम लिफाफा मिलना वाक़ई  अमेजिंग था।


'क्या पता किसी सहेली का हो, पर....वो इस तरह क्यों भेजने लगी? यही सब सोचते हुए सुरभि ने लिफाफा खोला।


उसके नाम से ढेर सारे ग्रीटिंग कार्ड्स थे और उन्ही के बीच एक  खत भी..

बड़े ही कोतुहल से उसने वो खत खोला,

लिखा था....


   "सुरभि, मुझे पता है, तुम सोच रही होगी कि किस बेवकूफ़ ने ये बिना नाम पते का  खत  भेजा है, कहीं ये  कोई नया आशिक तो नही है? धैर्य रखो, तुम्हारी सारी जिज्ञासाओं, सवालों का जवाब  इस खत के अंत तक  मिल जाएगा।


पहली बात तो मैं ये जानना चाहूंगा कि  क्या  उच्च शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात आदमी इतना समझदार हो जाता है कि उसके अंदर की भावनाएं, सम्वेदनाएँ ही मर जाती हैं? या वो उनको  दबाकर रखना सीख लेता है?


या फिर  पत्थरों की ठोकर खाते खाते पारस भी पत्थर बन जाता है? 


कहोगी, मैं ये सब क्यों  पूछ रहा हूँ??


आओ, सब बताता हूँ, पॉइंट टू पॉइंट।


गाँव के ही विद्यालय में जब हमने साथ साथ प्रवेश लिया था तब न मैं तुमको जानता था और न तुम मुझे, एक ही गाँव से थे  पर फिर भी  नहीं  जानते थे  एक दूसरे को और शायद  जान भी न पाया होता मैं।


याद आता है वह दिन जब क्लास में आगे की पट्टी पर बैठने के लिए तुमसे उलझ गया था  पर तुम भी कहाँ कम थी, जमी रही  और उल्टा  पंडित जी (अध्यापक) से पिटवा भी दिया था मुझे।


तब शायद तुमको ये नही पता था कि मुझे कम सुनाई देता  है.."


'ओह! तो  ये अमन है!' अचानक सुरभि को याद आ गया।


वह आगे पढ़ने लगी....


"अब तो तुम समझ ही गयी होगी कि मैं कौन हूँ?


जब एक दिन संस्कृत के  पंडित जी (अध्यापक) बोल कर कोई श्लोक लिखवा रहे थे और मैं सुन न सका, कितना जबरदस्त थप्पड़ मारा था उन्होंने मुझे, मुँह छिपा कर रोने लगा था मैं, पहले तो खूब खुश हुई थी कि पिट गया आज, पर जब तुमको पता चला कि मुझे कम सुनाई देता है तो उसी दिन से मेरे प्रति  बर्ताव बदल गया।


अब ये और बात  थी कि ये सिर्फ सहानुभूति थी या कुछ और...


कभी भी, कोई भी, मुझे कुछ भी कहता,  मेरे साथ हमेशा खड़ी नजर आती।


यहाँ तक कि जब सातवी और 8वी जमात में सारे लड़के मेरे खिलाफ हो गये थे तो एक तुम ही थी जो मेरा पक्ष लेती थी।



याद आता है वो दिन जब मैं लंच टाइम में चुपके से अपना बस्ता लेकर  भाग निकलता था पर एक दिन तुम्हारी लाल सुर्ख हुई आँखें मुझे ही घूर रही थी, मैं सहम गया था उस दिन।


हाथ से ही इशारा करते हुए तुमने दूर से ही  पूछा था 'कहां....?'


इतना अधिकार  सिर्फ सहानुभूति में नहीं हो सकता था।


मैं सहम गया था, कहाँ लड़ने को तैयार  रहता था और  कहाँ उस दिन अपराधी की भांति खड़ा रह गया था।


"जल्दी चल! पंडित जी देख लेंगे तो फिर पिटेंगे दोनों!" साथ के लड़के ने खींचते हुए कहा था  पर मैं टस से मस न हुआ था, जड़वत हो गया था मैं ....


अंदर क्लास में जाने का इशारा किया था तुमने.....


इस घटना के बाद मैं तुमसे डरने भी लगा था और एक अपनापन भी महसूस करने लगा था।


तुम मेधावी थी। काफी प्रेरणा मिलती थी तुमसे और यदा कदा सहायता भी करती थी मेरी,


लड़के कहते थे कि तुम पंडितजी  से मेरी बड़ाई भी करती थी, यद्यपि मैंने कभी सुना नही।


तुम्हारी देखा देखी अन्य लडकियां भी मेरी सहायता करने लगी थी, इस वजह से लड़को में मैं उपहास का पात्र बनता था।


कोई कहता 'तू बहुत लकी है'

कोई कहता 'मेरी भी दोस्ती करवा दे' पर क्या ये सिर्फ दोस्ती थी? दोस्ती भी कैसी जिसमें लफ्ज नदारद थे।


दोस्त कौन होता है?  जो साथ दे, साथ रहे, बोले, बैठे, हँसी-मजाक,  दिल की बातें कहे और सुने भी  .....पर...तुम तो सिर्फ मदद हो कर रही थी।


मेरी देखभाल  कर रही थी, क्या था ये? क्या ये मौन दोस्ती थी? या केवल सहानुभूति? या कुछ और?


बी.ए तक साथ पढ़ाई की पर  कभी बात नहीं हुई, हुई भी होगी तो हाँ हूँ तक बस, मैं ही बचकर भागता था।


सुन ही नही पाता था, ऊपर से आँख मिलाने का साहस न होता था।


समय बीतता गया। हम दसवी में पहुच गए। विद्यालय का माहौल कितना जहरीला बन गया था। जिधर देखो इश्कबाजी थी।

सभी लड़के इश्कबाजी में ही मशगूल थे।

तरह तरह की  अशोभनीय हरकतें होती रहती थी। सोचता था क्या यही  जीवन का लक्ष्य है इनका?


सारे लड़को का निशाना अक्सर मैं ही बनता था। तरह तरह के ताने देते थे सब पर मैं चुप रहा, सुनता रहा सब कुछ सिर नीचा करके।


मेरा कोई दोस्त न था, न है, इसी का मलाल रहा हमेशा।


आखिर  दसवी का रिजल्ट भी आया।लड़कियों को छोड़  दें तो पैंतीस लड़को में केवल मैं ही उत्तीर्ण हुआ और लगभग गाँव में भी लड़को में मैं ही टॉपर था।


मैं इसका श्रेय भी तुमको ही को देता हूँ। तुमको धन्यवाद देना चाहता था पर  इतनी भी हिम्मत न थी सो एक चिट्ठी लिखी  पर वो न जँची, दो तीन बार लिखी और फाड़ी पर तुमको धन्यवाद न बोल सका क्योंकि तब  इश्कबाजी के साथ चिट्ठीबाजी भी आम थी। सो इसको सहेज कर रख लिया।

हर नए साल पर और तुम्हारे जन्मदिन पर ग्रीटिंग्स खरीदता था कि तुमको दूँगा पर ऐन वक़्त घबरा जाता और उसको भी सहेज लेता, जो अब तुम्हारे हाथ मे हैं।



जब हम  स्नातक प्रथम वर्ष में थे। एक दिन किताबों की दुकान पर मैं कुछ किताबें ले रहा था। तभी पीछे से तुम भी आई।

तुमने कुछ पूछा था पर मैं सकपका गया था और नजरअंदाज करके जल्दी से चलता बना।



आज भी अफसोस है कि तुम्हे नजरअंदाज करके सबके सामने तुम्हारा अपमान किया  पर माफ करना मैं तुमसे डरता था और हिम्मत भी नहीं थी पर तृतीय  वर्ष तक आते आते कुछ न कुछ तुमसे पूछता ही रहता था और तुम भी पूरी तत्परता से मेरी मदद करती रही थी।


क्या संबोधन दूं तुमको?....


बहन बोलू तो ये शब्द बहुत छोटा लगता  है और आजकल बनावटी भी प्रतीत होता है।

दोस्त बोलूं तो ...आज के जमाने मे दोस्त  लड़को द्वारा लड़को को और लड़कियों द्वारा लड़कियों को बोला जा सकता  है पर कोई लड़का किसी लड़की को दोस्त बोले तो इसका  मतलब कुछ और ही निकाला जाने लगता  है।


 और तो और ये रिश्ता दोस्त की परिभाषा पर भी खरा नहीं उतरता।


दो दोस्त एक दूसरे के काम आते हैं पर तुम केवल मेरे ही काम आती रही, मैं न आ सका, ये तो एक तरफ़ा अहसान ही हुआ न।


सुना है  लड़कियाँ बहुत भावुक होती हैं और लड़के उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाते हैं।


ये बात तो जंगल की आग की तरह हर तरफ फैल चुकी है पर  मैं तुमको कत्तई भावुक नही करना चाहता न  भावनाओ में बहने को कहूंगा।


पूछोगी ये सब क्या है?


उस दिन  तुमसे लड़ाई हुई मेरी, शायद एक  तरफा ...


फिर तबसे आज तक तुमने बोलने तक की कोशिश न की, मनाने की कौन कहे।


तभी मुझे एहसास हुआ कि ये न तो दोस्ती थी न अपनापन ये शायद सिर्फ और सिर्फ  एक सहानुभूति थी जो अक्सर बेचारों के लिए होती है।


दोस्ती में तो रूठना, मनाना सब होता है।डांटना, डपटना, लड़ना, झगड़ना ये दोस्त आपस मे करते रहते हैं।


और दोस्ती भी कैसी जब तुम या मैं कभी एक दूसरे से कुछ बोले ही नहीं, कुछ बतियाया ही नहीं, 


मैं तो बेचारा था सिर्फ और केवल सहानुभूति का पात्र..


तुम्हारा बड़प्पन था जो  मेरे साथ खड़ी रही, हर मुसीबत से बचाती रही, मौन रक्षक की तरह।


चलो छोड़ो, माफ करना, तुमसे लड़ाई की।


तुम्हारे प्रति श्रद्धा  है मेरे मन में और हमेशा ही बनी रहेगी। इसको इश्कबाजी  मत समझ बैठना। ये वो श्रद्धा  है जो माता-पिता, गुरुजनों और बड़े-बूढ़ों के लिए और सम्माननीय जनो के प्रति होती है।



मैं तुम्हारे अहसानो तले इतना दबा हूँ कि समझ नहीं आता कि किन शब्दो में तुम्हारा  आभार व्यक्त करू।


ये जो ग्रीटिंग्स मैं तुमको देना चाहता था,  पर दे न सका,  इसको स्वीकार कर लेना।जरूरी नही कि हर पत्र प्रेम पत्र ही हो।


ये श्रद्धा पत्र तुम्हारे लिए!

तुम्हारा  ....कृपापात्र 

.......अमन।


सुरभि  निर्विकार भाव से ग्रीटिंग्स को भी उलट पलट कर देखे जा रही थी। उसके मन मे गूंज रहा था...


"जरूरी नही कि हर पत्र प्रेम पत्र ही हो।"


   - सूरज शुक्ला


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