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मैं गाँव आया हूँ।

मैं गांव आया हूँ। 

 

आज वर्षों बाद मैं इतने दिनों के लिए गांव आया हूँ, आज नही आया हूँ, मुझे आए तो महीने से ऊपर गुजर चुके हैं पर कहने को कह रहा हूँ आज वर्षों बाद आया हूँ, इसके पहले जब भी आया, दस दिन के लिए, पांच दिन के लिए, इससे ज्यादा मैं चाहकर भी न रुक सका। 

 

एक महीने पहले जब आने की सोच रहा था तब कितना उल्लसित था मैं,  एक अनजाने, अनपढ़े लेकिन अंदर तक रसासिक्त कर देने वाले भाव से,  कितनी सारी चीजें, किंतने सारे लोग, कितनी सारी जगहे, सब अपनी ही तो हैं गाँव मे,  

 

एक महीने पहले, साल भर बाद जब मैंने ट्रैन पकड़ी बनारस की तो दिल के कोने कोने में एक अजीब सी हिलोर उठ रही थी,  कंक्रीट के जंगलों से आजाद हो कर अब मैं अपने हरे भरे गाँव की ओर, पांच नही दस नही पूरे दो महीने के लिए जा रहा था,  सच मे यह अहसास ही कितना रोमांचित कर देने वाला था,  क्योंकि इससे पहले चाह कर भी न रुक सका था कभी......

 

जब राजेसुल्तान पुर पहुँचा तो खुद में कितना बनावटीपन पाया मैंने, रह रह कर यही आ रहा था ख्याल की कमा धमा कर आया हूँ, थोड़ा स्टाइलिश होना चाहिए,  चलने का थोड़ा अलग ढंग होना चाहिए,  बार बार कपड़ो को चेक कर रहा था कहीं अजीब तो नही लग रहे, कहीं ये तो नही लग रहा कि  मैं कमा कर नही आ रहा हूँ,  अगर ऐसा हुआ तो लोग क्या सोचेंगे,  बार बार अपने को ही ऊपर से नीचे तक देखता,  और जब सन्तुष्ट हो जाता कि हां मैं कमा कर आ रहा हूँ तो आगे बढ़ता.....

 

चलने का ढंग अपने आप अजीब हो चुका था मेरा, जाने क्यों  मैं पता नही क्या साबित करना चाहता था, शायद साबित नही कर रहा था, शायद मुझे डर था कि लोग क्या सोचेंगे, ये कमा कर आ रहा शहर से और चलने तक का ढंग नही है। 

 

वो भीड़ भाड़ भरा चौक पार करके जब मैं उस रास्ते पर पहुंचा, जहां  पेड़ों, इक्का दुक्का बाइक सवारों, सायकिल सवारों के सिवा कोई नहीं था, तब जाकर मेरी चाल,  मेरी सोच, मेरे हर व्यवहार में खुद ब खुद बदलाव आ गया, जाने क्यों!

 

पता नहीं किसी ने ध्यान भी दिया होगा मुझपर या नहीं, खामखाह ही डर रहा था, जाने कितने लोग रोज ही आते हैं शहर से, जाते भी हैं, अब तो हर तीसरे दिन बाइक से पहुच जाता हूँ,  कभी सिंघल पट्टी कभी राजेसुलतान पुर, कभी साबित पुर, पर अब वैसा नहीं लगता। जाने क्यों!!

 

कितनी सारी चीजें सोच रखी थी मैंने,  ये करूँगा, वो करूँगा, यहां जाऊंगा, वहां जाऊंगा, इनसे मिलूंगा, उनसे मिलूंगा पर .... पर घर आते ही, और एक दो जन से मिलते ही सब कुछ ठंडा पड़ गया,  शायद... शायद कल्पना और हकीकत में यही फर्क है। 

 

छोटे बच्चे... जो मेरे दोस्त हुआ करते थे, बड़ो को कभी बनाया ही नहीं मैंने दोस्त, बड़ो से मतलब हमउम्र लोगों को, छोटो से ही बनती थी, भोले होते हैं वो, एक दम निश्चल, पवित्र,  कपट से कोसों दूर, वो अच्छे लगते हैं, भगवान जैसे,  निस्वार्थ,  लेकिन वे भी अब बड़े हो चुके हैं, बहुत बड़े बड़े, लंबे भी हो गए हैं,  दाढ़ी मूंछे भी आ गई हैं,  उनके लिए ये कितनी अच्छी बात है, वे बड़े हो गए, मैं भी कभी सोचता था मैं भी जल्दी से बड़ा हो जाऊं, पर अब लगता है, मैं छोटा ही अच्छा था, और जो बच्चे बड़े हो गए, वो छोटे ही अच्छे थे, वे बड़े क्यों हो गए, मेरे जाने कितने दोस्त  छिन गए। 

 

गलती मेरी ही है, मैं ही चला गया रुपयों की खातिर उन्हें छोड़ कर, अगर मैं होता यहां तो शायद वे मेरी आँखों के सामने होते, और तब शायद वे मुझे बड़े न लगते या शायद मैं उन्हें बड़े होने से रोक लेता। पर वे अब बड़े हो गए,  अब सोचता हूं, कभी दोस्त नहीं बनाऊंगा, वरना वो भी बड़े हो जाएंगे, 

 

आगे  कल या परसो बताऊंगा, गांव की बहुत सारी बातें, जिन्हें मैं जी रहा हूँ, महसूस कर रहा हूँ,  

 

.............सूरज शुक्ला।

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