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बाढ़

  शाम का वक्त था। बारिश आने की कोई आहट नहीं थी।  आसमान में  सिर्फ धुंधले धुंधले बादल बिखरे थे। आज शनिचर था।  मैं  बाला हनुमानजी के दर्शन के लिए निकला।  हर शनिचर को मैं बाला हनुमानजी को माथा टेकने जाता था । बाला हनुमान मंदिर शहर से २०  किमी  दूर स्थित था।  

    सड़क पर काफी ट्रेफिक था। शहर पार करने में वैसे ही  मुझे एक घंटा लग गया।  फिर थोडी ही देर  में  मंदिर पहुँच गया । दो चार दर्शनार्थी आए हुए थे।  हनुमानजी को तेल, मालाएँ  चढ़ाकर  चले गए थे। मैंने भी श्रद्धापूर्वक अपना कर्म पूर्ण किया। दो मिनट बैठकर चल दिया।  

             रोड़ सुनसान था। अंधेरा सब जगह  फैल गया था । थोड़ा दूर ही निकला कि  आसमान में उमड़ घुमड़ के  बादल आने लगे।   अंधेरा काफी गहरा हो गया था ।  बादल ने बरसना और गरज़ना  शुरू कर दिया।   अच्छा हे कि बारिश के । मौसम में   डिक्की में  रेईनकोट रखता था, वरना रास्ता  वैसे ही सीधा और सपाट था  ।  समुद्र की भर्ती का पानी पूर्णिमा और अमावस के दिन इस रास्ते तक पहुँच जाता है। इसके खारेपन से  कोई पेड़ फल नहीं सकता था। हाँ यहाँ  नमक पकाने की खेती हो रही थी, पर बारिश का मौसम था तो  चार महीने   अगरिये और मालिक  सब कुछ  छोड के  अपने घर चले जाते थे,  इसलिए रास्ता पुरा सुनसान रहता था।  जल्द ही मैंने रेईनकोट पहन लिया ।  मोबाइल बंद करके प्लास्टिक की थैली में  लपेटकर डिक्की में रख दिया  और गाड़ी चलाने लगा।  पता नहीं, बादल को क्यों  इतना गुस्सा आ रहा था कि उसके गरज़ने की आवाज़ कानों को फाड़ देती थी।   इस के साथ ही  बिजली कुछ इस तरह चमक रही थी कि पूरी सड़क को चकाचौंध कर देती थी।  लगता था  सड़क और उसके आसपास  जो थोडी बहुत घास-फूस थी सबको जला के राख कर देगी।  मौसम काफी डरावना हो चुका था।  मैंने हनुमान चालीसा का पाठ  शुरू कर दिया।  बारिश के छींटे इतने  बड़े थे कि अब मुझ से गाड़ी नहीं चलाई जा रही थी। पानी का  बहाव भी इतना बढने  लगा  कि  बड़ी-बड़ी चीज़ो को अपने साथ खींचता था । शायद बारिश के साथ समुद्र  का पानी भी आ गया था ।  समझो, अचानक ही बाढ़ आ गई थी । 5 किमी की दूरी तय करने में मुझे आधा घंटा लग गया । मेरे हनुमान चालीसा के पाठ से जैसे  हनुमानजी प्रसन्न हुए । बिजली की चमक में  एक   पेड़ नजर आ गया।  मैं  जल्द ही   इस पेड़ के नीचे आ गया।  ज़मीन वहाँ थोडी ऊँची थी, शायद इसीलिए यहाँ इस पेड़ का होना  संभव था। मैं  पेड़ के नीचे आ गया।  बडे-बडे छींटे और बाढ़ के पानी  से मुझे राहत मिल गई।  दस पंद्रह मिनट हुइ कि बारिश रुक गई।  जैसे सिर्फ मुझे ही परेशान करना था।  मैं हनुमानजी  का आभार व्यक्त करके निकल ने के लिए तैयार हुआ।  पतलुन की पिछली जेब से गाडी की चाबी निकाली कि तेज़ चमचमाती  बिजली चमक उठी।  बिजली की तेज़ रोशनी में मेरी  नज़रों ने कुछ अजीब सा देखा।  मैंने  डिक्की से मोबाइल निकाला।मोबाइल की बैटरी ओन करके देखा तो पारदर्शी प्लास्टिक में  लपेटी हुई एक लाश वहाँ पडी थी।  लाश से खून निकलकर खुद लाश उसमें  भीग गई थी। प्लास्टिक कहीं से थोडा बहुत फट गया था,  तो खून प्लास्टिक से बाहर निकल रहा था और बाहर का पानी व कीचड़ प्लास्टिक में  घुसने की कोशिश कर रहा था।   पेड़ के नीचे रुकने से  और मेरे तन की गर्मी से मैं कॉफ़ी सूख गया था।  पर फिरसे मुझे गीलापन महसूस हुआ  यह गीलापन बारिश की वजह से था या फिर बारिश की ठंड में भी मुझे पसीना हो रहा था।  मैं  जल्द ही वहाँ  से भागा।  घर पर पहुँचा तो रात के बारह बज चुके थे। मैंने जो देखा था इसकी वजह से मुझे बुखार सा आ गया था।  मैंने पैरासिटामोल की गोली ले ली और सो गया। 

        सुबह देर से उठा।   नहा-धोकर चाय बनाने रसोईघर में  घुसा।  लाश का भयानक दृश्य से  मैं  अब भी थरथरा रहा था। मैंने चाय बनाने के लिए गेस शुरू किया,  तभी ही  डोरबेल बजी। मैं  फिर डर  गया,  'भूत की कहानी की तरह लाश मेरा पीछा करते हुए, कहीं  मेरे घर तक तो नहीं पहुँच गई !' थरथरते  हुए  मैंने दरवाज़ा खोला ।   मैं  ओर भी ड़र गया।  

मेरे सामने पुलिस खड़ी थी।  "आप ही मिस्टर कृणाल?" "हाँ ! मेरा नाम ही कृणाल  है,  बताइए !" उसने अपना आई कार्ड मुझे दिखाया।  'पुलिस इंस्पेक्टर जाडेजा   और हवालदार जादव '।    "ये वोलेट आपका है?"   मैं अपना वोलेट ढूँढने लगा ।  शायद रात को जेब से चाबी निकाल ने के वक्त  मेरा वोलेट  उस पेड़ के नीचे गिर गया था।  वोलेट में  मेरी पानकार्ड, आधारकार्ड  सभी की  जेरॉक्स कोपियाँ रखता था।  लाश के पास पुलिस को मिली होगी ।  सबसे  बड़ा सबूत मानकर पुलिस ढूँढते हुए  मेरे घर तक पहुंच गई।  

"जी !"

जाडेजा : "इसका मतलब है,   खून तुमने किया है?"

"नहीं सर मैंने नहीं किया हैं !" 

"हवालदार घर की तलाशी लो" ।  मेरे मना करने  पर भी हवालदार  मेरे घर की तलाशी लेने लगा । 

 "सर! खून वाले  ये  कपड़े  पिछवाडी नाली से मिले है !"  

जाडेजा :   "ये कपड़े आपके हैं?"

"जी" 

जाडेजा: "इसका मतलब साफ-साफ है, खून आपने किया है?" 

  "नहीं सर ! मैं मंदिर  दर्शन करने  गया था।  तेज बारिश की वजह से  पेड़  के  नीचे रूका था ।   पेड़ के नीचे लाश देखकर मैं बहुत ही घबरा गया था ।  जल्द ही वहाँ से  भागने की कोशिश की,  कीचड़ की वजह से  मेरा पाँव फिसल गया और  मैं लाश के पास ही गिर गया और लाश से  निकलने वाले  खून से  मेरे कपड़े भीग गये।   घबराहट में  कपड़े  मैंने  घर की पिछवाडी नाली में  फेंक दिया ।"

"यह साबित कोर्टरुम में करना । फ़िलहाल यह सबूत से मैं तुमको  गिरफ्तार कर रहाँ हूँ ।" 

   खामख्वाह ही  पुलिस मुझे पकडकर पुलिसथाने  ले गई ।   

पुलिसथाने में मेरी बहुत पूछताछ की गई।  मैंने जो  कुछ हुआ था बता दिया।  खूनवाले  कपड़े के सिवा लाश पर मेरा कोई ओर ठोस सबूत नहीं मिलने की वजह से मुझे शक  के   दायरे में रखा  और शहर छोड़ने से मना कर दिया गया।  मैं  घर वापस आ गया ।  अच्छा हुआ, मेरी अब तक शादी नहीं हुई थी और माँ-पिताजी गाँव रहते थे।  

 

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जाडेजा : "जादव ! पोस्टमार्टम करवा के  लाश को कोल्ड रूम में रखवा दो । आसपास के सभी पुलिस स्टेशन में  जाँच कर लो,  किसी के गुम होने की  रिपोर्ट मिली है?  जिससे हमें लाश की पहचान मिल सकती है  ! वैसे सिर पर इतने वार है कि उसका चहरा भी पहचानना मुश्किल है।  दो दिन में  अगर किसी की गुम होने की फरियाद नहीं मिलती, तो फिर हम लाश की तस्वीर अखबार में  छापने के  लिए भेज देंगे।"

जादव : "साहब मैंने सभी कार्रवाई शुरू कर दी है।"

 

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           (दुसरे दिन )

  जाडेजा  : "जादव चलो  एक  बार फिर  उस पेड़ के पास जाते हैं । शायद कोई सबूत मिल जाये ।"

जादव  :  " कुछ भी नहीं मिल रहा। । वह आदमी  सही  बोल रहा  है  । फिसलने के चिन्ह हैं,  देखो !"

जाडेजा: "मुझे लग रहा है।  खून कहीं ओर हुआ है।  बाढ़ का पानी लाश को खींच के लाया होगा।  यहाँ ज़मीन थोडी ऊँची उठी हुइ है,  इसलिए लाश यहीं पर अटक गई होगी।" 

जादव: "और  बाकी जगह, पानी सारी  निशानियाँ खींच के अपने साथ  ले गया ।"

जाडेजा ने जादव की पीठ थपथपाई। " देखते हैं, दो दिनों में कुछ होता है कि नहीं?."

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    बहुत ही बेचैनी से मेरा वक्त गुजर रहा था।  'क्या होगा?  लाश किसकी होगी? खून किसने किया होगा? क्यों किया होगा?'  सोच-सोच के  मेरा दिमाग चकरा रहा था।    मैं  मन ही मन ईश्वर को प्रार्थना कर रहा था  'खूनी मिल जाये !' मैं  चैन की सांस ले सकूँ। 

"पुलिस स्टेशन का एक चक्कर लगा लूँ  क्या  हुआ,  पता चले !"

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जाडेजा  : "आइए  ! खुनी का पता लगाकर आये हैं,  हम तुम्हें छोड देंगे!! ऐसा मत सोचना। आपके कपड़े लाश के खून से भीगे हुए थे।  आपको फाँसी के फंदे तक पहुँचाने के लिए काफी है।"

     मैं  फिर थरथरा गया।   "सर ! खूनी का कुछ पता चला?"

जादव : "साहब  !  आंबावाड़ी पुलिस स्टेशन पर एक औरत अपने पति के गुम होने की रिपोर्ट लिखवाने आई थी।   रिपोर्ट लिखकर  औरत को यहाँ  भेजा गया है।  अंदर बुलवाऊँ?"  

जाडेजा: "बुलाओ !"

 "नमस्ते सर!" ४०/ ४२ साल की एक औरत आती है।

जाडेजा: "क्या नाम है?"

औरत  : "निर्मला देवी"

जाडेजा :  "आपके पति का?"

निर्मला देवी : "अनिरुद्ध"

जाडेजा: "आपके  पति कब  गुम हुए ?"

निर्मला देवी  : "तीन दिन पहले!"

जाडेजा  : "तो फिर आज रिपोर्ट ?"

निर्मला देवी : "वे कभी कभी एक दो दिन तक घर नहीं आते!"

जाडेजा  :  "क्या करते हैं, आपके पति ? क्यों घर नहीं आते ?"

निर्मला देवी: "जी, हमारी नमक पकाने की फैक्टरी है।  शहर से करीब १०/१२ कि मी की  दूरी पर।  परायी औरत के साथ वे अक्सर कहीं-न-कहीं पडे रहते हैं।"

जाडेजा: "फोटोग्राफ दिखाओ ।"

निर्मला देवी : "जी "

जाडेजा: "हमें एक लाश मिली है! चेहरा तो ठीक से दिखाई नहीं देता।  पर आप देख लें।"

       निर्मला देवी को  लाश के फोटोग्राफ दिखाते हैं।

निर्मला देवी एक्दम ही चीखकर खडी हो जाती है।

"नहीं साहब ! चेहरे से नहीं मालूम  होता,  पर   लाश के जो कपड़े हैं,  मेरे पति के ही हैं ! क्या हुआ है  मेरे पति को?"

जाडेजा  :  "उसका खून हुआ है? अपने पति के लफड़े से तंग आकर कहीं तुमने तो  उसका खून?"

निर्मला देवी : "नहीं सर, जैसा भी था,  मेरा पति था।  मेरे दोनों बच्चों का बाप था। हमारे बीच अक्सर कहासुनी हो जाती थी।  पर साहब मैं उसे मार नहीं सकती। कौन है खुनी,  किसने मेरे पति की हत्या की? 

जाडेजा :"फिलहाल तो खूनी का पता नहीं चला है,  शक के दायरे में एक आदमी है, इसमें अब तुम भी शामिल हो चुकी हो । तीन दिनों के बाद रिपोर्ट लिखवाने के लिए जो  आयी हो! जादव  पूरी जाँच करके, ' निर्मला देवी का ही पति है? ' पूरे सबूत लेकर लाश को सौंप दो और फैक्टरी का नाम, उसमें काम  करने वाले कर्मचारी आदि पूरी जानकारी ले लो ।  हम फैक्टरी पर चलते हैं, अब खूनी हमसे बहुत दूर नहीं है।"

"आपको किसी पर शक है तो हमें बताए।   हमारा काम आसान हो जायेगा।  इस आदमी को पहचानते हो?(कृणाल को दिखाया)"

निर्मला देवी : "जी नहीं। मुझे किसी पर शक नही है।"

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    अब मैं  घर पर  वापस लोटा । मैंने थोडी चैन की साँस ली ! अच्छा हुआ, मैं और उस औरत हम एक दूसरे से अनजान थे।  वरना फिर कहीं नये तरीके से  मैं  इस केस में  फँस जाता। फिर भी  इस केस से मैं पूरी  तरह  से आज़ाद तो नहीं हुआ था। हर रोज मुझे  पुलिस स्टेशन में  एकबार उपस्थित  होना  पडता था। 

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 जाडेजा : "जादव ! साली ये  बरसात और बाढ़ को खून वाले दिन ही आना था। कोई सबूत नहीं मिल रहा है।  बारिश की वजह से कोई गवाह भी नहीं है।    सभी फिंगर प्रिंट  पानी के साथ बह गई है।  नमक के  ओस की  वजह से फैक्टरी में भी  कोई फिंगर प्रिंट नहीं मिल रहा है।"

जादव : "हाँ साहब ! और सारे कर्मचारी,  मजदूर सभी  का निवेदन और जाँच में  भी कोई संदेह वाली बात नहीं मिली।"

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जादव :  " सर ! पोस्टमार्टम  रिपोर्ट से पता चलता है कि हत्या किसी लकडी के डंडे से की है।  माथे पर और चेहरे पर बहुत सारे वार हुए हैं।  जिससे पूरा सिर और चेहरा पहचान ने के काबिल नहीं रहा।"

जाडेजा: "एक काम करो,  सुरक्षाकर्मी को बुलाओ।  उसके पास से हमें बहुत कुछ बाते मिल सकती है। उसके पास भी लकडी का डंडा रहता है। हो सकता है, रूपये या किसी अन्य वजह  से उसने खून किया हो ।"

सुरक्षाकर्मी परमार: "जी सलाम साहब !"

जाडेजा: "आपके मालिक का खून लकडी के डंडे से हुआ है। कही तुमने... ?"

परमार: "क्या बात कर रहे हैं साहब ! मैं  अपने मालिक को क्यों मारुँगा? वे मुझे अच्छी खासी  तनख्वाह देते थे और साथ में  फिजूल खर्ची भी कभी-कभी दिया करते थे।"

जाडेजा: "इस बार फिजूल खर्ची नहीं दी हो और अनबन में  अपना डंडा उसके  सिर पर !" 

परमार :  "नहीं-नहीं, साहब !"

जादव:  "अच्छा आपकी ड्यूटी का  वक्त क्या होता था?"

परमार: : "साहब ! मैं  दुसरे गाँव से हूँ।  मुझे  रहने की दिक्कत होती थी,  तो मैंने चौबीसो घंटे की नौकरी रख ली थी ।"

 "फैक्टरी बंध थी तो, अपने गाँव था।  आपका बुलावा आया तो मैं  आया हूँ !" 

जाडेजा : "आपके मालिक औरतों को लेकर फैकटरी में  कभी आते थे?"

परमार: "साहब पता नहीं  । पर कभी कभी वे मुझे  शहर कुछ-न-कुछ काम के लिए भेज देते थे।  शहर आने-जाने में  एक-दो घंटे लग जाते  थे । इस बीच क्या होता था पता नहीं।"

जाडेजा : "अच्छा ! तुम जा सकते हो, मगर मैं जब भी बुलाऊँ तुमे आना पडेगा।"

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     पुलिस वाले अपने काम में  लगे थे।  मैं अपने काम में लगा रहा था।  मन नहीं करता था, पर काम तो करना ही पडेगा । गाँव माँ-पिताजी को रूपए भेजने होते थे।  यहाँ शहर में  मेरा खर्च निकालना था।  ऑफिस की चाबी मेरे पास रहती थी।  हर सुबह मैं  सबसे पहले जाकर ऑफिस की साफ-सफाई करवाता था।  

         आज ऑफिस की साफ-सफाई करवा रहा था कि मेरी नज़र पासवाली ऑफिस पर पडी । ऑफिस की साफ-सफाई करने एक नई लडकी आयी थी।  शायद मेरी हमउम्र थी। शरीर का रंग  श्याम था।  पतली थी पर उसके तन का उभार काफी सुरूप था । उसकी उँचाई भी अच्छी थी।   बाल बिखरे-बिखरे थे।  लगता था  पुरे दिन काम की वजह से बाल सँवार नहीं सकती थी।  वरना बहुत ही सुन्दर लगती। 

अब रोज़ वो साफ-सफाई करने आती और रोज़ मैं उसको देखता था।  थोडे दिनो के बाद वह भी मुझे देखने लगी थी। 

    मेरा मन उसके बारे में ही सोचता रहता था।  मैं  कौन-सा बडा साहब हूँ।   छोटी  वाली ये नौकरी है।  गाँव पैसे भेज सकूँ उतना कमा सकता था।  ऐसी जिवनसाथी मिल जाये तो 'दोनों कमा लेते और जीवन नैया  पार हो जाती' काली थी, पर कालेपन में  भी बहुत सुन्दर दिखती थी।  

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जाडेजा: "जादव ! लेडी हवालदार किरन को बुलाओ।"

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किरन : "बोलिए साहब !"

जादव: "जल्द ही तुम निर्मला देवी को लेकर आओ "

किरन : "जी साहब !"

 किरन निर्मला देवी को पुलिस स्टेशन लेकर आती है।

निर्मला देवी कुछ डरी हुई,   सहमी हुई और थोडी शोकग्रस्त जाडेजा के सामने बैठती है।

जाडेजा : "ये खूबसुरत पायल आपकी है?"

निर्मला देवी : "हाँ साहब"

जाडेजा : "दूसरी कहाँ है?"

निर्मला देवी : "दोनों ही मेरे पास नहीं थी। आपको ये कहाँ से मिली?"

जाडेजा: "मतलब?"

निर्मला देवी : "एकबार  बाज़ार में यह खूबसुरत पायल देखी तो मैंने खरीद ली । खून वाले दिन ही पैरों में डाल रही थी कि  अनिरुद्ध की नज़र इस पायल पर पडी।  उसे बहुत पसंद आ गई होगी ! झटके से पायल ले ली और घर से निकल गये।  शायद अपनी माशुका को भेट देनी थी।"  

जाडेजा : "झूठ बोल रही हो निर्मला देवी तुम !" 

"हमने आपके बच्चे,  नौकर-चाकर,  ड्राइवर सबसे पूछताछ कर ली है।  सब के मुँह से यही बात निकली है कि  तुम दोनों में अक्सर लडाई झगडे होते थे ।  झगड़ा जब भी होता तुम एक-दूसर से मरने या मारने की बात हो जाती थी।  हाथापाई पर तुम दोनो उतर आते थे।"

 "हत्या के दिन भी तुम दोनों का झगडा हुआ था।  अनिरुद्ध घर से  निकल गये।  थोडी देर बाद तुम भी निकली।   ड्राइवर को मना करके खुद गाडी चलाकर गई।"

   "फैक्टरी से थोडी दूरी पर कादव-कीच़ड सुख जाने पर अनिरुद्ध का मोबाइल,  उसका वोलेट आदि चीजें मिलीं।  कीच़ड में फँस गई होगी तो बाढ का पानी उसे अपने साथ नहीं ले जा सका।  यह पायल भी फैक्टरी के अंदर कहीं फँस गई थी।  अफसोस पानी ने कहीं किसी जगह फिंगर प्रिंट नहीं छोडी !"

   "जिससे साफ पता चलता है कि तुम्हें मालूम था कि अनिरुद्ध फैक्टरी जा रहा है।  फैक्टरी बंद होने की वजह से वहाँ कोई नही था और पूरी आसानी से तुमने अपना काम निपटा लिया?"

निर्मला देवी : " सर ! सारी बातें सच है,  पर मैं फैक्टरी जाने निकली कि एकदम ही बारिश आनी शुरु हो गई । शहर से  बाहर निकली तो वहाँ बाढ़ का रुप  देखकर मैं  वापस लौट आई ।  मैं  वहाँ उसे मारने नहीं गई थी।  उसे रंगे हाथ पकडने गई थी। मैं  नहीं चाहती थी कि ड्राइवर के सामने  पूरी तरह से सब बाते खुल जाये। पैसे की  कोई कमी  नहीं थी तो वो अक्सर बड़ी-बड़ी  होटल, डान्स बार येसी जगह ही अपना शौक पूरा करता था। रुप ललना  से ऐयाशी  करता था। पता नहीं,  उस दिन  शायद उसकी  मौत उसे  वहाँ बुला रही थी, उसके मुँह से निकल गया की 'अब तो फैक्टरी में भी घर बसाऊँगा, देख लेना तुम !' । पर मैं फैक्टरी पहुँच नहीं सकी ।"

 जाडेजा : "अभी तो मैं तुम्हारा निवेदन दर्ज कर  रहा हूँ।  पर आज से तुम्हें भी हररोज़ पुलिस स्टेशन उपस्थित होना पडेगा और जब तक केस सॉल्व नहीं होता तुम शहर छोड़कर नहीं जा सकती।" 

   "जादव  इस पायल की तस्वीर  शहर के सभी  सुनार की दुकान पर भेज दो। पायल बहुत ही सुन्दर है।  अनिरुद्ध ने किसी अमीर को दी होगी तो वह दुसरी बनवाने के लिए आयेगा।  गरीब को दी होगी तो जरुर बेंचने आयेगा।"

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दिन पर दिन बीतते थे।  एक बार मैंने हिम्मत करके लडकी से उसका नाम पूछ लिया।  "शामली" शर्म की झाँकी उसके चेहरे पर खिल उठी । "मेरा नाम कृणाल है,  कोई काम हो तो निःसंकोच बता देना।"  हमदर्दी पाकर उसे  सुकून सा  मिला ।  मैं भी  तो विवाहित जीवन की आशाएँ संजोते हुए घर की ओर चल पड़ा। 

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मैं आज  बाज़ार में था,  अचानक ही जादव मेरे सामने प्रगट हो गया। झट से मेरे हाथ में  हथकडी डाल दी" अब तुम्हारा खेल खत्म हो गया है, चलो  !" 

 जोर का धक्का लगाकर उसने मुझे लोकप में  डाल दिया। 

   'पता नहीं ये लाश किस जन्म की दुश्मनी मुझसे निकाल रही है ? अच्छा होता मैं शामली को बता देता कि मैं एक खून केस में  फसा हूँ।  मेरे बारे में क्या सोचेगी ?' 

इतने में ही जाडेजा मेरे सामने आकर खड़ा हो गया !  उसकी आँखों में खून खोल रहा था। मुझे वो  प्रत्यक्ष फाँसी का फंदा दीख रहा था। 

  उसने  एक पायल मेरे सामने झुलाई 

  "ऐसी पायल तुम्हारे  पास कहाँ से आई?" 

मैं  चौंक गया !

 "सर ! मैं  नहीं बता सकता ।"  

एक जोर का चाँटा मेरे मुँह पर पडा।  मेरा सिर चकरा गया । "बताता हूँ सर !"

 थोड़ी ही देर में  शामली मेरे सामने थी। 

"ओह ! तो तुम दोनो ने मिलकर खून किया है?"

"नहीं मैं किसी खून के बारे मैं नहीं जानती,  इस पायल का भी मुझे कुछ पता नहीं।" शामली  काँप रही थी। 

अब किरन की बारी थी।   शामली  लड खडा गई, किरने के एक जोर के चाँटे से ।"  बताती हूँ  मेम ! लम्बी कहानी है।"

जाडेजा  : " किरन !निर्मला देवी को भी बुला लो"

पुलिस स्टेशन में सन्नाटा छा गया।  सिर्फ शामली की मृदु आवाज ही सुनाई दे रही थी। 

"माँ-पिताजी बचपन में ही  गुज़र गये थे। दूर के  चाचा-चाची मुझे  पालते थे।  चाची  मुझसे घर का  सारा काम करवाती थी ।  बचाखुखा खाना दे देती थी।  पढाई का तो मैं सोच भी नहीं सकती थी। चाचा-चाची दोनो नमक के खेत में  काम करते थे। थोडी बड़ी हुई तो मुझे  नमक के खेत में    रोज़गार के लिए  साथ ले गये।  यहा मैं खेत के  तटबंध में  पानी भरना, नमक इकठ्ठा करना, नमक से   तसला भरना,  उसे नमक के ढेर तक पहुचाना आदि मजदूरी का काम बड़ी महेनत से करती थी।  जिससे मुझे  अच्छी रोज़ी मिलती थी। चाची  थोड़े बहुत पैसे मुझे देकर बाकी के रुपये खुद मालिक से  ले लेती  थी।"

"मेरे तन पर यौवन ने दस्तक दे दी थी।   इक लड़की  जो विवाहित जीवन का ख्वाब देखती है,  मैं भी ख्वाब देखने लगी थी।  एक राजकुमार सा लडका हो।  मुझे प्यार करे।  मेरे तन को छुए।  मेरे बाल पसारे।  मेरे होठों पर अपना होठ रख दे।  जिसके लिए मैं  सजु-सँवरुँ।  मेरा अपना घर हो।  मेरे भी बच्चे हो।  अफसोस! चाचा-चाची को तो मेरी कमाई में ही दिलचस्पी थी। मेरी शादी के लिए उसके पास रूपये नहीं थे।  अगर कहीं से कुछ कर के शादी करवा भी दे तो मेरे रुपये आने बंद हो जाये।  प्रेम करके भी शादी कर लूँ ! पर मेरे शामले तन से किसको प्रीत होती।   हर लडके को अपनी प्रेयसी गोरी ही चाहिए थी।  मेरे श्याम रंग की वजह से ही शायद मेरा नाम 'शामली'  रखा गया था।   मैं अपने नसीब को कोसती अपना जीवन बिताती  थी ।"

 "एक दिन   तसला माथे पर रखकर, मैं  नमक के ढेर तक जा रही थी कि मेरा पाँव फिसला। खेत में सभी जगह कीचड़ होता है।  मेरे सारे तन पर कीचड़ लग गया ।  हम मज़दूर फैकटरी में कपड़े की एक जोड़ी रखते थे।  मैं अपना कपड़ा लेकर फैक्टरी की पिछवाडी में गई।  मेरा सारा बदन कीचड़ से खराब हो गया था।  मैंने बदन से सारे कपड़े उतार दिये और साथ लाये पानी से बदन साफ करने लगी।  अचानक कुछ आहट हुई।  मैंने देखा तो मालिक अनिरुद्ध वहाँ आ गया था।  उसकी नज़र मेरे बदन पर पडी।  मैं  झट से अपने कपड़े लेने गई,  कपड़ा थोडी दूरी पर था।  वो मेरे पास आ गया।  पाँव से सिर तक उसने अपनी नज़र डाली।  वो कामुक हो गया था।  वो  मेरे निजी अंगों से खेलने लगा।  किसी आदमी ने  मुझे  पहली बार छुआ था।  हर लड़की जिसका इंतजार करती है,  यह घड़ी मैं महसूस कर रही थी।  उसकी कामुकता मेरे बदन पर भी चढ़ गई थी।  मुझे लगा शायद मैं अपना होश-हवाश खो बैठूँगी।  पर मैं  कुलीन लडकी थी।  मुझे लगा, यह गलत है।  सहसा ही मैं  पीछे हट गई।  कुछ आहट सुनकर वो भी मेरी ओर देखता चला गया।" 

 "उस वक्त तो मैं  पीछे हट गई।  फिर मेरे मन पर अनिरुद्ध छा गया । उसका स्पर्श मेरे मन को अभिभूत कर गया । काम करते वक्त वो मुझे देखता था और मैं उसे । अगले दिन उसने मुझे इशारे से फैक्ट्री के पीछे बुलाया, लेकिन मैं नहीं गई । उस रात मेरे मन पर तन हावी हो गया था।  मैंरे तन ने मुझसे विद्रोह किया । आख़िरकार मैं अपने शरीर से हार गई।  अगले दिन फिर अनिरुद्ध ने मुझे इशारे से फैक्ट्री के पीछे आने को कहा। मैं  सबसे नज़र चुराकर गई।  अनिरुद्ध  झट से मुझसे चिपक गया और मेरे तन को चुमने लगा।  मुझे बहुत अच्छा लगा।   अब वो मुझे रोज़ फैक्टरी के पीछे बुलाता था, पर कोई आ जाने की डर से कुछ आगे नहीं कर सकता था।" 

   "पांच बजे हमारा वक्त खत्म हो जाता था।  आज ६ बजे घर पर पहुंची कि  मोहल्ले का एक लडका   आया और मुझे कहा 'बाहर कोई तुम्हें बुलाता है ' बाहर जाकर  देखा तो अनिरुद्ध था।  मुझे ओटो का पैसा देकर फैक्टरी बुलाया।  चाचा-चाची को तो मैं कहाँ जाती हूँ, क्यों जाती हूँ इससे कोई मतलब नहीं था।"

      "मैं फैक्टरी गई।  अनिरुद्ध वहाँ मेरा इंतज़ार, कर रहा था।   सुरक्षा कर्मी को उसने किसी काम से बाहर भेज दिया था ओर कोई फैक्टरी पर नहीं रहता था।  उसने मेरे कपड़े उतारना शुरू कर दिया 'जी साहब, ये गलत है।  आप शादीशुदा है।  आपके दो बच्चे हैं। आपकी बीवी भी कितनी सुंदर है !"

अनिरुद्ध: " सिर्फ सुन्दर है।  जो बात तुममें है, उसमें नहीं। वो शीतल है।  तुम  जो मुझे गर्म कर सकती हो, वह नहीं कर सकती।  बस तुम अपना सब कुछ मुझे सौंप दो।  मैं अपने विवाह से विच्छेद कर लुँगा। तुम्हे अपनी रानी बनाऊँगा।  रही बच्चों की बात, तो हमारे भी बच्चे होगे।"

     "मैं उसकी बहकी-बहकी बातो में आ गई।  उस दिन मैं लडकी से एक औरत बन गई।  अब हप्ते में एकबार मुझे फैक्टरी बुलाता था।  हरवक्त कोई-न-कोई बहकावे की बात करता था।" 

  "अब मैं  पेट से हो गई थी।  मैंने उसे शादी करने के  लिए ज़ोर डाला, पर उसके पास बातों का ढेर रहता था।  कोई ऐसी बात करता कि मैं उसकी बात में आ जाती थी।" 

    "तीन-चार  महीने ऐसे ही गुजर गये । बारिश का मौसम आ गया  था । अब फैक्टरी बंद रहती थी।  उसका काम ओर आसान हो गया था । मेरा पेट भी प्रबल हो रहा था।  उसको लगता था कि मैं समाज के डर से बच्चा गिरा दूँगी।   पर अब मैं टस-से-मस नहीं होने वाली थी।  आज भी उसने मुझे फैक्टरी बुलाया।  मैं पहुँची तो  अंधेरा  हो चुका  था। बारिश भी शुरु हो गई थी।"

      "मैंने ठान ली थी कि कोई फैसला  करके ही रहूँगी।  वह मेरा गुस्सा जान गया था।  मेरे लिए बहुत ही सुन्दर पायल लाया था। 'हमारी मँगनी का ये शगुन है!,' उसने मैरे पाँव में पायल पहनाई।"

"हम शादी कब करेंगे? हमारा बच्चा जल्द ही आ रहा है!"

"डार्लिंग! कर लेंगे । बच्चे का क्या है?  इसे गीरा दो,  दूसरा हो जायेगा।"

सुनते ही मेरा खून खोल उठा । "हम शादी कब करेंगे ?"

 उसका रुख बदल गया था।  "कर लेंगे,  फिलहाल उसे गिरा दो !"

"नहीं मैं ऐसा नहीं करुँगी "

"मैं नहीं मानी तो उसने मुझे मारने के लिए मेरा गला जोर से दबाया। मैं  छटपटाने लगी । उसके हाथ में  जोर था, तो मैं कहाँ कम थी।  मैं पूरे शरीर का जोर लगाकर छुट गई।  पास में देखा तो   सुरक्षाकर्मी का दंडा पडा था।  झट से उठाकर मैंने उसको मारा।  वो मेरा रुप देखकर डर गया। जल्द से बाहर भागा । मैं उसके पीछे गई।   फैक्टरी के बाहर निकला कि मेरा वार उसके सिर पर गया।  वो गिर गया।  अब मेरे तन में  दुर्गा प्रवेश कर गई थी।  उसके सिर पर,  मुँह पर ज़ोर-ज़ोर से वार करने लगी। थोडी ही देर में  वो छटपटाता अपनी जान खो बैठा।  उसका शरीर शांत हुआ तो मैं  होश में  आ गई।  'मुझसे क्या हो गया  ?' अंधेरा काफी गहरा हो गया था।  रात ढल गई थी।    बारिश ने अपना रुख बदल लिया था,  पानी बढने लगा था ।   अमावस थी तो समुद्र का पानी भी आने लगा था। ' क्या करुँ ?'  मैं  डर गई थी।  अनिरुद्ध का मोबाइल,  वोलेट,  घडी सभी चीजों को उसके पास से ले लिया,  ताकि उसकी पहचान न होने पाये ।  उसको   भी छोटी-सी प्लास्टिक में बाँधकर दूर फेंक दिया । फैक्टरी के अंदर गई तो एक बडा  प्लास्टिक पडा था।  प्लास्टिक में अनिरुद्ध की लाश बांध दी।  बारिश की वजह से बिजली  भी चली गई।  चारो ओर अंधेरा ही अंधेरा छा गया था । अनिरुद्ध के साथ मुझे भी अपनी मौत दिखाई दे रही थी।  मैंने लाश को पानी में छोड दी। ताकि  पानी के साथ समुद्र में बह जाय। फैक्टरी में हमारे कपड़े होते थे।  खुनवाले कपड़े मैंने बदलकर उसे भी पानी में बहा दिया । बाढ की वजह से मैं  सड़क तक भी नहीं आ सकती।    मैं  फैक्टरी  एक कोने में बैठ गई । अब बारिश रुक गई थी।  अनिरुद्ध के  खून से वैसे भी मैं थरथर काँप  रही थी,  उस पर रात का सन्नाटा छा गया था।  झींगुर की आवाज और मेढक की ड्राऊँ-ड्राऊँ से रात काफी  खौफनाक बन गई थी । दूर से लोमड़ी के भौंकने की आवाज सुनाई दे रही थी। कही से समुद्री साँप आने का भी डर रहता था।  भयभीत होकर बरसात की यह रात मैंने फैक्टरी पर  बिता दी।"

     "सुबह अपने घर आ गई। घर आकर  देखा तो मेरे एक पाँव में पायल नहीं थी।  अनिरुद्ध ने जल्द में ठीक से पहनाई नहीं होगी ।  ना जाने कहाँ गिर गई होगी।"

"फिर अनिरुद्ध के खून की पूछताछ के लिए तुम फैक्टरी आये, मैं कही भी शक के दायरे में नहीं  आई।"

 

    "बारिश का मौसम था और मालिक भी मर गया है तो फैक्टरी पर कब रोज़गारी शरू हो, पता नहीं था, तो मैं  एक ऑफिस पर झाडू पोंछा करने लगी।  वहा मुझे कृणाल मिला।   शायद वो मुझे पसंद करता था। मुझे  भी  कृणाल अच्छा लगता था।  पर मुझे लगता था,  ऐसे शामले तन से कोई कैसे प्रेम कर सकता है।   ऑफिस से मुझे ज्यादा तनख्वाह नहीं मिलती थी और चाची मुझसे दिन प्रतिदिन पैसे की माँग कर रही थी।  मैंने सोचा अनिरुद्ध की दी हुई पायल बेचकर उसे पैसा दे दूँ ।  इसलिए मैंने कृणाल को पायल बेचैन के लिए दी और खामखा ही मेरी वजह से कृणाल..."

जाडेजा: "और तुम्हारे पेट में  जो बच्चा था?"

शामिल: "वह भले ही अपने नराधम बाप के गंदे पानी से  उतर आया था,  पर  मेरे पसीने की कमाई के निवाले से ही अपना अस्तित्व बना रहा था ।  मेरी सोच,  मेरे अच्छे विचार,  मेरे धर्मकर्म आदि की  छाया में ही वह  बसा हुआ था।  उसको पता था मैं उसे जन्म देनेवाली  हूँ । ये मेरी माँ है,  । उसने अभी से ही मुझे साथ देने की ठान ली थी।  मैं जितनी जोर से  नराधम को मार रही थी उससे कई ज्यादा जोर लगाकर वह मुझे साथ दे रहा था।  इतनी-सी  जान कब तक टिक सकती  थी  । अपनी माँ को  साथ देकर,  वो नन्हा-सा मेरा अंश   जान पाने से पहले ही अपनी जान खो बैठा !!" 

शामली की बात पुरी  हुई तो  पुलिस स्टेशन पर उपस्थित सब की आँखे भर आई थी। 

जाडेजा : "शामली ! बहुत ही दुःखदायक आपकी कहानी है।  पर खून तो खून होता है।  कानून कसूरवार को सज़ा देता ही है।  जिस हालात में तुमने खून किया है, उसे देखते हुए हम सब कोशिश करेंगे कि तुमको कम से कम सज़ा  मिले।  किरन,  शामली को हिरासत में  ले लो।  आप सब जा सकते हैं।  कोर्ट में जब भी ज़रुरत पडे तब  ग़वाही देनी होगी।"  

कृणाल: "साहब! कुछ देर के लिए शामली से  मैं अकेले में बात कर सकता हूँ?"

     शामली के प्रति हमदर्दी की वजह से जाडेजा ने मुझे इज़ाज़त दी ।

कृणाल : "शामली! तुम्हारे साथ अब तक जो हो रहा था,  अनुचित हो रहा था। हमारे तुम्हारे जीवन मैं यह बडी बाढ़ आ गई है। पर तुम्हारी सज़ा कम करवाने में,  मैं भी पूरी कोशिश करुँगा और बहुत कम समय में तुम इस खून केस से बाहर आ जाओगी।  फिर क्या तुम मेरे जिंदगी में शित जल की तरह प्रवेश करके मेरे जीवन को हराभरा कर दोगी?"

इस कठिन समय में भी शामली के मुँह पर शर्म की रेखा छा गई। 

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 आज शनिचर नहीं था, फिर भी मैं बाला हनुमानजी के दर्शन के लिए निकल गया।  बारिश का मौसम खत्म हो गया था। अब बाढ़ आने का कोई डर नहीं था । मुझे लग रहा था,  शामली मेरी कमर पर अपनी नाज़ुक हाथ को बाँधकर  पीछे बैठी हुई है। 

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