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गुरुगाथा

प्रस्तावना

  मेडिकल के क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिए NEET-UG (National Eligibility Cum Entrance Test – Under Graduate) देनी अनिवार्य है जो ११वीं कक्षा तथा १२वीं कक्षा के पाठ्यक्रम पर आधारित होती है। मेरा डॉक्टर बनने का ख्वाब पूरा करने मैंने भारत देश में सुप्रसिद्ध और अग्रगण्य आकाश बायजूस इंस्टिट्यूट को चुना जहाँ मुझे Robin Chhabra Sir (Physics), Dipesh Ghimire Sir, Arun Mudgal Sir (Chemistry), Dr. Kamlesh Ranjan Sir, Ajay Tiwari Sir, Prabakaran Chellamani Sir (Botany) और Dr. Kavita Tewani Joshi Ma'am (Zoology) जैसे सर्वश्रेष्ठ गुरुजन की छत्रछाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

  मुझे संस्कृत की शिक्षा देनेवाले गुरु अल्का शर्मा ने बताया था कि 'गुरु' शब्द में 'गु' का अर्थ ‘अंधकार’ होता है और 'रु' का अर्थ ‘दूर करना’ होता है। यह पुस्तक जिनके बारे में लिखा गया है वो रॉबिन सर से मैं बहुत करीब रहा हूँ। यह पुस्तक से मैंने रॉबिन सर के गुरुचरण में बिताए २ वर्षों में उनसे मिले ज्ञान को शाश्वत तथा उनके व्यक्तित्व को अमर करना चाहा है। यह पुस्तक मेरे अंतःकरण में रचित गाथा है, जिनको मैं ईश्वर मानता हूँ वो रॉबिन सर की आराधना है।

विक्रांत एस. शाह








  11वीं कक्षा के शुरू होने से पहले ऑनलाइन ओरिएंटेशन प्रोग्राम रखा गया था। प्रोग्राम प्रस्तोता ने सब कुछ बताय सिवाय अपने। यहां तक कि अपना नाम भी नहीं। प्रोग्राम की समाप्ति पर हमने अंदाजा लगाया कि, “शायद यह रॉबिन सर है जो आकाश में फिज़िक्स पढ़ाते हैं।“ अंदाजा सही लगाया था।

  कोरोना के चलते काफ़ी दिन तक ऑनलाइन पढ़ाई हुई थी। रॉबिन सर के साथ पहली ऑफलाइन मुलाकात हुई तब मेरे मुँह पर मास्क लगा था। उन्होंने ऑनलाइन क्लासिस के दौरान सुनी हुई मेरी आवाज से पहली दफा मुझे पहचान लिया था। जब भी मैं किसी मुश्किल घड़ी में होता था तब मैं अक्सर रॉबिन सर के पास जाता था। मेरी माँ मुझे कहती थी कि, "जब तू रॉबिन सर को मिलकर आता है, लगता है जैसे तेरे अंदर कोई करिश्मा हुआ हो!" यह करिश्मा उस आस्था से होता था जो मुझे सर में और सर को हम सब में थी। जैसे सूर्य ऊर्जा का स्रोत है वैसे रॉबिन सर सकारात्मकता के स्रोत थे। उनकी उपस्थिति सकारात्मकता की अनूठी अनुभूति कराती थी। उनका हर लफ्ज़ मुमकिन की ओर बढ़कर प्रेरक का दर्जा पाता था। 

  शुरू-शुरू में मुझे लगता था कि मैं पढ़ा हुआ याद नहीं रख पा रहा। सर को बताया। सर ने कहा कि, "रिवीजन इज द की टू रिटेंशन। बेटा बार-बार रिवाइज करता रहेगा तो याद हो जाएगा।" फिर तो ढेर सारी टेस्ट्स हुई। सर की बात मानकर रिवीजन बढ़ाया था इसलिए भूलना काफ़ी कम हो गया था। फिर जब पुराने चैप्टर्स की इकट्ठी टेस्ट्स शुरू हुई तो बहुत कुछ याद नहीं रहता था। स्कोर को कम होता देख सर ने मुझे बुलाया और वजह पूछी। मैंने बताया कि, "सर, रिवाइज तो बार बार किया था पर बहुत दिन हो गए तो काफ़ी कुछ भूल गया हूँ।" मैं नकारात्मक हो रहा था। आत्मविश्वास बिल्कुल कम हो गया था। कुछ समझ नहीं आ रहा था। सर बोले, "मैं नहीं मानता कि तु भूल रहा है। थोड़ा बहुत तो हर कोई भूल जाता है। और वो भी रिवाइज करने से याद रह जाता है।" "पर सर मैं बहुत सारा भूल जाता हूँ। इजी वाला भी।" "पिछली वाली टेस्ट में तो तूने अच्छा किया था। आए थे ना 673/720? तब नहीं भूला था और अब भूल गया! देख," सर ने मुस्कुराते हुए बोला, "तू भूल जाता है - ऐसा सोचना बंद कर दें। जो लगता है कि भूल गया उसे तुरंत निपटा दें। यॉर नेक्स्ट टारगेट इज 700।" वह 'भूल जाता हूँ' वाली सोच को भूलना क्यों ज़रूरी है यह समझना हो तो—यदि आपको एक पैर पर खड़े रहने का कहा जाए और आप संतुलन बनाए रखने का ही सोचते रहेंगे तो संतुलन खो बैठोगे। परंतु दूसरी कोई जगह ध्यान केंद्रित करोगे तो संतुलन बना रहेगा। 

  कोई भी इंसान जब निराश हो कर नकारात्मक हो जाए तो वह आत्मविश्वास खो बैठता है जिस कारणवश धीरे-धीरे उसके अंदर ड़र पैदा होता है। यह ड़र उसको अपने आपको असमर्थ मानने पे मजबूर करता है और वो इंसान जिंदगी हार बैठता है। ऐसे इंसान को उम्मीद की नहीं बल्कि सकारात्मक प्रेरणा की जरूरत होती है। एक शनिवार को रविवार के दिन होने वाली टेस्ट की प्रैक्टिस टेस्ट आयोजित हुई थी। मैं नियुक्त क्लास रूम तरफ जा रहा था तब रास्ते में रॉबिन सर से मुलाकात हुई। "और विक्रांत! क्युँ ढीला-ढ़ाला चल रहा है? सब ठीक तो है?" "नहीं सर। कल की टेस्ट का पढ़ना बाकी है। इसलिए शायद..." "अरे बेटा! उसमें क्या? अभी तो पूरी रात है! जो पूरा दिन कुछ नहीं करते वो भी एक रात में बहुत कुछ कर दिखाते हैं। और तूने तो लगातार आज भी मेहनत की ही होगी। फिर टेंशन किस बात का?" यह कहते समय उनकी मुस्कान आत्मविश्वास को प्राणवान बनाती थी। 

  यदि कोई स्टूडेंट उनके पास अपनी आकांक्षा पर छाया कोहरा लेकर जाता था या फिर कहीं बार तो सर सामने से उसके पास जाते थे तब वो बड़ी सहजता से उस स्टूडेंट के मन में सकारात्मकता का एहसास कराते थे। वो कभी आश्वासन नहीं देते थे, बल्कि उस स्टूडेंट में चेतना को अंकुरित कर जो प्रबल सामर्थ्य वो उसमें देख रहे थे, वही उसको दिखाने का प्रयास करते थे।क्योंकि उस स्टूडेंट को सब नामुमकिन लगने लगता है, रॉबिन सर उसकी बातें सुनकर यह निष्कर्ष पे आते थे कि समस्या कहाँ है और तुरंत उसे यह बताते थे कि समस्या कहाँ नहीं है। फिर सर समस्या नहीं होने वाली बात को केंद्र में लाते थे और समस्या होने वाली बात को भूल जाना कहते थे। सर बताते थे कि, "अब मैं जो बोलूं वो करना है। जहां प्रॉब्लम नहीं है उस रास्ते पर चलना है।" समस्या का ना होना ही तो आत्मविश्वास को बढ़ाकर सकारात्मकता को उजागर करता है।  और सकारात्मकता कोई समस्या को समस्या का पद ग्रहण नहीं करने देती, क्योंकि उसके साथ की गई विजय यात्रा में समस्या केवल एक पड़ाव है जो आपको आगे ले जाता है। एक बार मैं हमारे इंस्टिट्यूट के रिसेप्शन से गुज़र रहा था तब रॉबिन सर को एक बच्चे से यह कहते हुए सुना था कि, "हमें प्रॉब्लम को प्रॉब्लम की तरह सोचना ही नहीं है। जितना हो सके उतना उसे समझर सिर्फ उसके सॉल्यूशन के बारे में सोचना है...जिंदगी को जीतनी आसानी और आनंद से जी सको उतना जी भरके जीना है।" उस बच्चे की व्याकुलता को मैंने जीवंतता में परिवर्तित होते प्रत्यक्ष देखी था। 

  रॉबिन सर का सकारात्मकता के प्रति जो उद्देश्य था उसे यदि मैं अपने शब्दों में बयान करूं तो: 

'बीता हुआ कल' हमारे सामर्थ्य का साक्षी मात्र है। अब हमारे पास 'आज' है जिसमें हम सचेतना से सामर्थ्य की वृद्धि को गतिमान कर सकते हैं। हमारी रणनीति 'बीते हुए कल' से बेहतर बनने केलिए, 'आज' की कमान संभालकर, 'आने वाले कल' में सर्वोच्च मुकाम हासिल करना होनी चाहिए। 

  OMR शीट NEET का अहम हिस्सा होता है। प्रश्नपत्र में छपे प्रश्न का दिए गए विकल्पों में से सही विकल्प पसंद कर OMR शीट में गोलाकार जगह में गोल करना होता है। बच्चे OMR शीट में बहुत गलती करते हैं। क्योंकि दूसरी OMR शीट नहीं मिलती, निरीक्षक के 'ना' कहने के बावजूद जब रॉबिन सर को पूछा जाता था, तब वो दूसरी OMR शीट लेने की इजाजत दे देते थे। 

  OMR की गलती बच्चों को टेस्ट के बीच परेशान करती है। जिसके कारण वो अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं। आता हुआ गलत कर बैठते हैं या फिर उन्होंने की  कड़ी मेहनत को असफल होता देख पछताते हैं। यह पछतावा अगली टेस्ट की तैयारी में भी बाधा बनता है। संभव है कि जो बच्चे ने कभी OMR में गलती नहीं की वह बच्चा NEET की परीक्षा में गलती कर बैठे। इसलिए बीच टेस्ट में उनकी गलती पर भाषण देने (जो अधिकतर निरीक्षक और शिक्षक करते हैं) के बजाय रोबिन सर  सकारात्मक भाव से बच्चों को दूसरी OMR शीट दे देते थे। फिर टेस्ट समाप्त होने पर बच्चे को यह गलती दोबारा नहीं करने को समझाते थे। 

  एक मर्तबा टेस्ट में मेरा काफ़ी कम स्कोर आया था। मैं सर को मिलने जा पहुंचा। सर को बताया। वो बोले कि, "पेपर दिखा।" फिर पन्ने पलटते हुए बोला कि, "अरे! इसमें तो सब कुछ आसान लगता है। ये देख। सिर्फ फाॅर्मूला लगाना है। ये भी गलत किया है क्या?" "सर अभी..." "पढ़ा था?" "हाँ, पर अच्छे से नहीं। इसलिए पता ही था कि स्कोर कैसा बनेगा।" यह सुन सर एकाएक बोले कि, "यह पता होना बहुत अच्छी बात है। जिसको यह पता ही नहीं होता वह कम स्कोर बनने पर अभी रिग्रेट कर रहा होगा। कोई नहीं। नाउ, (पेपर को बंद करके मेज़ पे रखते हुए) पेपर इज ऑवर। इसका सलूशन क्लास में डिस्कस करेंगे तब जो नहीं आता है वह सीख लेना। ठीक है? अब मुझे यह बताओ कि अभी अगली टेस्ट में क्या-क्या आ रहा है?" "सर, फिजिक्स में _, _, _ और _चैप्टर्स आ रहे हैं।" "तो बेटा, अभी तुझे यह (पहला) चैप्टर पूरा और यह (दूसरा) चैप्टर जितना हो सके उतना...नहीं यह (दूसरा) चैप्टर तो छोटा सा है। इसलिए तु तो दोनों को आज ही खत्म कर सकता है। खत्म होते ही मुझे रिपोर्ट कर।" 

  रॉबिन सर को मैं साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) के सिरमौर मानता हूँ। वो बच्चों को समझते थे। उनके आने से PTM में भी चार चांद लग जाते थे। उनकी मुस्कान उनके शालीन व्यक्तित्व की पहचान कराती थी। वो परिस्थितियों को बेहद अलग दृष्टिकोण से देखते थे। एक बच्चे के पापा ने PTM में बोला कि, "यह सोता बहुत है। थोड़ा कम सोएगा तो पढ़ाई को ज्यादा वक्त दे पाएगा।" "बेटा, कितने घंटे सोता है?" सर ने पूछा। "सर, ७ घंटे।" बच्चा बोला। "ठीक तो है! उतना तो सबको सोना ही है। सर, आप सिर्फ यह ख्याल रखिए कि कोई दूसरी चीजों में वो अपना समय वेस्ट तो नहीं कर रहा। और मुझे तो नहीं लगता कि ऐसा कुछ वो कर रहा हो। एम आई राइट, बेटा?" रॉबिन सर ने बताया। एक अंकल ने बताया कि, "यह हमसे कुछ शेयर नहीं करता। स्कोर कभी बताता है और कभी नहीं बताता। कितना पूछते हैं तब बताता है।" सर ने कहा कि, "देख बेटा यह तो गलत बात है। पेरेंट्स को भी पता रहना जरूरी है कि तुम्हारा प्रोग्रेस कितना है। फिर अंकल को रॉबिन सर ने कहा कि, “और सर, सब बच्चे अलग होते हैं। उसका नेचर मुझे मालूम है। वह सामने से बोलता कम है। पर ठीक है। ही इज डूइंग वेल।" 

  कभी ऐसा भी होता था कि पेरेंट्स को लगता था सब ठीक है पर सर सर ने कुछ गड़बड़ वाली बात बताई हो। पर वह गड़बड़ी को विषय ना बनाकर अभी कैसे आगे आना है वही बताते थे। तो कभी ऐसा भी होता था जिसमें पेरेंट्स को लगता है कि उनका बच्चा कम स्कोर ला रहा है और सर ने वह बच्चा पहले की तुलना में अच्छा कर  

रहा होने की तारीफ की हो। रॉबिन सर व्यक्तिगत तौर से प्रशंसा करना और सार्वजनिक तौर से (बिना किसी का नाम दिए) किसी मामले से जुड़ी नाउम्मीद या निराशा प्रकट करते थे। परंतु जो करते थे वो संक्षिप्त समय के लिए करते थे। ऐसा लगता था कि जैसे मैं ‘द वन मिनट मैनेजर’* (*द वन डमनट मैनेजर के न ब्लैंचियऔर स्पेंसर जॉनसन द्वारा

डलस्टखत पुस्तक हैडजसमेंवन डमनट मैनेजर नाम से मशहूर 

शख्स जो कु छ प्रबींधन (मैनेजमेंट) सेजुडा कार्यकरता है वो

केवल एक मिनट या उससे कम समय में करता है।)को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। संक्षिप्त समीक्षा अति प्रभावशाली होती है। वह व्यक्ति के मन तक पहुंचकर उसे जागृत करती है। लंबा भाषण उबाऊ और निरर्थक होता है खासकर जब समीक्षा की बात हो। मुझे याद है जब 12वीं कक्षा का पहला दिन था तब स्वाभाविक रूप से जो शिक्षक अथवा शिक्षिका उस दिन लेक्चर लेने आए थे, सब ने 12वीं कक्षा में जो जो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, पहले दिन से ही क्या-क्या करना है और क्या-क्या नहीं कर रहा है आदि बताया। फिर आया रोबिन सर का लेक्चर। हम सब तो बैग पैक करके आराम से यह सोच कर बैठे थे कि, "आज का दिन काफ़ी अच्छा है। ज्यादा कुछ पढ़ना-लिखना नहीं है। बिना दिमाग को काम पर लगाए सिर्फ सुनते रहना है।“ रॉबिन सर आए। हमने अभिवादन किया। उन्होंने लैपटॉप से स्मार्ट बोर्ड कनेक्ट किया साथ ही साथ बोले कि, "लिखो बेटा चैप्टर नंबर वन - चार्जेस एंड इलेक्ट्रिक फील्ड।" हम सब दंग रह गये! यही तो उनकी विशेषता थी। मैंने ऐसा महसूस किया है कि ऐसा करने से बच्चों का दिमाग तुरंत सक्रिय हो जाता है और कुछ जानने एवं पढ़ने केलिए आतुर हो जाता है और शायद यही कारणवश सर जब लेक्चर की अंतिम ५ मिनट में नया अध्याय शुरू करते थे तब हमें लगे झटके को संबोधित कर कहते थे कि, "इट विल हेव सम काइंड ऑफ साइकोलोजीकल इफेक्ट ऑन यु।" शुरूआत में ऑनलाइन पढ़ाई ही चलती थी। रॉबिन सर पढ़ा रहे होते थे और बीच में आवाज आती थी कि, "सर, मेरा नेट चला गया था। शुरू से समझाओगे, प्लीज?" सर शुरू से समझा देते थे। फिर आधा टॉपिक समझा दिया होता था और पुनः आवाज आती थी कि, "सर, कनेक्टिविटी इशू था। आवाज नहीं आ रही थी। इसलिए शुरू से समझा दोगे?" सर दोबारा शुरू से समझा देते थे। टॉपिक खत्म होने को आता था और आवाज आती थी कि, "सर एम आई ऑडिबल?" "यश बेटा, यू आर ऑडिबल।" "हाँ सर! बीच-बीच में लॉग आउट हो रही थी। आप एक बार ब्रीफ कर सकते हो? "वाय नॉट बेटा? अभी कर देता हूँ।" जितनी बार समझाते थे उतनी दुगनी ऊर्जा से समझाते थे और कहते थे कि, "यू शुड बी थैंकफूल टु नेटवर्क इशू! उसके चलते आपका एक ही टॉपिक बार-बार पक्के से रिवाइज हो रहा है। इस टॉपिक का कोई भी क्वेश्चन गलत नहीं होना चाहिए।" मजेदार बात यह भी थी कि क्लास रिकॉर्डिंग मोड पर ही होता था। यह सब के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ कि अगले टॉपिक को ऊपर ऊपर से पढ़ा दिया गया हो। यही तो था सर का कमाल! 

  एक दिन एक लड़की फिज़िक्स की क्लास के दौरान मोबाइल चलाते पकड़ी गई थी। कोई और पढ़ा रहा होता तो शायद वह लड़की को डांट देता या फिर क्लास रूम से बाहर कर देता। संभव है कि यह सब करने में लड़की अपने आप को निर्दोष साबित करने और सर अपने इरादे को स्पष्ट करने बहस में उतरते। परंतु रोबिन सर ने कुछ बोले बिना लड़की से मोबाइल ले लिया और पढ़ाने लग गए। बाद में ऐसा भी नहीं हुआ कि उन्होंने लड़की को टारगेट कर कुछ बोला हो। मोबाइल लेने के बाद वह लड़की रोबिन सर की नजरों में क्लास में बैठे दूसरे बच्चों की समान थी। कोई क्लास में ढंग से नहीं पड़ता था तो उसे खड़ा कर सवाल पूछ लेते थे और जवाब नहीं आने पर फिर से समझाते भी थे! रोबिन सब डांट तब लगाते थे जब कोई बच्चे की हरकत के कारण दूसरा बच्चा परेशान हो रहा हो। उनके लिए हर बच्चा एकसमान था। यह गुण तो आचार्यो में सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले द्रोणाचार्य में भी नहीं था। एकसमान का अर्थ यह नहीं कि सभी को सभी अवसर प्रदान किए गए हो। कुछ खास अवसर सार्वजनिक अवसरों में लगन से संघर्ष कर अच्छा प्रदर्शन करने वाले को दिए जाते थे। ११वीं कक्षा के आखिरी दौर में सब को बहुत सारे प्रेक्टिस पेपर्स दिए गए थे, और रॉबिन सर ने कहा था कि, "जैसे ही सारे पेपर्स के सॉल्यूशन्स लिख लो, मुझे तुरंत रिपोर्ट करो।" जो बच्चों ने यह कर दिया था उन्हें अलग से पेपर प्रेक्टिस करवायी जा रही थी। तब एक बच्चा आकर बोला कि, "सर, हमें क्युं नहीं करवा रहे हो?" "मैंने पहले जो पेपर्स दिए थे, वो किए?" "सर, थोड़े ही बाकी है।" "तो जब वो हो जाए तब तु भी बैठ जाना इन लोगो के साथ।" 

  एक समानता उनके बच्चों के प्रति भाव में थी। वो किसी के बारे में कोई धारणा नहीं रखते थे। उनकी राय वर्तमान से जुड़ी और अतीत के परे होती थी। यह जानते हुए कि मैं अपनी पढ़ाई जिम्मेदारी पूर्वक कर लेता हूँ, जब भी मेरी मम्मी सर से मिलने जाती थी, सर एक बात अवश्य पूछते थे, "ये घर में पढ़ाई तो करता है ना? या बोलना पड़ता है?" 

  कभी इंस्टिट्यूट में आते वक्त उनको कोई बच्चा मुख्य द्वार के पास मिल जाता था तो उस बच्चे के कंधे पर दोस्त की भाँति हाथ रखकर आते थे। क्योंकि मैं तो रॉबिन सर को ही विधाता मानता हूँ, मेरे लिए तो यह अनुभव दिव्य था। वो चलते-चलते मुस्कुराते हुए पूछते थे कि, "और बेटा! कैसी है टेस्ट की तैयारी?" और कहते थे कि, "इस बार तो सब आसान आ रहा हैं। हमें तो बायो में फूल का ही टारगेट रखना है। और एक बार वो हो गया तो फिज़िक्स केमिस्ट्री में भी ला सकते हैं। जो पढ़ाया है उसको रिवाइज ही तो करना है।" 

  रोबिन सर को मैं सरलता के सरताज मानता हूँ। NEET की तैयारी के अंतिम चरण में ट्रैक रिकॉर्ड के आधार पर कुछ बच्चों को इंटेंसिव प्रोग्राम में शामिल किया गया था। इंटेंसिव (अति) के नाम मात्र से पता लगता है कि कितना अधिक संघर्ष होगा और हमें बहुत ही चिंतित करने वाली बातें बताई गई थी: इंटेंसिव का पेपर कठिन आता है, कुछ भी पूछ लेते हैं, स्कोर कम होता है, थकान महसूस होती है, वगैरह। ओरिएंटेशन प्रोग्राम में माता-पिता एवं बच्चों की उपस्थिती में सर आए और मुस्कुराते हुए बोले कि, "मैं बच्चों से बात करने आया हूँ। सबसे पहले तो इंटेंसिव प्रोग्राम में डरने जैसा कुछ भी नहीं है। ऐसा लगता है तो उसका नाम आप बदल दो। एक्सटेंसिव कर दो। जो अभी तक पढ़ा है वही तो आएगा। दूसरा नया कहां से लाएंगे?" कितनी सरल बात बोली! किन्तु जब यह बोली गई, तब वहां बैठे सभी के गंभीर चेहरे मंत्रमुग्ध हो गए। मानो जैसे कोई जादू हुआ हो। 

  विशेषकर मेडिकल के छात्रों को फिज़िक्स मुश्किल लगता है, क्योंकि उनकी इस विषय में रुचि कम होती है। पर जब रोबिन सर फिज़िक्स पढ़ाते हैं, पूरा 1 घंटे और 20 मिनट का लेक्चर कब खत्म हो जाता है यह मालूम ही नहीं पड़ता क्योंकि वो हर एक कॉन्सेप्ट धीरे-धीरे सरलता के साथ पेश करते थे। रॉबिन सर के पास पढ़ने से पहले फिज़िक्स मुझे बहुत ही व्याकुल करता था। पर उनके पढ़ाने के बाद फिज़िक्स मुझे इतना अच्छा लगने लगा कि सर को बोलना पड़ता था, "अरे भाई! पूरे दिन फिज़िक्स नहीं करना। दूसरे सब्जेक्ट्स को भी करना है।" वो कहते थे कि, "बेटा फिज़िक्स की प्रैक्टिस बढ़ाओ। तब तक बढ़ाओ जब तक तुम्हें फिज़िक्स लोरेंज़/फैराडे/आइंस्टाइन से ज्यादा ना आने लगे।" फिज़िक्स क्लास के दौरान ही समझ आ जाए और कष्टप्रद ना लगे इसलिए रॉबिन सर हमें नोटबुक में साथ-साथ लिखते रहने को कहते थे। इससे दिल लगा रहता था और दिमाग चलता रहता था। उनके कदमों पर चल फिज़िक्स मेरे लिए माइंड फ्रेश करने का विषय बन गया था। वो बार-बार दोहराते थे कि, "बेटा, यू मस्ट हेव कमांड ऑवर थीओरी। फिर देखो फिज़िक्स कितना आसान है।" 

  रॉबिन सर के पास पढ़े कोई भी बच्चे को यदि पूछा जाए कि, "व्हाॅट इज स्पीड?" तो वह बच्चा रोबिन सर के अल्फाज़—जो उसके मन में सर ने गूंजते किए होंगे—को आवाज देते हुए बोलेगा कि, "जितना टाइम उस क्वेश्चन को देना चाहिए उतना टाइम देते हुए, पहली ही बार में सही आंसर लाना स्पीड कहलाती है।" मेरी स्पीड बहुत कम होती थी जिसके कारण पेपर अक्सर छूट जाता था। सर से बात हुई तब पहले मुझे बताया कि, "एज फार एज स्पीड इज कन्सर्न्ड, वो धीरे-धीरे पेपर प्रेक्टिस और मॉड्यूल सॉल्वींग से आ जाएगी। पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि जो छूट गया वो आता ही नहीं था।" फिर स्पीड पर बहुत बार डिस्कशन हुआ। उन्होंने टेस्ट के दौरान इंडिविज्युअल सब्जेक्ट को मैं कितना समय दे रहा था और कितना देना है वह बताया। और आगे कहा कि मुझे मॉड्यूल बार-बार करनी है साथ ही साथ बायो में वाइवा अनिवार्य कर दिया। वाइवा देना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। सर  के कहने पर ज़ूओलॉजी का दिया था और वह भी कोई कोई बार ही। फिर सर कहते तो रहे पर मैं नहीं जाता था। यही एक बात थी जिसमें मैंने सर का कहा नहीं माना। 

  एक बार सर को बताया कि, "सर कल वाले पेपर में तो बायो ४० मिनट में खत्म कर दिया था। फिर भी पेपर छूटा।" सर मुझे अच्छी तरह पहचान गए थे इसलिए तुरंत पूछा कि, "तू यह बता कि कोई क्वेश्चन जो तुझे नहीं आता था वो कितनी बार किया?" "सर कम से कम तीन बार। फिर आंसर नहीं आने पर आगे बढ़ा।" "अरे! मतलब तू एक क्वेश्चन के पीछे उलझा रहता है? ऐसा कभी नहीं करना! जिसमें तुझे लगे कि ये नहीं होंगे वो छोड़ दें। क्योंकि वैसे क्वेश्चंस केवल दो-तीन होंगे। और ज्यादा से ज्यादा पाँच। उस पाँच क्वेश्चंस में उलजा रहेगा तो दूसरे 10 क्वेश्चंस में गड़बड़ी हो जाएगी।" "सर कई बार ऐसा लगता है कि 'शायद मैंने कुछ गलत तो नहीं किया?' उसके चलते भी एक ही क्वेश्चन दोबारा सॉल्व करने में टाइम वेस्ट होता है।" "देख, तू खुद बोल रहा है कि टाइम वेस्ट होता है फिर भी टाइम वेस्ट करता है! बेटा, अपने आप पर कॉन्फिडेंस होना जरूरी है। ७२० भी इतनी मेहनत से ही आते हैं जितनी तू कर रहा है। फिर ऐसा क्युं सोचना?" "पर सर, एकदम इज़ी होते है वो क्वेश्चंस भी जल्दी क्लीक नहीं होते हैं।" "वो इसलिए क्योंकि तु क्वेश्चन को क्वेश्चन समझकर सॉल्व नहीं करता। तू उसके आगे पीछे का सोचने लगता है। एम आई राइट?" "हाँ, यस सर।" "देख बेटा, हमें क्वेश्चन जो पूछ रहा है उतना ही बताना है। और कभी क्वेश्चन के अगेंस्ट में जाकर ये नहीं सोचना कि ये क्वेश्चन गलत है या उसमें कुछ मिसिंग है। जो क्वेश्चन में दिया है, उससे हमें सिर्फ आंसर के बारे में सोचना है। फिर देख १-२ मिनट में आंसर कैसे निकल आता है।" 

  रोबिन सर ने सरलता का अंगीकार कर क्वेश्चन के साथ जाने का सिखाते हुए था कि, "बेटा, हमें क्वेश्चन के साथ लड़ाई नहीं करनी। हमें तो क्वेश्चन के साथ दोस्ती करनी है। उसे प्यार करना है।" एक बार फिर से वही मुस्कान थोड़े समय के विराम में छाई हुई रही थी। जो काम हम अभी कर रहे हैं उससे जुड़े रहना—उससे लयबद्ध रहना बेहद आवश्यक है। लय में रहने से नहीं जीवन में तकरार महसूस नहीं होती। जब आप क्वेश्चन को सॉल्व कर रहे हो तब प्रत्युत्पन्नमतिस्व (प्रेज़न्स ऑफ माइंड) बहुत जरूरी होता है। इसी  को उत्तेजित करने मन की शांति जरूरी होती है जो लय में रहने से आती है। रॉबिन सर हमें एक बात अचूक कहते थे कि, "बेटा, हमें बहुत दूर का नहीं सोचना। नहीं तो सोचते ही रह जाओगे।" यह बात वो परीक्षा की तैयारी के संदर्भ में करते थे। बहुत दूर का सोचने से हम वर्तमान की स्थिति के साथ में लयबद्ध  नहीं रह सकते जिससे मन की शांति विचलित होती है और तनाव महसूस होता है। कई शिक्षक  

ऐसे होते हैं जो घर से थोड़ा पढ़कर आने को बोलते हैं तो कहीं बच्चे ऐसे होते हैं जो आज का पढ़ाया आज ही रिवाइज नहीं करते। रॉबिन सर हमें सतर्क करते हुए कहते थे कि, "नहीं आगे चलना है, नहीं पीछे चलना है। बल्कि मेरे साथ चलना है।" यही तो लय होता है। मैंने अपने आकाश बायजूस इंस्टिट्यूट के गुरुजन से सीखा है कि विषय के साथ लय में रहने के लिए क्लास के दौरान श्रवण कला का अधिक योगदान होता है। हठयोगप्रदीपिका में भी लिखा गया है कि 'नाद लय का नाथ होता है।'* (*उल्लेखनीय है कि यहाँ लय का अर्थ लय-योग के संदर्भ में है

जो हमारी चर्चा के  परे है।) ऐसी बहुत सी चीजें होती है जिसको पहली बार समझाया जाए तो ढेर सारे प्रश्न उत्पन्न होते हैं। ऐसा होने पर हमें यह याद रखना परम आवश्यक है कि जो कुछ हमारा दिमाग आसानी से स्वीकार नहीं कर रहा हो वो अभी पूरा खत्म नहीं हुआ। कुछ समझाना बाकी है। जब खत्म होगा तब ज्यादातर प्रश्नों का जवाब  

मिल चुका होगा और जो प्रश्र बाकी रहेंगे उसमें काफी कुछ तथ्य होंगे और थोड़ा जो कुछ आखिर में बचा रहेगा वह आप अपने गुरु से पूछ सकते हैं। 

  लय का एक और उदाहरण देता हूँ: यदि प्रश्न को घुमाके पूछा जाता है, तब बच्चे अक्सर अटक जाते है। मेरा तो अधिकतर ऐसा ही होता था। इस समस्या का हल करते हुए रॉबिन सर ने बताया था कि, "मेरे सामने वैसा क्वेश्चन कोई रख दे, तो मैं पहले तो क्वेश्चन को सामने से पढ़ता हूँ। फिर भी नहीं आए, तो पेपर को दाईं तरफ टेढा करके पढ़ता हूँ और तब भी बात न बने तो बाईं तरफ टेढा पढ़ता करके हूँ। कहने का मतलब ये है कि हमें क्वेश्चन जिस तरफ ले जाना चाहता है, हमें उस तरफ जाना होगा।"

  लय से मुझे लय का आधार मान सक्ते है ऐसे अनुनाद (रेज़ोनन्स) का ख़याल आता है। रॉबिन सर हमें अनुनाद में रहने को बोलते थे। फिज़िक्स में 'कोई निकाय किसी ऐसे उर्जा स्रोत द्वारा संचालित हो जिसकी आवृति निकाय की प्रकृतिक  आवृत्ति के सन्निकट हो ऐसी परिघटना' को अनुनाद कहते हैं जिसमें निकाय बहुत अधिक आयाम के साथ दोलन करता है। जब रेडियो पर किसी स्टेशन का चयन करते हैं तब भी हमें रेडियो के परिपथ (सर्किट) की आवृत्ति उस रेडियो स्टेशन से आने वाले संकेतों की आवृत्ति के लगभग बराबर करना पड़ता है। ट्रेन में भी अनुनाद कार्यान्वित किया जाता है। ट्रेन की आवृत्ति मानव शरीर की धड़कन की आवृत्ति के बराबर रखी जाती है जिससे सफर आरामदायक बनी रहे। 

  हमें जीवन में बाहरी असीमता को आंतरिक गहराई से समेटने की बजाय उनके बीच बनी क्षितिज को मिटाकर अनुनाद में रहना चाहिए। क्षितिज मिलन का आभास होती है, जो असल में ना होने के कारण व्यक्ति में दुविधा पैदा करती है। बाहरी असीमता जिंदगी की कठोरता का रूपक है। आंतरिक गहराई हमें मनुष्य की प्रकृति एवं शक्ति की ओर निर्देशित करती है। रोबिन सर ने बताई बात के संदर्भ में कहूं तो अनुनाद यानी जितना दुःसाध्य लक्ष्य, उतनी ही फौलादी तैयारी, जितनी आसानी, उतनी ही सावधानी, जितना विकर्षण, उतनी ही एकाग्रता, जितनी अनिश्चितता, उतनी ही दिलचस्पी और जितना विपरीत समय, उतना ही प्रबल धैर्य। अनुनाद से लय है और लय से ये ब्रम्हांड है।

 २ वर्षों की सफर में मैंने रॉबिन सर को काम में बड़ी दिलचस्पी से समर्पित हुआ देखा है। यहां तक कि जब वो रिक्शा में घर लौटते थे तब भी ऑनलाइन पूछे गए डाउट्स को सॉल्व करते थे। यह बात मुझे इसलिए पता है क्योंकि मेरे भेजे गए डाउट्स को सॉल्व करता हुआ जो ऑडियो क्लिप मिलता था उसमें रॉबिन सर की आवाज के साथ-साथ रिक्शा की आवाज सुनाई देती थी। मेरे एक सहपाठी दोस्त ने मुझे बताया था कि, "समय कुछ से ७:३०-८:०० के बीच का होगा। बहुत कम लोग इंस्टिट्यूट में थे। मैं फैकल्टी रूम के बाहर से गुज़र रहा था तब मेरी नजर रॉबिन सर पर आई। सर अकेले थे। मैं जहां था उसी ओर सर देख रहे थे। मुझे कुछ काम था इसलिए सर को इशारे से बुलाना चाहा। सर ने कुछ प्रतिक्रिया नहीं दि। सिर्फ देखते रहे। पहले तो लगा कि सर ने इग्नोर किया। फिर समझ आया कि सर देख जरूर मेरी तरफ रहे हैं, पर वो गहरे विचार में हैं।" वह सोचते बहुत थे। सर को देख मुझे गंभीरता और विचारशीलता में फर्क समझ आता है। गंभीरता का संबंध उलझन से होता है, तो विचारशीलता का संबंध सुलझन से होता है। गंभीरता कुछ ना कर पाने के डर से होती है, तो विचारशीलता कुछ कर पाने की सोच से होती है। गंभीरता 

का नाता अतीत से होता है, तो विचारशीलता का नाता तीनों काल से होता है जिसमें भूतकाल से क्यों करना, वर्तमान में कैसे करना और भविष्य के लिए क्या करने की सोच से होता है। 

  NEET जैसी स्पर्धात्मक परीक्षाओं में ऑल इंडिया रैंक (जो स्कोर के आधार पर तय होता है) बहुत मायने रखता है। एक अच्छा स्कोर बनाना ही हर परीक्षार्थी की फिक्र रहती है। चाहे अच्छा स्कोर हो या बुरा, हर बच्चे पर उसके माता-पिता तथा गुरुजन के प्रतिभाव का प्रबल प्रभाव पड़ता है। ऐसे में रॉबिन सर जैसी स्थिरबुद्धि (जो सुख-दुख से परे हो) शख्स़ियत का होना अद्भुत अनुभव कराता है। दूसरों की तुलना में अच्छा स्कोर अहंकार जगाता है, तो बुरा स्कोर गिराव महसूस कराता है इसलिए रॉबिन सर कभी बीच क्लास में सबके सामने किसी को स्कोर नहीं पूछते थे। और जब भी व्यक्तिगत तौर से स्कोर  पूछते थे तो किसी भी प्रकार


के स्कोर से कभी भी बच्चे का मूल्यांकन नहीं करते थे और नाही बच्चे को खुद का मूल्यांकन करने देते थे।  क्योंकि स्कोर बच्चे का खुद का मूल्यांकन नहीं होता; वह मूल्यांकन होता है बच्चे की मेहनत का, बच्चे के त्याग का और बच्चे की लगन का। बच्चों को सिर्फ स्कोर की बातें करते हुए सुनकर रॉबिन सर ने जो बोला था वह विधान हमेशा यादगार बना रहेगा कि, "बेटा, स्कोर के पीछे नहीं भागना। भागना हो तो मेहनत के पीछे भागो।" अच्छा स्कोर अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक जरूरत होती है, फैसला नहीं। जरूरत पूरी करने मेहनत, त्याग, लगन, सकारात्मकता, धैर्य, सरलता और क्षमता की आपूर्ति जारी रहनी चाहिए। सर हमें कहते थे कि, "बेटा, स्कोर के बारे में बहुत नहीं सोचना। एक स्कोर को निर्धारित करो और कम से कम समय में सोच लो कि उस स्तर पर पहुंचने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। अगर नहीं सोच पा रहे हो, तो मेरे पास आओ। परेशानी लेकर अकेले या फिर दोस्तों के साथ घूमते नहीं रहना। और फिर जल्द से जल्द अपनी सारी ऊर्जा को कर्तव्य के प्रति केंद्रित कर दो  फिर देखो तुम टॉप हंड्रेड में कैसे आते हो! साथ ही साथ थोड़ी और मेहनत की और किस्मत अच्छी रही (यानी पेपर आपकी पसंद का आया) तो ऑल इंडिया रैंक वन भी आपका ही होगा।" फिर वही मुस्कान से छाई उमंग की तरंग को हमने महसूस किया। 

  रॉबिन सर जैसे गुरु का युगों से भारत को इंतजार रहा है। मेडिकल वींग के हेड की तरह भी उनके शानदार नेतृत्व ने हमारे दो वर्षों को सरलता से पार करवाया। जो रोशनी उनसे थी, उसे वो हम तक पहुंचाते थे। अपना परिचय तो कभी उन्होंने दिया नहीं, मगर मेरा परिचय यदि उनके नाम से हो तो मुझ जैसा भाग्यवान कोई नहीं।


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