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रेल यात्रा

   "एक निंगाला!" 
टिकट काउंटर से मैंने टिकट मांगी। टिकट लेकर मैं जल्द ही रेल प्लेटफ़ार्म पर पहुंची। मेरी ट्रेन दो नंबर के प्लेटफ़ार्म पर आनेवाली थी। मैं लिफ़्ट से दो नंबर के प्लेटफ़ार्म पर आ गई। आज मुझे पहली बार निंगाला जाना था। ट्रेन का समय अच्छी तरहसे पता नहीं था, तो मैं जल्दी ही आ गयी थी। कुछ ही मिनटों में ट्रेन आ गई। थोड़ी भीड़ थी, लेकिन मुझे खिड़की के पास बैठने की जगह मिल गई। दस-पन्द्रह मिनट में ट्रेन चल दी।
    पहली बार अकेले यात्रा कर रही थी। सुबह का समय  था। कोई मूड में था, तो किसी को अभीत नींद से छुटकारा नहीं मिला था। सभी अपने मोबाईल में व्यस्त थे। कुछ भजन सुन रहे थे। कुछ लोगों ने कानो में हेन्डस फ्री डाल रखी थी। छोटे-छोटे बच्चे अपनी माँ की गोद में सो गये थे। बुजुर्ग लोग सीट के बल पर आराम कर रहे थे। मैंने खिड़की के बाहर देखा। खिड़की खुली थी। बाहर की हवा ट्रेन के साथ चलने की कोशिश कर रही थी। सर्दी के जाने का समय हो गया था। थोड़ी बहुत ठंड लग रही थी। बाहर का दृश्य मनमोहक था। हरे-भरे खेत आंखों को तरोताज़ा कर रहे थे। बिखरे-बिखरे बादल ट्रेन के साथ दौड़ रहे थे। लगता था झाड़िया पीछे छूट रही थी।
      ट्रेनने रफ्तार पकड़ी, नहीं पकड़ी, तभी दूसरा स्टेशन आ गया। गाड़ी धीमी हो गई और प्लेटफ़ार्म पर रुक गई। "चाय..चाय...पानी..पानी..." फेरिये लोग चिल्लाने लगे। चढ़ने-उतरने का हिसाब ख़त्म हुआ कि ट्रेनने फिरसे सीटी बजाई। कई स्टेशन में यह सब चलता रहा। अब मेरा स्टेशन आ गया था। मैं उतरकर अपनी मंजिल पर पहुंच गई।
        आज भी मैं उसी ट्रेन में सफ़र कर रही थी। अब हर दिन मुझे उसी ट्रेनसे निकलना पड़ता था। मुझे निंगाला गाँव के एक स्कूल में नौकरी मिल गई थी और समयपर पहुँचने के लिए इस ट्रेनका समय बहुत सुविधाजनक था। मैं देख रही था कि एक औरत दो-तीन दिनसे मेरे साथ सफ़र कर रही थी। संयोग से हम एक ही डिब्बे में और एक ही सीट पर साथ हो जाते थे। शायद मेरी तरह वह भी नौकरी के लिए इसी ट्रेनसे हररोज यात्रा कर रही थी। वो मेंरे स्टेशनसे पहले ही उतर जाती थी।
मैंने हल्कीसी मुस्कान उसे  दी। वह भी मुस्कुराई। मुस्कुराहट से हम आगे बढ़े। हमने एक-दूसरे को जानने की कोशिश की। उसका भी मेरी तरह दैनिक आवागमन था। उसका नाम रिद्धि था। डॉ. रिद्धि! जी, हाँ वह एक डॉक्टर थी।  एक छोटे गाँव में बड़ा ट्रस्ट हॉस्पिटल था। वह हॉस्पिटल में अपनी सेवा दे रही थी। वह अभी-अभी डॉक्टर बनी थी, चुँकि उसके पास कार नहीं थी और यह ट्रेन उसके लिए भी उपयुक्त थी। हमने एक दूसरे का मोबाईल नंबर ले लिया। जिससे हम एक ही कोच में एकसाथ यात्रा कर सकें। कभी-कभी वह मेरे लिए जगह रखती थी। कभी-कभी मैं उसके लिए। यात्रा के माध्यम से हमें एक-दूसरे के परिवारों के बारे में पता चल गया था। हम एक-दूसरे की कठिनाइयों, खुशियों, परेशानियों से पूरी तरह जानकर हो गये थे। शारीरिक एवं मानसिक दोषो से परिचित हो चुके थे। यूं कहिए कि हम पक्के दोस्त बन गए थे।
       समय गुजरता जा रहा था। सोमवार से शनिवार, हम एक-दूसरे के साथ, रविवार परिवार के साथ बिताते थे। ऐसे ही दो साल बीत गये। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, "हमारे अस्पताल में एक शिविर है। क्या आप उस शिविर का लाभ लेना चाहेंगे? इसमें आपकी शारीरिक समस्या का समाधान हो सकता है!"
"यह तो अच्छी बात है! निश्चित रूप से मैं शिविर का लाभ उठाऊंगी। कोई निश्चित लागत होगी ?"
"कैंप रविवार को है। विदेश से विशेषज्ञ डॉक्टर आने वाले हैं। वे आपकी जाँच करेंगे। उसके बाद कोई ओर निर्णय लिया जा सकता है! आप पहले कैंप में आएं। मैं अगली रात वहीं रुकूंगी। शायद मुझे और भी रुकना पडेगा। हम मोबाइल के जरिए एक-दूसरे के संपर्क में रहेंगे।"
डॉ. रिद्धि की बात सुनकर मुझे ख़ुशी हुई। हो सकता है, मेरी शारीरिक परेशानियां इस कैंप में ठीक हो जाएं? मैं बहुत उत्सुक हो गई। रविवार का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी। आख़िरकार रविवार आ ही गया। मेरी रेल यात्रा  रविवार को भी शुरू रही। मैंने पहली बार डॉ. रिद्धि के गाँवमें कदम रखा। उनके निर्देशानुसार मैं उनके ट्रस्ट हॉस्पिटल पहुंच गई। अस्पताल बहुत बड़ा था। लग रहा था अस्पताल से आसपास के गाँव और शहर लाभान्वित हो रहे थे।
    विदेश से आये एक विशेषज्ञ डॉक्टरने मेरी जांच की और मेरे शारीरिक वेदनाओ के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की। रिद्धिने मेरी सिफ़ारिश उस डॉक्टरसे कर रखी थी, तो उसने मुझे बताया. "हम डॉ. रिद्धि से चर्चा करेंगे। रिद्धि आपको बताएगी कि आगे क्या करना है ? अगर आपकी इजाज़त हो तो ?"
"मुझे डॉ. रिद्धि पर पूरा भरोसा है। आप उसके साथ मिलकर जो भी निर्णय लेंगे, वह मुझे स्वीकार्य है।"
मुझे प्रतिक्षाखंड में बैठाया गया। कुछ मिनट बाद रिद्धि आई। "बधाई हो आपकी समस्या हल हो सकती है। मैं आपको अधिक जानकारी बाद में बताऊंगी। अभी मिलिए, यह अभिजीत हैं। एक मेकैनिकल इंजीनियर हैं। वह भी इस शिविर का लाभ लेने के लिए यहाँ आए हैं। श्रीमान अभिजीत इनसे मिलिए ये हे आरोही ! एक शिक्षिका.. ."
"डॉ. रिद्धि।" किसीने रिद्धि को बुलाया।
वह चली गई। मैं निःशब्द हो गई। अभिजीत! ये  अभिजीत! इस हालत में अभिजीत।
सात साल पहले का कालखंड मेरे सामने आकर खड़ा हो गया।
"बेटा आरोही! आज लड़के वाले तुम्हें देखने आने वाले हैं। रिश्ता बड़े घर का है। तुम आज कॉलेज नहीं जाओगी। कल रात देरसे तय हुआ है कि वे आयेंगे। तुम सो रही थी। इसलिए मैं तुम्हें अभी बता रही हूँ!" सुबह जल्दी उठाते हुए माँ ने मुझे कहाँ। मुझे सिर्फ कहाँ नहीं, बस सख्त हिदायत दे दी। "माँ, इतनी कम उम्रमें इतने सारे लड़कों ने मुझे देखा है। वे सभी मुझे नापसंद करके चले गये है। तुम क्युं  मेरा प्रदर्शन कर रही हो? मुझे पढ़ने दो!! मैं शादी नहीं करना चाहती।"
"तेरे पिताजी ने एकबार कह दिया, तो कह दिया। इसे कोई नहीं काट सकता! मैं भी नहीं। जब वे लोग आएं तो सुकन्या बनकर पानी लेकर आ जाना।"
मेरी बात किसीने नहीं सुनी। वक्त पर वे लोग आ गये। मैं बगलवाले कमरे में बैठी थी। औपचारिकताएं ख़त्म हो गईं। बातचीत की हल्की-हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी। कुछ लेन-देन, आभूषण, कुछ चीज़ें लेने की  बात चल रही थी।
"यह सब लेन-देन ठीक है। यह होना ही चाहिए! बेटी को तो बुलाओ। बेटी को भी हम देख लेते हैं। मेरा बेटा कनैया जैसा है। वह एक मेकैनिकल इंजीनियर है।"
"आरोही!" मेरा नाम लिया गया, तो मैं उस कमरे में भयभीत अवस्था में दाखिल हुई। वो लोग मुझे अजीब नज़रों से देख रहे थे। मानो मैं किसी दूसरे ग्रहसे आयी लड़की हूँ।
        मैंने सभीको पानी दिया। अभिजीत की ओर देखा। वह बहुत सुंदर था। वह ख़ूबसूरत था। चॉकलेटी हीरो की तरह चिकना था। उसने मुझ पर कृपापूर्ण दृष्टि डाली। मैं हिचकिचाई।
'कहां अभिजीत और कहाँ मैं!' यहाँ 'रबने बना दी जोड़ी' का उलटा हो रहा था।
"माँ-पापा मुझे अभी-अभी नौकरी मिली है। मेरी फ़ैक्टरी भी हमारे घर से बहुत दूर है। बाइक से आना-जाना बहुत मुश्किल है। आपकी बचत मेरी शिक्षा पर खर्च हो गई है। इसलिए एक कार...।"
     "हाँ बेटा, इसमें कौन सी बड़ी बात है! आरोही के पापा अपने दामाद के लिए इतना तो करेंगे ही ना? इसलिए चिंता मत करो..."
     मैंने पिताजी की ओर देखा। पिताजी की अच्छी नौकरी थी। अच्छा वेतन था, जो हमें अच्छी तरह से जीने और थोड़ी बचत करने की अनुमति देता था। लेकिन उतनी बचत नहीं हो पाती थी कि मेरी शादी में इतने सारे गहने। इन सारी चीजों के अलावा एक कार भी दे सकते ! उन्हें मेरी शादी की चिंता थी, इसलिये वह अपने नियमों को भी तोड़ने से मज़बूर थे।
"देखो! हम इतना कुछ नहीं दे सकते..." पिताजी ने हाथ जोड़ दिये। मेरा खून खौल उठा। मेरा मन कर रहा था कि मैं अभी पुलिस को बुलाऊं और इन लोगों के खिलाफ दहेज का मामला दर्ज कर दुं। इन्हे जेल भेज दुँ।. महिला मोरचा को सारी कहानी बताऊँ। ताकि वे शहर में सार्वजनिक रूपसे धरना करे और इनकी इज्ज़त के चीथड़े उड़ाएं।
"अरे, तुम्हारी बेटी का मुखौटा देखा है..." मुझसे पहले अभिजीत की माँ उबलने लग गईं। "मेरा बेटा नूर है, नूर !! एक से एक सुन्दर रिश्ते आ रहे हैं। लड़कियाँ भी कितनी सुंदर मिल रही  है। यहाँ  इसलिए आये, क्योंकि हम जानते थे कि तुम गरीब हो। मेरा बेटा कुँवारा नहीं रहेगा। रूप और पैसा दोनों मेरे बेटे को मिल जाएगा और यदि नहीं मिला तो मेरा बेटा इतना कमा लेता कि सबकुछ खुदसे खरीद सकता है!!"
"चलो तुम्हारी बेटी को ले चलते है।  कुछ पुण्य कमा लेते है। तुम पर एक एहसान कर देते है। समाज में कुछ सम्मान पा लेते !!" अभिजीत के पिता भी कम नहीं थे। समाज में सम्मान पाने के लिए वह अपने बेटे की शादी इस तरह करना चाहते थे।
"चुप रहो!!" एक शब्द भी मत बोलो आप। माँ-पापा आप इन लोगों को बाहर जाने के लिए कहते हो कि, या फिर मुझे अपनी आयुसीमा तोड़ने दीजिए। माँ अब मेरी शादी के लिए इस घर में कोई मेहमान ना आये। नहीं तो मैं यह घर छोड़ दूँगी।"
मैं थरथरा रही थी। थरथराते हाथों से मैं झुकी और मेरी, "मैडम अपनी बैसाखी  उपर उठाओ !" सफाईकर्मी मुझे वर्तमान में वापस ले आया। मैंने अपनी बैसाखी को कुर्सी पर रख दिया। मैं अब भी काँप रही थी। अभिजीत मेरे सामने सिर झुकाये खड़ा था।
अभिजीतने माफी मांगते हुए कहा, "मैं तहे दिल से माफी मांगता हूं। मुझे उम्मीद है कि आप मुझे माफ कर देंगे।" वह हाथ जोडने के लायक तो नहीं था।
अभिजीत की माफ़ी ने मुझे थोड़ा नरम कर दिया। एक परिचारिका ने कहा, "आपको एक या दो दिन यहीं रुकना होगा। हम ठहरने की व्यवस्था कर देंगे।"
मैंने अपने घर फ़ोन कर दिया। जरूरत पड़ने पर माँ को भी अस्पताल आने की हिदायत दे दी।
         अगली सुबह मैं नाश्ते के लिए कैंटीन में गई। अभिजीत भी नाश्ता करने आया था। उसके पास धन की कमी नहीं थी। उसने अपने लिए एक नौकर रख लिया था। उसने मुझसे बात करने की बहुत कोशिश की, पर  मैंने कोई परवाह नहीं की। इसके बाद कृत्रिम अंगों के लिए हमारा माप लिया गया। हम हर जगह साथ थे। मैं सोच रही थी कि 'उनके पास बहुत सारा पैसा है। उसको कैम्प मैं आने की क्या जरूरत होगी? उनका प्रश्न  हे मुझे क्या दिक्कत?'
शाम हो चुकी थी। मैं अस्पताल के आँगन में एक बेंचपर बैठी थी। आसपास की प्रकृति को देख रही थी।अभिजीत वहाँ आया। "कृपया मुझे दस मिनट दीजिए" मैं मना नहीं कर सकी। वह मेरी बेंच पर बैठ गया। "मैं माफी के लायक तो  नहीं हूं, पर मेरी बात सुनो लो। फिर आपको जो अच्छा लगे करना। तुम्हें  देखने हम आए थे। घमंड और सम्मान से भरा एक घड़ा लेकर आये थे। यह भरा घड़ा लेकर हम ही वापस चले गए। फिर हमने दो-तीन लड़किया देखी। दहेज हर जगह कम मिल रहा था। अंत में एक बड़ी कंपनी के मालिक की बेटी से बातचीत चल गई। उससे हमे काफी दहेज मिलता था। दुल्हन श्याम वर्ण की थी। उसकी उँचाई भी कम थी। हमने शादी कर ली।
समय चलता गया। मेरी  पत्नी की हरकतें कम नहीं थीं। सामने हमारे परिवार की प्रताड़ना भी  कम नहीं होती थी। समाज में इज्जत की खातिर हम एक छत के नीचे  रहते थे। समय कभी भी स्थिर नहीं रहता। एक बार कंपनी में एक मशीन बंद हो गई। हमारे नौकरो ने इसे शुरू करने की कोशिश की। मशीन शुरू नहीं हुआ। मुझे बुलाया गया। मेंरे लिए  तो  ये काम आसान था। मशीन की मरम्मत होने वाली थी की, किसी ने विद्युतप्रवाह चालू कर दिया। और मैं..।
फिर मेरा कई अस्पतालों में इलाज हुआ। प्रकृति के पास हमारा कुछ नही चला। भगवाने मुझे सज़ा दे दी। मैं विकलांग हो गया था। अब मेरा बुरा वक्त शुरू हो गया था। मेरी पत्नी मेरे साथ रहने को तैयार नहीं थी। विकलांगता का हवाला देकर तलाक का केस दायर कर दिया। उसने तलाक के लिए भारी मात्रा में धन लिया। माता-पिता भी सदमे में चले गए और मैं नौकरों की मदद से जीवन निर्वाह करने लगा। अब मैं तुम्हारी तो क्या सबकी विकलांगता अब अच्छी तरह समझ सकता हूं।" उसने कहा।
फिर थोड़ा रुककर बोला,"आप बड़े दिलवाले है। मैं तुम्हें शादी के लिए प्रपोज करता हूं। एक बार हमने आपका अपमान किया था। आप मेरा अपमान भी कर सकते हो। हमारा भविष्य हमारे सामने है। एक दिव्यांग ही दूसरे की दिव्यांगता को बेहतर समझ सकता है।"
       अभिजीत उठकर चला गया। डॉक्टर रिद्धि आईं। मानो वह अभिजीत के जाने का इंतजार कर रही थी। "मैंने ही अभिजीत को भेजा था। अब अभिजीत वह अभिजीत नहीं है जिससे आप पहले मिली थीं। मैं अभिजीत को अच्छी तरहसे जानती हूं। वह आपके पास आने से डरता था। मैंने हिम्मत दी। अभिजीत के साथ आपकी शादी का  निर्णय मेरा है। अब फैसला आपके हाथ में है!! ”
मेंरे कंधे को थपथपाते हुए रिद्धि भी अपने काम में लग गई। मैं रिद्धि का बहुत सम्मान करती हूं। वह मेरे लिए कोई गलत निर्णय नहीं ले सकती। मैं अपने शारीरिक दोषों, भावी जीवन और रिद्धि की बात पर अंतहीन सोचती रही।
दो दिन रहने के बाद मुझे नया जीवन मिल गया। मुझे कृत्रिम पैर मिले। अब मैं बिना बैसाखी के भी चल सकती थी। मुझे ही नहीं, मेरे जैसे कई अपंगों को कृत्रिम अंग मिले। किसी को कृत्रिम पैर, किसी को कृत्रिम हाथ। नए अंगो के मिलने से हर कोई खुश था।
ये कृत्रिम अंग महंगे और अच्छी गुणवत्ता वाले थे। किसी भी मरीज से कोई पैसा नहीं लिया गया। मरीजों ने यथाशक्ति हॉस्पिटल को दान दे दिया।
   मैं ट्रेन से घर आई। बहुत सोचने के बाद मैंने डॉ. रिद्धि और अभिजीत के फैसले को स्वीकार करने का फैसला कर लिया। माँ-पापा को भी इस फैसल से अवगत कर दिया। अभिजीत का नाम सुनकर वह थोड़ा भ्रमित हो गए, लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया क्योंकि यह मेरा फैसला था।
     अचानक मेरे जीवन में वसंत आ गई थी।। मैं शादी कर के ससुराल पहुंच गई। अभिजीत प्यार करने वाला पति बन गया था।  ''शादी से पहले ही मैंने अभिजीत से शर्त रखी थी, ''मैं नौकरी  नहीं  छोडुंगी।  शिक्षा देना मेरा शौक हे।" अभिजीतने भी मेरे फैसले को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया था। अब मैंने ट्रेन छोड़ दी थी, क्योंकि अभिजीत ने मुझे आने-जाने के लिए एक कार दी रखी थी और ड्राइवर भी रख लिया था। मैं भी ड्राइविंग सीखने की कोशिश कर रही थी।"

दु:ख शब्द मेरे जीवन से विस्मृत हो गया था। हालाँकि, कुछ चीज़ें हमें हमेशा याद रहती हैं, उसमे मेरी ट्रेन यात्रा भी याद थी। इसका जिक्र अभिजीत से  मैं कई  बार करती थी।  रिद्धि से भी संपर्क टूट गया था। हालाँकि हम मोबाइल के जरिये एक दूसरे से जुड़े हुए थे। ऐसे ही एक दो महीने बीत गये।
"तुम्हें ट्रेन का अप-डाउन बहुत याद आता है ना? कल कार छोड़ देना। कल ट्रेन  से जाना। मैं भी तुम्हारे साथ ट्रेन में आ रहा हूं।" अभिजीत ने मुझे सरप्राइज दिया।
    दूसरे दिन  हम अपनी ट्रेन के समय पर पहुँच गये। डॉ. रिद्धि अब कार ले चुकी थी। उन्होंने भी  ट्रेन से आना-जाना बंध कर दिया था, लेकिन अभिजीत ने उसे आज ट्रेन से आने को कह दिया था।
मेरी ट्रेन आ गयी थी। मैं बैसाखी के बिना अपने कृत्रिम पैर से चढ़ रही थी और अभिजीत अपनी कृत्रिम हाथों से चढ़ने में मेरी मदद कर रहा था। डॉ. रिद्धि हमसे पहले बोगी में चढ़ गई थी। हमें इस तरह चढ़ते देख वो गदगद  हो गई।
ट्रेन चल पड़ी। वही सहयात्रियों का हंगामा कानों में गुंज उठा। कहीं झगड़ा तो कहीं नई जान-पहचान हो रही थी। मैं बहुत खुश हो रही थी। वही चाय-पानी वाले फेरिये थे। चनादाल  का भी हम तीनो ने मजा लिया।  "इस गरीब की सुनो, वो तुम्हारी  सुनेगा। तुम एक पैसा दो, वो दश लाख देगा।" मंगन भी गीत गाते किसी स्टेशन से चढ़े गये थे। मैंने आज उसे सौ रूपये का नोट दिया। भिखारी भी चकित रह गया।
डॉ रिद्धि का स्टेशन आ गया था।
"चलो यहाँ उतरना हे।" दोनों ने मुझे बताया।
"मुझे समय पर स्कूल पहुँचना है।"
"हमने वहा छुट्टी की सूचना दे दी है" मुझे फिर सरप्राइज मिला।
हम तीनों रिद्धि की अस्पताल पहुँचे। अस्पताल के बाहर देखा तो बाहर एक बैनर लगा हुआ था। " सम्मान समारोह"। अस्पताल में हमारा भव्य स्वागत किया गया। मैं आश्चर्य से सब कुछ देख रही थी। तय समयपर समारोह शुरू हो गया। मेहमानों का स्वागत हुआ। आख़िरकार मुख्य अतिथि कुछ शब्द कहने के लिए खड़े हुए।
             मुख्य अतिथि ने खड़े होकर कहा, "इस सम्मान पर सभी उपस्थित लोगों को बधाई। अभी हाल ही में इस अस्पताल में एक चिकित्सा शिविर आयोजित किया गया था। इससे शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों को लाभ हुआ। उन्हें नया जीवन मिला। कृत्रिम अंगों के साथ वे अब किसी पर निर्भर नहीं हैं।" दैनिक कार्य स्वयं कर सकेंगे। अंग भी बहुत उन्नत और अच्छी गुणवत्ता के थे।
किसी भी लाभार्थी से कृत्रिम अंगों की कीमत नहीं ली गई है। सभी अंगो का दान एक ही दाता ने किया है। ये दाता भी इस शिविर का हिस्सा थे। वे चाहते  तो उन्हें इस अस्पताल में विशेष सुविधाएं मिल सकती थी। लेकिन वह सामान्य लाभार्थी के साथ रहे और अस्पताल के सामान्य नियमों का पालन किया। हम इस दाता को हृदय से धन्यवाद देते हैं। इस दाता को सम्मानित करने के लिए ही यह सम्मान समारोह आयोजित किया गया है। अब बिना किसी देरी के, मैं उस दानकर्ता को मंच पर बुलाऊंगा। श्रीमान अभिजीत !! जी हां श्रीमान अभिजीत ही वह दाता है। श्रीमान अभिजीत कृपया मंच पर आएं और हमारा सम्मान स्वीकार करें।"
मैंने आश्चर्य से अभिजीत की ओर देखा। अभिजीत ने मुझे हल्की सी मुस्कान दी। अपने कृत्रिम हाथोंसे मेरा हाथ पकड़ लिया। उनके हाथो मे मुझे भावुकता दिखी, कृत्रिमता लुप्त हो चुकी थी। वह मुझे अपने साथ मंचपर ले गया। मंच पर उन्हें मोमेंटो और शॉल देकर सम्मानित किया गया। पत्नी होने के कारण उसने मुझे आधा सम्मान का भागीदार बनाया। उसके बाद चारों ओर से हम दोनों पर फूलों की बारिश होने लगी। फूलों की बारिश में डॉ. रिद्धि, अभिजीत और मेरी ट्रेनको मैं महसूस कर रही थी।

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