प्रेम सफर
“सर, संगीत की दुनियाँ में आपका सितारा आज बुलंदी पर है। तो सफलता के इस मुकाम तक पहुँचने कि आपकी सफर काफी कठिन रही होगी न?”
“हा, शुरुआत में मेरी सफर काफी कठिन रही थी। लेकिन ट्रेन में बनी उस घटना से मेरे जीवन में बदलाव आया।”
“वह कैसे?”
“बताता हूँ, मेरी उस सफर की घटना जहा से शुरू हुई मेरे जीवन की प्रेम सफर।”
मरुधर एक्सप्रेस के सिटी की गूंज मनोहर के कानों में गूंजने लगी। मनमस्तिष्क में उभरी उसी ट्रेन में बैठकर उसका मन भूतकाल की उस सफर को निकल पड़ा, जो उसके लिए साबित हुआ था प्रेम सफर।
*****
रात के सन्नाटे में ट्रेन तीव्र गति से पटरी पर दौड़ रही थी। अंदर कम्पार्टमेंट में बैठे मनोहर के दिमाग में उत्पात मचा हुआ था। सामनेवाली सीट पर बैठे बुजुर्ग को कटु नजरों से देखता हुआ वह अपनी सीट से उठा और दरवाजे के पास जाकर खड़ा हुआ। उसने जेब में से सिगरेट निकालकर उसे सुलगाई और उसका गहरा कश लेते हुए उसने अपनी आँखे मूँद ली।
“मनोहर, तेरे साथ पढ़नेवाले लड़के आज डॉक्टर, एंजिनीयर बन गए लेकिन तू..”
घर छोड़ने से पहेले बाबूजी के कहे शब्द याद कर मनोहर व्यथित हुआ। बाए हाथ में पकड़े सिगरेट का कश लेकर उसने दाए हाथ को पास आए दरवाजे पर अदा से थपथपाया। पता नहीं क्यों पर आज सिगरेट उसे लुफ़त देने कि बजाय भीतर से जला रही थी। मनोहर ने दीर्घ सांस छोड़कर सिगरेट को बाहर उछाल दिया। ट्रेन की गति भी अब धीमी हो गई थी।
“बाबूजी, अगला स्टेशन आने की तैयारी में है। आप जाकर अपनी जगह बैठ जाइए, वर्ना कोई दूसरा बैठ गया तो उसे उठाना मुश्किल हो जाएगा।”
“शुक्रिया।”
मनोहर ट्रेन की गति के साथ ताल मिलाता हुआ आगे बढ़ने लगा। वह सीट के पास पहुँचा ही था कि ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर रुक गई। इसीके साथ कम्पार्टमेंट, “चाय, चाय। गरमा गरम वडापाव” जैसे शब्दों से गूंज उठा। अभी स्कूलों में छुट्टियाँ न होने कि वजह से ट्रेन में ज्यादा भीड़ नहीं थी।
“बाबूजी, आप कहा जा रहे हो?”
“लखनऊ।”
“ओह! अभी तो जयपुर आया है, मतलब आपको १० घंटे की सफर ओर करनी है।”
बगलवाले भाईसाबने कहे शब्दों से सामने की सीट पर बैठा बुजुर्ग हरकत में आ गया, “क्या कहा? जयपुर आ गया!” एसा बोलकर वह अपने सामान को जल्द से समेटते हुए बोला, “अरी भागवान! जल्दी उठो जयपुर आ गया है।”
यह सुनते है वह औरत बौखलाकर उठी और अपने बच्चों को जगाने के काम में जुट गई।
“अरी भागवान! जरा जल्दी करो।”
“ट्रेन यहाँ पंद्रह मिनिट रुकनेवाली है तब काहे इतनी जल्दी करवा रहे हो?”
उस परिवार के जाते ही मनोहर के सामनेवाली सीट खाली हो गई। बाजू में बैठा इंसान भी उसके परिचित के बगलवाली जगह खाली होते वहा जाकर बैठ गया। मनोहर आराम से पैर फेलाकर बैठने कि सोच ही रहा था तभी उसके नथुनों में मोगरे की हल्की मीठी महक ने प्रवेश किया। उसने आँख उठाकर देखा तो एक बेहद ही खूबसूरत लड़की उसके सामने आकर खड़ी रही। मनोहर तिरछी निगाहों से उसके सौदर्य का रसपान करने लगा। उस लड़की ने चूड़ीदार पायजामा पहना हुआ था और उसके बदन पर आभूषण काफी चुस्त बंधे हुए थे। वह कम्पार्टमेंट में इधर-उधर नजरे घुमाने लगी। उसकी एकएक अदा में नजाकत थी।
“यहाँ कोई आनेवाला है?”
मनोहरने ‘ना’ में सिर हिलाते ही वह लड़की फौरन सीट पर बैठ गई। आननफानन में उसके हाथ की सूटकेस मनोहर के पैरों से जाकर टकराई।
“माफ कीजिए। वह जल्दी जल्दी में।”
“कोई बात नहीं।”
मनोहर के लिए मानो मुसाफ़री का रंग ही बदल गया था। कहाँ थोड़ी देर पहले सामने बैठा हुआ वह बूढ़ा खूसट और कहाँ यह हुस्न परी।
लड़की सामान रखकर सीट पर बैठ चुकी थी। अचानक मनोहर को एहसास हुआ की वह लड़की को खुले मुंह ताड़ रहा था। अपने इस अजीब व्यवहार पर शरम आते उसने अपना मुंह खिड़की की और कर दिया। लेकिन खिड़की के बाहर यूँ अंधेरे में ताकना उसे बचकाना सा लगा। कुछ सोचकर उसने जेब से मोबाइल निकाला और उसे टटोलने लगा। बीच-बीच में वह तिरछी नजरों से उस खूबसूरत बला को भी देख लेता था।”
“आप भी शोपीजन पर कहानियाँ पढ़ते है?”
लड़की ने पूछे सवाल के जवाब में मनोहर बोला, “हाँ। मुसाफ़री में मोटी किताब साथ में लाने की बजाय मुझे यह बहेतर लगता हैं।”
“सही बात है। यहाँ आप ढेरों किताब भी पढ़ सकते हो।”
लड़की बात करना चाहती है यह देख मनोहर ने मोबाइल जेब में रखते हुए कहा, “आप कहाँ जा रही हो?”
“वाराणसी, और आप?”
“लखनऊ।”
“सच में?”
मनोहर ने ‘हा’ में सिर हिलाया।
“बाय धि वे, मेरा नाम शिवाली है और आपका?”
“मनोहर।”
बातचीत आगे बढ़ाने का कोई अवकाश न होने पर वह दोनों दुबारा अपने अपने मोबाइल में व्यस्त हो गए। मनोहर बीच-बीच में तिरछी नजरों से शिवाली को देख लेता और सामने शिवाली का भी यही हाल था। कभी कभी उनकी नजरे आपस में टकराती परिणाम दोनों शर्मा के मोबाइल के अंदर वापिस नजरे गाढ़ देते।
*****
लंबे समय तक चुप रहने के बाद वही खामोशी दोनों को चुभने लगी। कंपारमेंट में बाकी लोग सुस्ता गए थे लेकिन इन दोनों को नींद कहाँ? उनका तो दिल ट्रेन के रफ्तार से ताल मिलाते हुए जोरोजोरो से धडक रहा था।
शिवाली ने बेग में से वॉटरबॉटल निकाली और उसमें से एक घूंट पीकर मनोहर की तरफ बढ़ाई।
“जी शुक्रिया।”
मनोहर ने पानी पीकर वॉटरबॉटल शिवाली को वापिस दी।
“आप क्या करते हो?”
“कुछ खास नहीं।”
मनोहर के मुख पर छाई निराशा को देखकर शिवाली का दिल व्यथित हो उठा, उसने बाजी संभालते हुए कहा, “मतलब जरूर कुछ खास करते होंगे।”
“शिवाली, जो चीज हमारे लिए खास हो वह जरूरी नहीं दुनिया के लिए भी खास हो।” इसीके साथ मनोहर के मस्तिष्क में उसके पिताजी का स्वर गूंज उठा, “नालायक, चला जा मेरे घर से और अब कुछ बन जाए तभी इस घर में कदम रखना।”
“क्या हुआ?”
“कुछ नहीं।”
फिर से एकबार खामोशी छा गई। मनोहर इधर-उधर नजरे घुमा ही रहा था की शिवाली का मोबाइल बज उठा। उसने मोबाइल के स्क्रीन पर नजर फेंकी और बेमन से फोन उठाते हुए बातचीत करके तुरंत फोन काट दिया।
“किसका फोन था?”
“इतनी रात को कौन फोन कर सकता है? मेरे मंगेतर का कॉल था।”
मनोहर ने कुछ सोचकर कहा, “आप शायद आपके रिश्ते से खुश नहीं।”
“वोट रबिश! आप को एसा क्यों लगा?”
“क्योंकि मंगेतर के फोन आने पर लड़की के चहेरे पर जो खुशी छा जाती है वो आपके चहेरे पर मुझे दिखी नहीं।”
शिवाली एकतरफ मुंह फेरते हुए बोली, “वह मुझे नींद आ रही है इसलिए बाकी में अपने रिश्ते से बहुत खुश हूँ।”
“ताज्जुब है! आपके मंगेतर ने शादी के बाद आपके शोख कथकली से दूर रहने की ताकीद दी फिर भी?”
“आपको कैसे पता चला की मुझे कथकली का शोख है?”
“आपका यह चूड़ीदार पायजामा और नृत्य करते समय बाधारूप न बने इसलिए शरीर पर चुस्त बांधे हुए यह आभूषणो से। एसा लगता है मानो कोई स्टेज प्रोग्राम से भागकर सीधा ट्रेन में आ बेठी हो।”
“एसा कुछ नहीं है।”
मनोहर हल्के से मुस्करा दिया।
“अब इसमें हसनेवाली क्या बात है?”
“एसा ही है।”
“तुम्हें जो मानना है वह मानो। दूसरों के विचारों पर लगाम लगानेवाली में कौन होती हूँ?”
“और तुम्हारे शोख पर लगाम लगानेवाला वह कौन होता है?”
“फिर वही वाहियात बात। अब दोबारा इस बारे में कुछ बोले तो मैं तुम्हसे बात नहीं करूंगी।”
“सॉरी बाबा।”
कम्पार्टमेंट में फिर से खामोशी छा गई।
थोड़ीदेर पूर्व हुए कार्यक्रम की याद ताजा होते ही शिवाली अपनी ही धून में बुदबुदा रही, “धा धिं धिं धा। धा धिं धिं धा | धा धिं धिं धा |”
जवाब में मनोहरने अदा से सीट पर थपथपाते हुए कहा, “धा तिं तिं ता | ता धिं धिं धा |”
यह सुन शिवाली खुशी से उछल पड़ी, “धा त्रक धिं धा | धा त्रक धिं धा | धा त्रक तिं ता | ता त्रक धिं धा |”
मनोहर भी आवेग में आकर बोला, “धागे धिग धिं धा | धागे धिग धिं धा | धागे तिग तिं ता | तागे धिग धिं धा |”
“तुम्हें ताल आते है?”
“बचपन से तबले का शोख रहा है मेडम। और आज इसी शोख की वजह से मुझे अपना घर छोड़ना पड़ा है।”
“तुम्हें भी?”
“तुम्हें भी मतलब! मेरा शक सही था.. है ना?”
शिवाली ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, “इस दुनिया में किसिको किसी के शोख कि कोई पड़ी नहीं। सब लोग बस गलतियाँ निकालते रहेते है।”
“लेकिन जब सफलता मिलती है तब उसी शोख के आगे सब नतमस्तक हो जाते है। फिर न तो शोख में कोई एब दिखता है, न शोख रखनेवाले में कोई नुक्स!”
“लेकिन शो ही हिट नहीं होगा तो सफलता मिलेगी कैसे? ताली एक हाथ से नहीं बजती। में लाख अच्छा परफोम करू परंतु सामने संगीत तो अच्छा बजना चाहिए। संगीत के बिना कथकली का नृत्य अधूरा है।”
“और में लाख अच्छा तबला बजा लूँ लेकिन सामनेवाले ने अच्छा परफ़ॉर्मनस तो देना चाहिए? अच्छे परफ़ॉर्मर के बिना तबलची कोई माइने नहीं रखता।”
वार्तालाप के अंत में दोनों की आंखे एक साथ चमकी। मनोहर ने उत्साह से कहा, “अगर हम दोनों मिल जाए तो?”
“व्हॉट?”
“मतलब तुम्हारा डांस और मेरा संगीत मिल जाए तो हम स्टेज पर आग लगा सकते है।”
“यह मुमकिन नहीं।”
“क्यों?”
“क्योंकि मेरी शादी तय हो चुकी है।”
“वह भी एसे ओछे के साथ जिसको तुम्हारे कला की कोई परवा नहीं।”
शिवाली ने लालधुम आँखों से मनोहर की और देखा और खिड़की कि तरफ मुंह फेर लिया। कम्पार्टमेंट में फिर से खामोशी छा गई। ट्रेन एक स्टेशन पर आकर रुकी लेकिन वह कौनसा था यह देखने की दोनों ने तसदी नहीं ली। थोड़ीदेर तक “चाय.. चाय..” की आवाज गूंजी और ट्रेन फिर से एकबार शुरू हो गई। इस दौरान एक परिवार आकर दोनों की सीट के सामने खड़ा रहा। वह बैठने की तैयारी कर ही रहा था की शिवाली ने मनोहर को खिड़की से सरकने को कहा और फिर वह उसकी बगल में आकर बेठ गई। वह परिवार अब जो जगह खाली हुई थी उसमें सिमट गया। उसमें जो औरत थी वह अपनी बेग को सीट के नीचे रखते हुए बोली, “आप दोनों पतिपत्नी कहाँ जा रहे हो?”
मनोहर उसकी गलती सुधारने जा ही रहा था की तभी शिवाली ने उसका हाथ दबाकर उसे रोक दिया। मनोहर को पहले शिवाली का व्यवहार अजीब लगा परंतु जब औरत की गलती उसको भा गई है यह महसूस होते ही वो दिल ही दिल में खुश हो गया। उसने धीरे से कहाँ, “लखनऊ।”
“हम भी।” एसा बोल औरत ने अपने साथ लाई बेग का तकिया बनाया और सो गई। उसका पति भी सामने की सीट पर पैर फेलाकर सो गया।
ट्रेन अपनी मस्ती से आगे बढ़ रही थी।
“शिवाली, मैंने जो कहा है उस पर दोबारा सोचकर देखो।”
“मुमकिन नहीं। मेरे मंगेतर को मेरा नृत्य करना जरा भी पसंद नहीं। उसका मानना है की लोगों के सामने नाचना तवायफ़ का काम होता है।”
“यह क्या बात हुई? तुम एसे इंसान से कैसे शादी कर सकती हो कि जिसे मुजरा और कथकली में भेद तक मालूम नहीं!”
“वह मेरे मातापिता की पसंद है।”
“और तुम्हारी पसंद? क्या वह कोई माइने नहीं रखती।”
“आखिर तुम कहेना क्या चाहते हो?”
“तुम नहीं समझोगी।”
ट्रेन की लंबी सीटी मानो मनोहर के दिल से गुजरकर निकल गई।
“शिवाली।”
“हा।”
“शादी एसे इंसान से करनी चाहिए कि जिससे हमारी पसंद और नापसंद मिलती हो। अगर दो पहिये समान नहीं होंगे तो सुखी संसार की गाड़ी आगे कैसे बढ़ेगी।”
“मुझे मेरे सुख से ज्यादा मेरे मातापिता की इज्जत ज्यादा प्यारी है।”
“गलत बंदे से शादी हो गई तो जीवनभर पसताना पढ़ेगा।”
“तुम्हारी शादी हो गई?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“कोई पसंद ही नहीं आई और जो पसंद आई वो..”
“वो?”
“किसी और की होने जा रही है।” मनोहर ने एक और मुख फेर लिया। शिवाली समझकर भी नासमज बनी रही।
कुछ सोचकर शिवाली ने कहा, “उससे अपने दिल की बात कही थी?”
“चंद घंटों की उस मुलाकात में मुझे अवसर ही नहीं मिला।”
“चंद घंटों में किसी को किसी से इतनी मुहब्बत कैसे हो सकती है?”
“शिवाली, प्यार होना हो तो पहेली नजर में हो जाता है।”
शिवाली ने तिरछी नजरों से मनोहर की और देखा, दोनों की नजरे आपस में टकराकर इधर-उधर बिखर गई।
खिड़की से बाहर देखते हुए शिवाली ने कहा, “में भी तुम्हारे तबले की थाप पर अपने पैर थिरकाना चाहती हूँ लेकिन शादी के बाद सच में मेरे लिए यह असंभव है।”
“शादी के बाद भी अपना नृत्य जारी रख सकती हो.. अगर तुम चाहो तो।” मनोहर ने अपने अंतिम चार शब्दों पर जोर देते हुए कहा।
शिवाली के गाल शरम से लाल हो गए। मनोहर हिंमत करके अपनी दिल की बात कहने आगे बढ़ा ही था कि तभी सामने लेटे पुरुष ने अपने चहेरे का रुमाल हटाया और खिड़की की बाहर झाकते हुए बोला, “लड्डू की मा, चलो उठो। लखनऊ आने की तैयारी है। बाबूजी आप लोग भी लखनऊ ही उतरनेवाले है न?”
मनोहर ने बेमन से सिर हिलाया। ट्रेन की गति अब धीमी हो चुकी थी। लखनऊ आते ही अब शिवाली से बिछड़ना पड़ेगा इस ख्याल मात्र से मनोहर बेचेन हो उठा। वह शिवाली से अपने दिल की बात कहने को तड़प रहा था लेकिन तभी सामनेवाली औरत ने उठते हुए कहा, “मेडम, जरा पैर साइड में लीजिए, मुझे अपनी बेग निकालनी है।”
मनोहर भी बेग लेकर अपनी जगह से उठा। शिवाली उसे रोकने का प्रयास करेगी उस आशा में वह उधर ही खड़ा रहा।
“बाबूजी, जल्दी नीचे उतरई, हमे अपना सारा सामान भी नीचे उतारना है।”
मनोहर ने फिक्की हसी के साथ शिवाली की और देखा। जवाब में शिवाली ने बाँय का इशारा किया। यह देख मनोहर भारी मन से ट्रेन में से नीचे उतरा। उसने गीली आँखों से ट्रेन के दरवाजे की और देखा लेकिन उधर किसिको भी मौजूद न देख उसने गेट की और कदम बढ़ाए। मनोहर के मन में कशमकश का सैलाब सा उमड़ा था। शिवाली कम्पार्टमेंट में थी लेकिन उसकी यादों के बोज तले मनोहर को अपने पाँव भारी लग रहे थे। काश उसने हिंमत करके अपने प्यार का इजहार शिवाली के सामने किया होता। मनोहर गेट के पास आई हुई चाय की टपरी के पास गया और चाय का ऑर्डर दिया। उसने तिरछी नजरों से प्लेटफ़ॉर्म पर देखा तो ट्रेन अभी भी वही खड़ी थी। वेटर ने मनोहर के सामने चाय का कप रखा। मनोहर चाय का घूंट गले के नीचे से उतारते हुए सोचने लगा कि अब शिवाली से फिर कभी मिलना नहीं होगा। मानो ट्रेन के साथ उसकी पूरी जिंदगी उससे दूर जाने वाली थी। लेकिन यह ट्रेन अभी तक छूटी क्यों नहीं?
उसने बगलवाले मुसाफिर को यह पूछा तो उसने प्रतिउत्तर दिया, “बाबूजी, यह ट्रेन इस स्टेशन पर पूरे पचास मिनिट रुकती है।
यह सुन मनोहर की आँखे चमकी। शिवाली को मनाने के लिए इतनी मिनिट काफी थी। जैसे ईश्वर ने उसे एक मोका दिया हो एसी आशा के साथ उसने बेग उठाई और किसी छलावे की मानिंद कम्पार्टमेंट की और दौड़ा। उसने शिवाली को “आई लव यू” कहने का मन बना लिया था। लेकिन सीट के पास पहुँचते ही उसके पाँव नीचे की जमीन सरक गई। शिवाली अपनी जगह पर नहीं थी! उसने शिवाली की खोज में नजर दोड़ाई परंतु उसे वह कहीं दिखाई नहीं दी।
“यहा एक लड़की बेठी थी वह कहा गई?”
“कौन सी लड़की?”
“उसने ग्रे रंग का चूड़ीदार पायजामा पहना था।”
“पचास मिनिट का होल्ड है साहब। यही कही चाय नास्ता करने गई होगी।”
मनोहर ने वही बैठकर शिवाली का इंतजार करना ज्यादा मुनासिब समझा। लेकिन काफी देर तक जब शिवाली आई नहीं तब वह बैचेन हो उठा। वह अब बारबार घड़ी की और देखने लगा। तभी ट्रेन छूटने की सिटी बजी। मनोहर ने उम्मीद भरी नजर दरवाजे कि और डाली परंतु शिवाली नहीं दिखी।
“लगता है वह लड़की बाबूजी का पत्ता काट गई।” एसा बोल वह दोनों मुसाफिर खिलखिला के हँस पड़े।
ट्रेन धीरे धीरे प्लेटफ़ॉर्म छोड़ने लगी तब मनोहर बोझल मन से कंपारमेंट में से नीचे उतर गया। आँसू भरी आँखों से उसने आसमान की और देखते हुए कहाँ, “है भगवान, अगर हमे बिछड़वाना ही था तो मिलवाया ही क्यों?”
ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म छोड़ चुकी थी। मनोहर भारी मन से वापिस गेट की तरफ चलने लगा। वह पूरे १० घंटे शिवाली के साथ था। वह चाहता तो उसे आराम से मना सकता था लेकिन उसकी हिंमत ही नहीं हुई। मनोहर ने हँसते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर पड़े कोल्डड्रिंक के केन को ठोकर मारते हुए कहा, “बुजदिलों को उनकी बुजदिली की किंमत चुकानी ही पड़ती है।”
गेट के पास पहुँच कर मनोहर उसी टी स्टॉल के सामने जा कर बोला, “एक चाय देना।”
“यह लो बाबूजी।”
मनोहर चाय का गिलास मुंह को लगाने जा ही रहा था की तभी उसकी नजर सामने आए हुए बेंच पर गई।
“शिवाली! तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
“तुम्हारे पीछे में भी कम्पार्टमेंट से उतर गई थी। लेकिन बहुत ढूँढने पर भी जब तुम नहीं मिले तब थक हारकर यहाँ आकर बेठ गई।”
“पर क्यों?”
“तुम्हारे जाने के बाद जब में अकेली कम्पार्टमेंट में बैठी थी तब मुझे तुम्हारी एहिमीयत का अंदाज हुआ। तुम्हारे बगैर गुजरे वह चंद लम्हे जब इतने पीड़ादायक थे तब पूरी जिंदगी में तुम्हारे बिना कैसे जी पाऊँगी?”
“मतलब?”
“बेवकूफ, साथ मिलकर दुनिया को बताएंगे की कला की क्या ताकत होती है।”
“पर तुम्हारा मंगेतर?”
“तुम्ही ने तो कहा था की अगर में चाहू तो शादी के बाद भी अपना नृत्य जारी रख सकती हूँ। तो बस मैंने उस लड़के से शादी करने का फैसला कर लिया है जो मेरे शोख को समझे।”
“शिवाली, मतलब तुम मुझसे।”
“शादी करना चाहती हूँ।” शिवाली एसा बोलकर मनोहर की बाहों में समा गई।
“लेकिन तुम्हारे मातापिता का क्या होगा?”
“सफलता मिलने के बाद किसिको न तो शोख में कोई एब दिखता है, न शोख रखनेवाले में कोई नुक्स! मेरे मातापिता भी मान जाएंगे।”
यह सुन मनोहर ने शिवाली को अपनी बाहों में भर लिया। बस इसी सफर के अंत के साथ मनोहर और शिवाली के जीवन का शुरू हो चुका था प्रेम सफर।