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बस चाहने की बात है

रिया लैपटॉप पर किसी यश मल्होत्रा की तस्वीरें देख रही थी, एक-दो तस्वीरों पर लाईक किया फिर अनलाइक कर दिया।
"पसंद है तुझे?"
"मॉम यार कितनी बार बोला नॉक तो किया करो" अचानक अपने पीछे अर्पिता को देख रिया घबरा गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो।
"अरे बता ना, अब तू बड़ी हो गई है, मैं तेरी मॉम के साथ फ्रैंड भी हूँ अब… बता बता।"
"कोई फायदा नहीं है अब"
"क्यों इसे कोई और पसंद है?"
"नहीं मॉम…आय मीन … पता नहीं…"
"तो फिर?.. लड़का बिगड़ा हुआ है?"
"नहीं..! वह हमेशा के लिए यू‌.एस. में शिफ्ट हो गया है"
"तो फेसबुक पर तो है.. मैसेज कर"
"मॉम यार.. इतना भी कुछ करने जितना पसंद नहीं है..केवल अच्छा लगता था…मतलब है.. मुझे..पर उसको तो पता भी नहीं है क्योंकि एक तो वह दूसरे सेक्शन में था और उसे मुझमें कोई दिलचस्पी नहीं है और मुझे अभी पढ़ाई पर ध्यान देना है.."

"..... ओके.. साँस तो ले! देख, तू भले ही अपनी ओर से कुछ मत कर, कोई उम्मीद भी मत रख लेकिन उम्मीद छोड़ भी मत.. अपने सपनों को हमेशा सहेज कर रखना चाहिए, क्या पता कभी वे हकीक़त में बदल जाएँ!"

"मतलब?" 

"अरे मतलब ऐसी कोई चीज़ जो हमें पसंद है या हमारा कोई नामुमकिन-सा सपना है, तो उसके बारे में हमेशा सोचते रहना चाहिए, बिना किसी उम्मीद के। अगर हमारी सोच में, हमारे मन में वह सपना जिंदा है तो कभी ना कभी वह पूरा जरूर होता है…मेरी दादी कहती थी कि यदि आप किसी चीज को मन से चाहो तो मिलती ज़रूर है"

"यह शाहरुख खान कहता है…शिद्दत.. कायनात..जैसा कुछ"

"अरे मेरी दादी ने जब मुझसे यह कहा था तब शाहरुख खान की मुश्किल से एक दो फिल्में आईं थीं… मैं आठवीं कक्षा में थी और मुझे तो पता भी नहीं था कि मुझे हो क्या रहा है बस मुझे वह अच्छा लगने लगा था…"

"ओ एम जी! मॉम!! मतलब आपकी भी कोई लवस्टोरी थी! सच में???"

"क्यों? नहीं हो सकती? बल्कि हमारे जमाने में तो सच्चा वाला प्यार था… ये ब्रेकअप वगैरह नहीं होते थे… दिल या तो जुड़ते थे या टूटते थे"

"हममम् ! तो आपकी लवस्टोरी में क्या हुआ? वह लड़का मिला?"

"बस यही तो समस्या है तुम्हारी जनरेशन की! कहानी शुरू हुई नहीं और सीधे आखिर में क्या हुआ वह बता दो… अरे पूरी कहानी तो सुनो। हम तो फिल्में भी टाकीज में देखने की बजाय स्टोरी सुनते थे!"

"सुनाओ ना जल्दी…अभी सुनाओ"

"रुक जरा तेरे पापा को मेसेज कर लूँ, कब तक घर आएँगे जरा पूछ तो लूँ.."

"पापा को पता है आपकी लवस्टोरी के बारे में?"

"अब मेरी प्रेमकथा में ना तो कुछ छिपाने जैसा है ना बताने जैसा…"

"मतलब नहीं पता?"

"फिर वही! थोड़ा सब्र करो‌ बेटा जी….आ गया रिप्लाई, लेट आएंगे गुप्ता जी"

"तो फिर मुझे अभी सुनाओ…अब मैं सब्र नहीं कर सकती, पूरी कहानी शुरू से सुनाओ"

".....तो मैं आठवीं में थी। हमारे छोटे-से शहर के छोटे-से स्कूल में को-एड में पढ़ती थी लेकिन को-एड में होने के बावजूद उस समय लड़कों से बात करना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। अगर ग़लती से भी किसी से हँस कर बात कर ली तो सारी लड़कियां अजीब नज़रों से देखती थी… बातें बनना शुरू हो जाती थी और ऐसे में मेरी कक्षा में वह आया!
इतने सालों से क्लास में इतने लड़के थे लेकिन कुछ नहीं हुआ लेकिन उसके आते ही कुछ तो हुआ! ऐसा लगा जैसे मैं हवा में उड़ रही हूँ…. मिट्टी की खुशबू, बारिश की बूंदें अच्छी लगने लगी.. आईने में खुद को देखना अच्छा लगा! शायद वह उम्र ही ऐसी होती है, ना तो हम छोटे होते हैं ना बड़े…
क्लास में बार-बार नज़र उसकी ओर जाती थी। ठंड के दिनों में सुबह-सुबह कोहरे में प्रिया और मैं साथ स्कूल जाते थे, आधे रास्ते के बाद सड़क की दूसरी ओर वह भी साथ होता था…एकाध दिन वह मुझे देखकर मुस्कुराता भी था। वह ठंड मेरी जिंदगी की सबसे प्यारी ठंड थी!
उसकी कोचिंग क्लास भी हमारे ही मोहल्ले में थी, घर के सामने से साइकिल के दो-तीन चक्कर लगाता था, मुझे लगता था कि वह जानबूझकर मेरे घर के सामने से गुजरता है… प्रिया को भी अब ये बात पता थी कि मुझे वह पसंद है। बहुत छेड़ती रहती थी मुझे।
पूरा साल बीत गया हम दोनों के बीच कोई बात नही हुई, सिवाय मेरे जन्मदिन के, जब कक्षा में सबकी तरह उसने भी मुझे बधाई दी और मैंने उसके हाथ में एक की बजाय दो चॉकलेट्स रख दी।
हमारे जमाने में प्यार का इजहार ऐसे ही होता था छब्बीस जनवरी पर एक्स्ट्रा लड्डू देकर या जन्मदिन पर ज्यादा चॉकलेट देकर! फिल्मी गीत सुनकर या सपने देखकर। इससे ज्यादा कुछ करने की हिम्मत ही नहीं थी।
सबसे बुरी बात यह थी कि हमारी स्कूल आठवीं तक ही थी तो केवल एक ही साल का साथ था, फिर रास्ते अलग! 
मुझे याद है स्कूल का वह आखिरी दिन! ऐसा लग रहा था कि वह दिन कभी खत्म ना न हो…
आखिरी पेपर के बाद सब बाहर खड़े थे। वह अपनी साइकिल उठा कर जा रहा था और मैंने हिम्मत जुटा कर उसे बाय किया था। एक प्यारी-सी स्माइल देकर वह चला गया…."

"और फिर….आपने उससे कांटेक्ट नहीं किया?"

"उस जमाने में थोड़े ही कोई फोन हुआ करते थे, हमारे घर तो लैंडलाइन तक नहीं था। उसका घर भी पता नहीं था। मैंने अपनी कुछ सहेलियों से पूछताछ की तो पता चला कि उसके पापा का तबादला हो गया है और वह यह शहर छोड़ कर चला गया है!"

"ओह! कितना बुरा लगा होगा आपको!"

"हाँ, लगा तो था, काफी दिनों तक मैं उदास-उदास रही, घर पर सबको लगा नया स्कूल है, पढ़ाई बढ़ गई है इसलिए उदास है… फिर एक दिन रेडियो पर गाना चल रहा था, 'जब हम जवां होंगे, जाने कहाँ होंगे' और मुझे रोना आ गया, दादी की गोदी में सर रखकर बहुत रोई।
दादी ने पूछा कि क्या हुआ?
मैंने कहा कि ऐसा लग रहा है जैसे मेरा कुछ खो गया है…
दादी ने भी बहुत सावन देखे थे, मेरे बालों को सहलाते हुए बोली कि "देख, अगर कोई चीज़ तेरी नहीं है तो चाहे वह तेरे सामने हो तुझे नहीं मिलेगी, लेकिन अगर कोई चीज़ तेरे लिए है तो सही समय आने पर कैसे भी वह तेरे पास आ ही जाएगी! इसलिए उम्मीद कभी नहीं छोड़ना अप्पू। उस चीज को प्यार से अपने मन में सजाकर रखना, सब 'उसके' हाथ में है, 'उसे' उसका काम करने दे और तू अपना काम मन लगाकर कर, चल तेरी क्लास का समय हो गया है।"
दादी ने बहुत बड़ी बात कही थी! उस दिन के बाद मैंने अपनी पढ़ाई में ध्यान लगाना शुरू कर दिया।
मैं पढ़ाई में अच्छी ही थी लेकिन दादी ने उस दिन मेरे भटकते हुए मन को थाम लिया। मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की। एम.बी.ए. किया। सब कुछ बढ़िया चल रहा था लेकिन….लेकिन मन के एक कोने में अभी भी वह था.."

"मतलब सबकौंशियस माइंड मे…"

हाँ.. या यह कह लो खुली आंखों के सपनों में..जब भी किसी नई जगह जाती आँखें उसी को खोजती , ऐसा लगता कोई जादू हो जाए और इस भीड़ में से निकल कर अचानक सामने आ जाए! ट्रेन में सफर करती तो लगता काश कोई चमत्कार हो और सामने वाली खाली सीट पर‌ वह आ जाए… सालों बीत गए वह नहीं दिखा, लेकिन स्कूल में खिंचवाया हुआ ग्रुप फोटो मैंने सहेज कर रखा था, उसी में उसको देख लिया करती थी।
खैर….. फिर भैया की शादी हुई और भैया मुंबई शिफ्ट हो गए। और मैं भैया-भाभी के साथ कुछ महीनों के लिए मुंबई चली गई! 
वहाँ सब कुछ अलग था… सुंदर…अनोखा… मुझे तो लग रहा था कि मैं सपनों की दुनिया में हूँ! लेकिन वहाँ भी मेरे पागल मन ने सोचा कि काश मुंबई की इस भीड़ में कहीं वह मिल जाए! सच तो यह है कि हाई स्कूल और कॉलेज में इतने लड़कों के साथ रही, पढ़ाई की लेकिन मन में वही रहा! जबकि जानती भी थी कि मैं उसे जानती ही कितना हूँ, इतने सालों में वह कितना बदल गया होगा, हो सकता है उसके जीवन में कोई आ भी गया हो, वह तो मुझे पहचानेगा भी नहीं… और मैं कहाँ पहचानूंगी उसे?? बचपन के फोटो में और उसमें अब कितना कुछ बदल गया होगा! दिमाग सब समझता था लेकिन मन..मन अपनी ही बात पर अड़ा था!

"मम्मी अब आप बहुत डीडेल में जा रहे हो मुंबई भी आ गया! आपकी कहानी का क्लाइमेक्स कब आएगा?"

"तुम शॉर्ट फिल्में देखने वालों को साढ़े तीन घंटे की फिल्म का मजा ही लेते आता… खैर! क्लाइमेक्स आ चुका था। बस यहीं! मुंबई में! एक दिन भाभी ने कहा अर्पिता तुम्हारे लिए तुम्हारे भैया के एक दोस्त का रिश्ता आया है, लड़का यहीं सेटल है, बहुत अच्छा परिवार है, अपने ही शहर के हैं। मम्मी-पापा को भी कोई आपत्ती नही, आज तुम्हें उससे मिलना है!

और फिर रोहन दुबे मुझसे मिलने आए! बहुत स्मार्ट, डिसेंट… मीन-मेख निकालने की कोई वजह ही नहीं थी और उनके घरवालों को भी अर्पिता शर्मा पसंद आ गई!
पहला ही रिश्ता और मिठाईयाँ बँट गई शादी तय हो गई!"

"लेकिन मम्मी…पापा का नाम तो……"

"अरे! तुम फिर….! मैंने कहा शादी तय हुई, हो नहीं गई। आनन-फानन में मैं वापस आई, शादी की तैयारियाँ शुरू हो गई। वापस आने के बाद मेरी रोहन दुबे ‌से कोई बातचीत नहीं हुई, वह दौर ही ऐसा था। अरेंज्ड मैरेज में लड़के-लड़कियाँ शादी से पहले मिलते-जुलते नहीं थे। फोन वगैरह थे ही नहीं..
और वैसे भी मेरी ऐसी कोई इच्छा भी नहीं थी, बस यह था कि अब मैंने अपने उस सपने को एक बक्से में बंद कर दिया था। अब एक नई शुरुआत करना थी। मुझे सपनों की दुनिया से हकीकत की जमीं पर कदम रखने थे। मन थोड़ा बेचैन था लेकिन कोई विकल्प नहीं था। 
वैसे भी वह केवल एक आकर्षण था, अब यह मान लेना ही अच्छा था। 

फिर एक दिन पापा ने बताया कि जमाईं जी अपने घर आए हुए हैं और आज उनके पिताजी के साथ हमारे घर आ रहें हैं। बस फिर क्या था तैयारियाँ शुरू हो गईं। शाम को वे लोग आए। मैं माँ के साथ रसोई में थी‌। लेकिन थोड़ी ही देर में पिताजी ऊँची आवाज में बात करने लगे और हम लोग घबरा कर भीतर वाले कमरे से झाँकने लगे। पिताजी बोल रहे थे कि ऐसा कैसे कर सकते हैं आप! शादी की तैयारियाँ हो गई है, निमंत्रण-पत्र छपने चले गए हैं और अब आप यह कह रहे हैं! ये बड़े शहर वाले भरोसे लायक ही नहीं होते!”

दुबे जी बोल रहे थे कि “भाईसाहब आप थोड़ा ठंडे दिमाग से काम लें। अब सोचिए अच्छा हुआ ना कि रोहन ने शादी से पहले ही बता दिया कि उसे किसी और से प्रेम है, शादी के बाद बताता तो तीन जिंदगियाँ बर्बाद हो जाती। और निमंत्रण पत्र छपने गए हैं ना तो बस नाम बदलवा दीजिए।”

"मतलब क्या है आपका?" पिताजी ने गुस्से से कहा।

"देखिए शर्मा जी, आपकी बिटिया तो लाखों में एक है, हमें तो बहुत पसंद है पर जोड़ियाँ तो ऊपर से बनती है।
शायद रोहन और अर्पिता बिटिया का योग नहीं था। अगर आप बुरा न मानें तो मेरे मन में कुछ है।"

तभी मेरा ध्यान दुबे जी के साथ आए शख्स पर गया! वह रोहन नहीं था। कोई और था….

दुबे जी बोले, "बिटिया भले ही रोहन की दुल्हन ना बने, लेकिन आएगी हमारे ही परिवार में, यह हमारे साले साहब का बेटा है, हमारे बेटे जैसा है, यहीं दिल्ली में बड़े सरकारी पद पर है…आशीष गुप्ता नाम है….आप चाहें तो …..

पिताजी ने मुझसे पूछा, मेरे ना कहने का तो सवाल ही नहीं था। और बस फिर तेरे पापा याने कि आशीष गुप्ता के साथ मेरी शादी हो गई! 

“और फिर वह लड़का? कभी मिला आपको? उस लड़के की कहानी तो अधूरी ही रह गई…”

“अगर किस्मत में हो कभी-कभी अधूरी कहानियाँ भी पूरी हो जाती हैं! वो तुम लोग क्या कहते हो… डेस्टिनी!
आ इधर, कुछ दिखाती हूँ” कहकर अर्पिता ने अलमारी से एक पुरानी फाइल निकाली। 

“यह हमारे स्कूल का ग्रुप फोटो” एक लड़की के फोटो पर उंगली रखते हुए अर्पिता ने पूछा, “पहचाना?”

“ये तो आप हो, कितनी क्यूट लग रही हो!”

“और ये?”

“उम्म्…..ये तो …पापा हैं…तो क्या पापा और आप भी एक ही स्कूल में थे?”

“बताया तो कि वह लड़का और मैं एक ही स्कूल में थे।” अर्पिता के चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान थी।

“....ओह माई गॉड! तो आप ये कहना चाहती हो कि पापा ही वह लड़का है! आय डोंट बिलीव! आप सच बोल रही हो?? मतलब कहानी के हीरो पापा ही थे!!”

“जी हाँ! तभी तो मैंने कहा कि मेरे ना कहने का तो सवाल ही नहीं था!” 

“ये तो कमाल है! जस्ट अनबिलीवेबल! इतनी इंटरेस्टिंग कहानी है आपकी! आपने पहले क्यों नहीं सुनाई कभी!” 

“बेटा हर चीज का एक सही समय होता है और सही समय आने पर वह चीज आप तक खुद आ जाती है…
क्योंकि सचमुच ये जिंदगी बहुत बड़ी है और दुनिया बहुत छोटी!"

"ये तो सैफ अली खान ने कहा था हम-तुम में!"

"हाँ तो मैंने कब कहा कि दादी ने कहा था!" 

अर्पिता और रिया की हँसी से कमरा गूंज उठा था। आज इस डेटिंग और ब्रेकअप के जमाने में रिया ने सच्ची वाली लवस्टोरी सुनी थी और उसे भी सच्चे प्यार पर यकीन हो चला था! फेसबुक पर यश मल्होत्रा की प्रोफाइल खुली पड़ी थी।

© ऋचा दीपक कर्पे 
१४ फरवरी २०२४









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