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सफरनामा

मेरे अनुभव की एक ट्रेन कथा


"सफर" कितना प्यारा शब्द है!!!


सफर चाहे जिंदगी का हो या फिर जिंदगी के मुसाफिरी का !!!!! उसका अपना अलग ही मजा है ।


मेरे जीवन में अभी तक मैंने काफी जगह पर सफर किया है। जब भी समय मिलता है या कहूं तो जब भी मुमकिन होता है मैं घूमने निकल जाता हूं और अक्सर वह सफर मेरे परिवारजनों के साथ होता है। अपनी जिंदगी की नित्य व्यस्तताओं को भुलाकर स्वयं के लिए तथा स्वयं के परिवार के लिए समय निकालकर घूमते समय आनंद काफी ज्यादा आता है।


सफर की शख्सियत ऐसी है, की वह तब तक ही अच्छा लगता है जब तक आप हिंदी का सफर करते है पर यदि वह सफर अंग्रेजी का सफर बन जाए तो बिलकुल राज नही आता। 


रोचक कथा का अगर जिक्र करना है तो, जिंदगी की कैसेट थोड़ी रिवाइंड करने का प्रयास करके, अपनी जिंदगी के 13 वर्ष पुराने पन्नों को मैं खोलना चाहता हूं, और उन्हें खोल कर ऐसेही एक हिंदी और अंग्रेजी के सफर का अनुभव आप से साझा कर रहा हूं। इन पन्नों को खोल कर खुद को (अभी हूं उससे) थोड़ा जवान करने वाला हूं।


कई बार जवानी में जोश ज्यादा परंतु (परिपक्वता का) होश हमें कम होता है। सोच में परिपक्वता कम होने से कुछ निर्णय हम सही नही ले पाते और फिर हमें परेशानी का सामना भी करना पड़ता है। 


इस शॉपिज़न कहानी प्रतियोगिता  

"एक ट्रेन कथा" (सफर जिसने आपकी ज़िंदगी बदल दी) 

के जरिए मैं मेरी आपबीती (सत्यकथा) , एक अनोखी परंतु मजेदार ट्रेन की यात्रा, आप सभी से साझा करने वाला हू। आशा है आप सभी को यह पसंद आएगी।


वह सन था २०१०,  नवंबर का महीना । मैं उसे समय भारत के दक्षिणी तट का राज्य तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में स्थित था। वैसे तो मैं इंदौर (मध्य प्रदेश) से हूं और बचपन से ही मुंबई में पला बड़ा हूं, परंतु २०१० में मेरे कारोबार में परिवर्तन के चलते मैं चेन्नई में स्थित था।


चेन्नई में बारिश का मौसम सितंबर/अक्टूबर से शुरू होता है और करीब ४ महीने रहता है। चुकीं उसे समय चेन्नई से इंदौर तक की सीधी यात्रा के लिए हवाई जहाज नहीं था, मैं मुंबई तक हवाई जहाज से आ कर फिर ट्रेन से इंदौर जाने वाला था।


नवंबर महीने की २७ तारीख को मैं चेन्नई से मुंबई तक हवाई यात्रा और मुंबई आकर मैं मुंबई सेंट्रल से इंदौर जाने वाली अवंतिका एक्सप्रेस में मैंने आरक्षण कर रखा था। किया हुए बुकिंग और प्लानिंग काफी बढ़िया था परंतु पिक्चर तो अभी बाकी है  !!!!!!!


२७ नवंबर की सुबह में उठा और आने वाले जीवन की यात्रा करने के लिए तैयार होना शुरू हो गया। आने वाले जीवन की यात्रा इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि मैं अपने विवाह के लिए इंदौर जा रहा था। अपनी बैग लेकर सुबह में घर से दफ्तर के लिए निकला।


मेरा हवाई जहाज दोपहर ३:०० बजे का था इसलिए मैं सुबह अपने दफ्तर गया और दोपहर तक काम करके फिर वहां से निकला । दफ्तर से निकलने से पहले मैंने खाना खा लिया और अपने सभी दोस्तों से 15 दिन की विदा लेकर मैं चेन्नई एयरपोर्ट के लिए निकला। हमारा दफ्तर से तिरुसुलम (जहां पर चेन्नई का एयरपोर्ट) है वह महज २० मिनट की दूरी पर था। ज्यादा बारिश के चलते मुझे ट्रेन से जाना ही लाज़मी लगा। 


चेन्नई की लोकल ट्रेन में जाते समय " दीवाना मैं चला उसे ढूंढने बड़े प्यार से ", यह गीत मन ही मन गुनगुनाते हुए मैं एयरपोर्ट तक की यात्रा पूरी कर रहा था। विवाह के निमित्त से मिलने वाले मेरे दोस्त, बहन भाई , परिवारजनोको मिलने का आनंद मेरे दिल में था।


इस आनंद से मैं चेन्नई हवाई अड्डे पर पहुंचा, और पहुंचते ही मुझे बताया गया की हवाई जहाज (ख़राब मौसम के चलते) १ घंटे की देरी से उड़ान भरेगा। बारिश वाकई में ज्यादा थी उसे कारण से उड़ान में देरी बड़ी स्वाभाविकसी थी। 


मैं बोर्डिंग कार्ड लेकर उड़ान के प्रतीक्षा में बैठा रहा और थोड़ी देर बाद फिर अनाउंसमेंट हुई कि हवाई जहाज अब २ घंटे के विलंब से उड़ान भरेगा, यह सुनकर मेरी धड़कन ही तेज हो गई क्योंकि मुंबई पहुंचने का मेरा समय शाम के ५:१५ के बजाय अब शाम को ७:१५ हो चुका था। एयरपोर्ट से बोरीवली स्टेशन पहुंचने के लिए मुझे कम से कम आधा से पौन घंटा लगने वाला था और अवंतिका एक्सप्रेस का बोरीवली में (तत्कालीन प्रस्थान) समय था शाम को ७:४३


तो मुझे ट्रेन मिलने के आसार काफी कम लग रहे थे। मुंबई एयरपोर्ट पर उतरने के बाद जैसे तैसे मैं बोरीवली स्टेशन पहुंचा, तब रात के ८:०० बज चुके थे और ट्रेन थोड़ी देर पहले ही प्लेटफार्म से निकल चुकी थी


मैं जब रेलवे स्टेशन पहुंचा तब गार्ड के डब्बे का लाल दिया (लगाकर बंद चालू होते हुए) गाड़ी स्टेशन छोड़ रही थी। यहीं से मेरी यात्रा में एक नया मोड़ आया, मानलो जिंदगी एक परीक्षा ले रहीं हो।


कभी-कभी ईश्वर हमसे कुछ ऐसी चीज करवा कर रखता है जिससे हमें परेशानी थोड़ी कम हो । मैं अवंतिका एक्सप्रेस के साथ-साथ मुंबई से निकलने वाली और अमृतसर की ओर जाने वाली स्वर्ण मंदिर मेल का भी टिकट नागदा जंक्शन तक निकाल कर रखा था । दोनों ट्रेनों में २ घंटे का अंतराल था, परंतु पहली ट्रेन छूटने के सदमे से में उभरा नहीं रहा थामेरी विवेकबुद्धि काम ही नहीं कर रही थीमेरा गला सूख गया था। ट्रेन छूट गई, अब गंतव्य स्थान (इंदौर तक में कैसे पहुंचूंगा) इस सोच के चलते मैं और परेशान हो गया था। मुझे जोरों से भूख भी लग रही थी, प्यास भी लग रही थी और समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या करूं ?


गाड़ी छूटने का संदेश मैंने मेरे माताजी को इंदौर में दिया तो कुछ हद तक वे भी परेशान हुई पर उन्होंने मुझे धीरज दी और मेरा हौसला बढ़ाया । आखिरकार इन सब बातों में घड़ी में 8:30 बज गए। मुझे स्वर्ण मंदिर मेल पकड़ने के लिए मुंबई सेंट्रल जाना था (क्योंकि मेरा बोर्डिंग स्टेशन मुंबई सेंट्रल था)। जिसके लिए बोरीवली से लगभग ४० मिनट का सफर मुझे और तय करना था।


मैंने तुरंत दूसरी लोकल ट्रेन ली और निकल पड़ा मुंबई सेंट्रल के लिए। ट्रेन तो फास्ट ट्रेन थी पर उसे दिन सिग्नल में चलती गड़बड़ी के कारण वह काफी धीरे-धीरे चल रही थी। मैं डरा सहमा सा इस चिंता में बैठा था कि मैं रात को ९:२० तक अगर मैं मुंबई सेंट्रल नहीं पहुंचा तो (उसे समय रात ९:२५ को चलने वाली) ट्रेन भी छूट सकती है।


लोकल ट्रेन धीरे-धीरे चलते हुए सांताक्रुज रेलवे स्टेशन पर रुकी तो रात के ९:१० हो चुके थे और मुझे इस बात का अंदाज आ गया था कि अब मुझे यह दूसरी ट्रेन मुंबई सेंट्रल जाकर भी नहीं मिलेगी ।


आखिरकार मैंने बीच में ही उतरकर फिर बोरीवली जाने के लिए वापसी की ट्रेन पकड़ी। बोरीवली में स्वर्ण मंदिर मेल का (उस समय का) आगमन समय रात १०:०५ का था।


मैं जैसे तैसे अपने आप को एवं मेरे सामान को संभालते हुए बोरीवली स्टेशन पहुंचा। उस समय रात के ९:५५ हो चुके थे,


मेरे पेट में मानो चूहे दौड़ रहे थे । पर गाड़ी आने का समय इतना क़रीब आ गया था कि मैं भोजन करने की स्थिति में भी नहीं था। खाली पेट (सिर्फ पानी पिए) मैं ट्रेन पकड़ने वाला था ।


मेरा आरक्षण सेकंड एसी के डिब्बे में था और प्लेटफार्म पर मैं बिल्कुल कोच पोजिशन के मुताबिक़ खड़ा था, परंतु प्रकृति को कुछ और ही मंजूर था । उस दिन कोच पोजिशन इंडिकेटर में गड़बड़ी के चलते मेरा डब्बा जहां आने वाला था वहां न आते हुए कहीं और ही आ गया।


दिमाग में परेशानी, पेट में लगी भूख और थके हुए शरीर को लेकर में जो डब्बा सामने आया उसमें चढ़ गया। वह डिब्बा स्लीपर का था और काफी भरा हुआ था । ऐसी भीड़ में रास्ता निकालते निकालते और करीब ७ से ८ डिब्बे पार करके मैं अपने सीट पर पहुंचा और टीसी से टिकट चेक कर, मैं जब मेरे बर्थ पर लेटा तब घड़ी में रात्रि के ११:४० हो गए थे। पैंट्री कार का स्टाफ भी सब बंद करके करीब करीब सो ही गया था। मुझे इस बात का अंदाजा हो गया था कि इस रात को मुझे भुखा ही सोना पड़ेगा।  


इंदौर जाने वाली गाड़ी छूटने के कारण और मैं दूसरी गाड़ी में सफर करने के कारण मैंने सुबह रतलाम जंक्शन उतरकर रतलाम इंदौर मेमू पकड़कर इंदौर जाने का फैसला किया।


रतलाम स्टेशन पर, मेरे होने वाले ससुरजी ने मेरे लिए ट्रेन का टिकट निकाल कर मेमू में सीट भी पकड़ कर रखी थी, परंतु परेशानी अभी भी मेरी खत्म नहीं हुई थी क्योंकि स्वर्ण मंदिर मेल का रतलाम पहुंचने का तत्कालीन समय सुबह ७:०५ का था , परंतु प्लेटफार्म उपलब्ध न होने के कारण गाड़ी को रतलाम आउटर पर आधा घंटा रोका गया , जिस कारण जब गाड़ी स्टेशन पर पहुंची तब तक रतलाम इंदौर मेमू इंदौर के लिए निकल चुकी थी। परेशानी मानो मेरा हाथ छोड़ ही नही रही थी


अब मेरे पास कोई विकल्प नहीं था आगे जाने के अलावा, ऐसी स्थिति में मैने मेरी यात्रा रतलाम तक ना करते हुए आरक्षण के मुताबिक नागदा जंक्शन तक पूरी की।


नागदा जंक्शन उतरकर,  मैंने नागदा से इंदौर तक का जनरल डिब्बे का टिकट निकाला और नई दिल्ली से इंदौर जाने वाली इंटरसिटी एक्सप्रेस पड़कर इंदौर जाने का निश्चय किया। गाड़ी को आने में अभी १ घंटा बाकी था।


पर नागदा जंक्शन पर भी एक सरप्राइज मेरी राह देख रहा था 


मैं जैसे वहां उतरा तो रेलवे द्वारा अनाउंसमेंट की गई की नई दिल्ली से आने वाली ट्रेन (ठंड और कोहरे के चलते) २ घंटे ३० मिनट की देरी से चल रही है ।


मैं मानो स्वयं को ही कोसने लग गया और यही मन ही मन यह कह रहा था कि " किस घड़ी में मैं चेन्नई से निकला और यह सब हो गया " । 


नागदा स्टेशन पर पूरे ३ घंटे ३० मिनट रहने के बाद और आने जाने वाली मालगाड़ियों को निहारने के बाद आखिरकार ट्रेन की व्हिसल सुनाई दी और नई दिल्ली से आने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर आ गई। नागदा जंक्शन में टेक्निकल हाल्ट (जो २० मिनट का था) , उसके बाद आखिरकार ट्रेन इंदौर की तरफ रवाना हुई।


रास्ते में उज्जैन जंक्शन से पहले सिग्नल न मिलने के कारण ट्रेन फिर आउटर पर रुक गई और करीब २० मिनट रुकी ही रही


मुझे अपने आप को मारने का मन कर रहा था। परेशानी, ट्रेन का छूटना, भूखा पेट, सही से नींद ना होना ऐसी कहीं सारी ऐसी वजह थी जिनके कारण मेरा संयम मानो टूट चुका था। मैं काफी हद तक थक चुका था, मानो यह हिंदी का सफर अब अंग्रेजी का सफर बन चुका था।


इस परेशानी के दौरान मैं सोचता कि अगर मेरी स्वयं की शादी नहीं होती तो मैं वापस चेन्नई निकल चुका होता वह भी मुंबई से ही !!!!!!!!


पर चाहते हुए भी यह संभव नहीं था, इसलिए मैंने अपनी यात्रा शुरू ही रखी। 


मेरी जन्मभूमि उज्जैन पहुंच कर , स्टेशन पर मैंने चाय और पोहे का आनंद लिया और मानो मुझे सुकून मिल गया । रास्ते में देवास होती हुई ट्रेन फिर इंदौर स्टेशन के आउटर पर (प्लेटफार्म खाली न होने के चलते) १५ मिनट रुकी


मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह वास्तव है या खुली आंखों से दिखने वाला दर्दनाक सपना !!!!!!


आखिरकार करीब २००० किलोमीटर की लंबी, (आंशिक)  दर्दनाक और चुनौतियों से भरी यह मजेदार यात्रा कर में दोपहर के २:०० बजे इंदौर पहुंचा ।


वह तारीख थी २८ नवंबर २०१० याने चेन्नई से निकलने के पश्चात पूरे २५ घंटे वह भी चुनौतियां भरे ।


हवाई जहाज, ट्रेन, रिक्शा ऐसी सभी सफर माध्यमों की मदद से मैं इंदौर याने अपने घर पहुंचा था


मैं जब घर पहुंचा तो ढोलक बजाकर मेरा स्वागत हुआ और क्यों ना हो मैं होने वाला दूल्हा जो था (भले पूरे रास्ते भर परेशान होते हुए आया था)।


घर आ कर, अपनी मां से मिला, शादी का माहौल देखा सभी परिजनों से मिला यह सब देखने के बाद एक अलग अनुभूति लेने के बाद धीरे-धीरे इस यात्रा के दर्दनाक यादें मैं भूलने लगा। शायद इसीलिए कहते हैं कि अंत भला तो सब भला ।


आज इस प्रतियोगिता के जरिए उन यादों को उजागर करते हुए दिल के संदूक में से निकलकर जिंदगी के क़िताब के मैंने वह पन्ने खोले हैं जिन्हें शायद मैने इतने साल समेटकर रखा था


 यह सफर मेरे लिए एक यादगार सफर इसलिए भी था क्योंकि इस सफर ने मुझे जिंदगी की कई सारे सबक सिखाएं। 

यह भी सिखाया कि जीवन में हर चीज हमारे सोच के मुताबिक नहीं होती । हम चाहे जैसी प्लानिंग करे, किस्मत की प्लानिंग कुछ और ही होती है।


आज यह अनुभव कई बार यात्रा के रूपरेखा बनाते समय मैं ध्यान रखता हूं और जीवन के कुछ पन्ने पलट कर जब मैं अपने आप को देखता हूं तो मन ही मन मुस्कुरा कर परेशानी झेलने वाले मेरे शरीर और मन की पीठ थपथपाता देता हूं ।

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