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पसीने का कर्ज



पसीने का कर्ज

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रिक्शे से उतरकर भागते हुए मालती रेलवे स्टेशन के अंदर पहुँची। रेलवे ट्रैक पर अपनी ट्रेन को खड़ी देख उसकी जान में जान आई। यह पहली बार है जब मालती अकेली ही ट्रेन में सफर करने वाली है वरना हर बार बच्चे या पतिदेव साथ होते हैं। कारण ही ऐसा है कि अचानक जाना पड़ रहा है।


दरअसल मालती को चित्रकूट जाना है। एक दूर के रिश्ते की बुआ सास के जवान बेटे की अकस्मात मृत्यु हो जाने के कारण ही मालती को जाना पड़ रहा है। बच्चों की परीक्षाएं चल रही है, पतिदेव के ऑफिस में जरुरी कार्य होने के चलते उन्हें छुट्टी नही मिली और माँ जी ( सासु जी) उम्र हो जाने के कारण लम्बी यात्रा करने में असमर्थ है इसी लिए मालती को इस बार अकेले ही ट्रेन से जाना पड़ रहा है। रिश्तेदारी का मामला है और वो भी दुःख में तो हमें हमेशा अपनों के साथ या पास में रहना चाहिए।


यूं तो कई बार मालती ट्रेन से यात्रा कर चुकी है किन्तु इस बार उसे बहुत घबराहट हो रही है। पूरे दिन रात का सफर और वह भी अकेले.......।

मालती लपकते हुए अपने रिजर्वेशन बर्थ में जाकर बैठ गई और लम्बी लम्बी सांसे लेने लगी। बोतल से निकलकर उसने पानी पिया तब तक ट्रेन ने सीटी बजा दी और आगे बढ़ने लगी। बिलासपुर से चित्रकूट पहुँचने में 24 घण्टे लगने वाले थे। मालती घर से टिफिन लेकर आई थी साथ में एक मैगजीन भी, ताकि समय बिताने के लिए कुछ साधन हो सके।

उसने फोन लगाकर पतिदेव को अपने ट्रेन में बैठने व ट्रेन रवाना होने की जानकारी दे दी। मालती के सामने की बर्थ पर एक महिला अपनी छोटी बच्ची के साथ बैठी थी। मालती ने मन में सोचा _ चलो अच्छा है यात्रा में  एक महिला सहयात्री साथ हो तो सफर कब कट जाता है पता ही नही चलता। 

मालती ने सामने बैठी महिला से उसका परिचय पूछने के साथ ही तमाम बातें कुछ देर में पूछ डाली। दोपहर के 12 बजने वाले थे। मालती को भूख लगी तो उसने टिफिन निकालकर खाना खा लिया और बिस्किट का एक पैकेट भी उसने रखा था जिसे सामने बैठी बच्ची को दे दिया। 

मालती कभी मैगजीन पढ़ती तो कभी यूं ही आंखे बंद करके आराम कर लेती, पर सामान का ध्यान आते ही झट उठ बैठ जाती। कभी मोबाइल में व्हाट्सएप फेसबुक चेक करती और कुछ देर बाद उबकर सामने वाली महिला से बतियाने लगती। बच्ची को पास बुलाकर उसे दुलारती और खेलती। इसी तरह शाम के 5 बज गए। मार्च का अंतिम महीना था। गर्मी शुरुआती दौर में थी । इस मौसम में कुछ कुछ देर में भूख प्यास लगती है। ट्रेन सतना पर रुकी थी, ज्यादातर यात्री चाय नाश्ता करने ट्रेन से नीचे उतरे थे। गाड़ी यहां बीस मिनट रुकती है। मालती का कुछ खाने का मन तो था मगर वह ट्रेन से नीचे कैसे उतरती। अगर ट्रेन छूट गईं तो लेने के देने पड़ जायेंगे। पुरुष तो चाहे जैसे भी हो भागते भागते चढ़ जाते है मगर हम महिलाएं उफ्फफफफ........! अगर इसी उम्र में भागते हुए कहीं गिर गई तो छः महीने बिस्तर में कटेंगे। 

यही सब सोच मालती ट्रेन से नीचे न उतरी। बाहर फेरी वाले भी खिड़की से हाथ ट्रेन के अंदर डाल कर अपना सामान बेचने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। हरे चने वाले , हरे मटर वाले, समोसे वाले, भेल वाले, चाय वाले, गन्ना रस वाले, किताब वाले, चूड़ियां वाले, पेन वाले आदि सभी लोग आवाजे लगा लगा कर यात्रियों को अपनी ओर लुभा रहे थे। इतनी गर्मी में मालती को चाय पीने का मन तो बिलकुल नही था। हाँ, आइसक्रीम खाने का मन जरुर था पर वहां कहीं आइसक्रीम दिखाई नही दे रही थी। 


मालती चारों ओर आस भरी नजर से देखने लगी किंतु उसे कहीं आइसक्रीम नजर न आई। इतने में ही एक औरत खिड़की से हाथ अंदर डालकर मूंगफली के पैकेट दिखाकर बोली _मैडम जी, मूंगफली ले लो?


यात्रियों की एक खास आदत होती है कि यदि उसे  खाने को मिल जाये तो सफर आराम से कट जाता है। उसमें भी मूंगफली या भुने चने हो तो सोने पे सुहागा हो जाता है। आराम से खाते हुए सफर करो। मालती ने भी एक बीस रुपए वाला मूंगफली और  पंद्रह रुपए वाला भुना चना का पैकेट खरीद लिया। मालती के पास छुट्टे रुपए न थे। एक पचास का नोट था पर उसने दिया नही, क्योंकि गाड़ी चलने का समय हो गया था और यदि वो महिला पैसे लेकर भाग जाती तो मालती कर ही क्या लेती। इसलिए मालती पर्स में छुट्टे खोजने लगी और इतने में गाड़ी चलने लगी। चाहती तो मालती पचास रुपए ही दे सकती थी पर उसने कंजूसी के कारण न दिए।


ट्रेन चल पड़ी। महिला पीछे छूट गई। मालती मन ही मन बहुत खुश हुई कि चलो अच्छा हुआ मूंगफली भी मिल गई और पैसे भी नही गए, इसे कहते है पांचों उंगली में घी होना। तभी सामने बैठी महिला जिसका नाम शांति था उसने मालती से कहा _"दीदी, आपने उसे पचास रुपए ही दे दिए होते तो अच्छा होता। बिचारी इतनी गर्मी में मेहनत कर रही थी।"



इस पर मालती बोली _" मेरे पास छुट्टे नही थे और अगर उसे पचास रुपए देती तो वो वापिस ही नही करती। आप नहीं जानती इन छोटे लोगों को, दस का माल बीस में बेचते हैं और लाभ कमाते हैं। हम जैसों को लुटते है ये लोग।"


शांति बोली _नही दीदी, ऐसा मत कहिए। मैं उस औरत को बहुत अच्छे से जानती हूं। वह ऐसी बिलकुल नही है। जानती ही नही पहचानती भी हुं।


मालती _वो कैसे...?



शांति  दर्द भरे स्वर में बोली _ उस शहर में मेरी बड़ी बहन का ससुराल है इसलिए अक्सर मैं ट्रेन से दीदी के यहां आया जाया करती हूं। लगभग तीन साल पहले की बात है। मैं सतना से वापिस कानपुर  जा रही थी। रात का समय था और मेरी ट्रेन  काफी लेट थी। सारी रात ट्रेन में कटती तब कहीं जाकर सुबह ससुराल पहुँचती। दीदी और जीजाजी दोनो मुझे छोड़ने स्टेशन आये थे। मेरे साथ मेरी मौसी की बेटी मीनू भी थी। हम सब ट्रेन के इंतजार में स्टेशन में बने चबूतरे पर बैठ गए। वहां कुछ दूरी पर ही एक महिला गर्मागर्म चाय बना रही थी। ठंड का मौसम था तो हमने उससे चाय खरीद लिया। अनायास ही मेरी नजर उसके पास लेटे एक पुरुष पर पड़ी तो मैने उससे पूछ लिया _ये कौन है और यहां स्टेशन में क्यों सोए है?


जवाब में उसने कहा _ ये स्टेशन ही मेरा घर है दीदी। ये मेरे पति है। इनकी तबियत ठीक नहीं रहती है इसलिए इनको अपने साथ ही रखती हूं।


तभी एक 10 साल की बच्ची दौड़ते हुए उसके पास आकर बोली _ माँ, वहां बहुत सारे लोग चाय मंगा रहे है। बच्ची की बात सुन वह जल्दी से चाय डिस्पोजल में डाल कर चाय देने चली गई।


ना जाने क्यों मुझे उससे बहुत हमदर्दी होने लगी थी। मैं उससे पूछना चाहती थी कि वे लोग यहां क्यों रहते है। उसकी उम्र लगभग 30 साल की रही होगी। उसे इस तरह स्टेशन में रात को यूं नही रहना चाहिए।




जब वह चाय देकर वापिस आई तो मैंने उससे पूछा _"तुम्हारा नाम क्या है बहन? तुम यहां क्यूं रहती हो? तुम्हारा घर कहां है?"


वह महिला पहले चुप रही फिर बोली _"मेरा नाम कुन्ती है दीदी। जब मैं बारहवीं में थी तभी मेरे लिए रिश्ता आया था। लड़का अच्छा कमाता था, खुद का घर, जमीन थी। शादी हो गई। शादी के साल भर बाद रिंकी आ गई। हम अपनी दुनिया में खुश थे। समय के साथ सास ससुर स्वर्ग सिधार गए। मेरे पति के दूर के एक मुंह बोले भाई ने धोखे से हमारा सबकुछ छीन लिया और हमे घर से बाहर निकाल दिया। हम कहां जाते दीदी.....? नाते रिश्तेदार तो वैसे भी हमसे दूर रहते थे। मायके में भी क्या मुंह लेकर जाते। बाबूजी हैं नही और माँ की जिम्मेदारी ही बड़ी मुश्किल से निभाती है दोनो भाभियां। हम भी आत्मसम्मनी है दीदी, मर जायेंगे पर किसी के आगे झुकेंगे नही। 


घर और जमीन खोने का जिम्मेदार ये खुद को समझने लगे और कूढ़ने लगे। इसी से इनकी तबियत बहुत ज्यादा खराब हो चली है। इनको छोड़कर मैं कहीं काम करने भी नही जा सकती इसलिए यही आ गई। यहां चाय बनाकर बेचती हूं। इसी से अभी गुजारा चल रहा है। आगे ऊपरवाले की मर्जी.....।



मैं दर्द और भावुकता के सागर में बहे जा रही थी मगर एक खुशी इस बात की थी कि उसने सड़को पर भीख मांगने के बजाय कमाकर जीने में खुशियां ढूंढी। मैं मन ही मन कुन्ती के आगे नतमस्तक हो गई और उससे 5 डिस्पोजल चाय और खरीद लिए और गर्व एवम सम्मान के साथ चाय की कीमत अदा कर दी।





ये कहते हुए शांति वर्तमान में लौट आई। उसकी आंखों से दो बूंदे टपक कर उसके हाथ में आ गिरे। यह सब सुन मालती हतप्रभ सी कभी मूंगफली तो कभी पचास के नोट को देखने लगी।



तभी शांति फिर बोली _" दीदी, आप मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों को बेझिझक ये पचास का नोट दे देती होंगी, यह सोचकर कि आपको पुण्य मिलेगा । पर क्या सच में वे इसके लायक हैं? सबके शरीर हट्टे कट्टे होते हैं फिर भी मेहनत न करके मंदिर के आगे बैठ जाते है ओर आप जैसे दानवीर उन भिखारियों को ऐसे ही पैसे दे देते हैं। हां कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मेहनत नही कर पाते जैसे वृद्ध या दिव्यांग और हमें ऐसे व्यक्ति की सहायता अवश्य करनी चाहिए।"

"लेकिन कभी भी हट्टे कट्टे भिखारियों को पैसे नही देने चाहिए बल्कि जो आत्मसम्मान से चार पैसे कमाकर दो वक्त की रोटी खाते हैं, उन्हें उनके मेहनत की कमाई अवश्य देनी चाहिए।" 


"कुन्ती ने चाय बना बना कर ही स्टेशन के पास एक झोपड़ी बना ली है। उसके पति बीमारी की वजह से ज्यादा चल फिर नही सकते इसलिए एक जगह बैठकर मूंगफली और चने बेचते हैं। कुन्ती सबके पास जा जाकर मूंगफली बेचती है। वही उसकी बेटी भी सरकारी पाठशाला से आकर अपनी माँ की तरह मूंगफली बेचती है। दिनभर कड़ी धूप में पसीने से तर बतर मेहनत कर वे रवाभिमान से जीवन जीते हैं। आपने चार पैसे के लालच में उनकी पसीने की कमाई छीन ली दीदी। अब तो आप पर उनका कर्ज हो गया।"



मालती बच्चों की तरह सुबकने लगी। जाने अनजाने उसने कितनी बड़ी भूल कर डाली। एक परिवार से उनकी रोटी छीन ली उसने। मालती अंदर ही अंदर घुटने लगी। उसने मूंगफली और चने को इस तरह सहेज कर बैग में रख दिया मानो वह हीरे जवाहरात हो। अब मालती को न दर लग रहा था न घबराहट। वह तो केवल कुन्ती के बारे में सोचती रही।



गाड़ी चित्रकूट पहुँची तो वह नीचे उतर बुआ सास के घर चल पड़ी। तीन दिनों के कार्यक्रम के पश्चात मालती वहां से बिलासपुर के लिए रवाना हुई। इस बार वह बेहद खुश थी। कारण कि वह उसी स्टेशन पर रुक कुन्ती से मिलना चाहती थी और उसकी मेहनत के रुपए उन्हें देना चाहती थी। गाड़ी रात के दस बजे सतना पहुँची। मालती तुरंत डिब्बे से उतरकर कुन्ती को खोजने लगी। पर रात का समय था वह कहां से मिलती। मालती ने कुछ दुकानदारों से भी पूछा पर उसका कहीं पता न चला। गाड़ी चलने वाली थी इसलिए वह थक कर वापिस अपनी सीट पर आकर बैठ गई। 


बैग में रखे मूंगफली और चने को वहीं सीट पर रख दिया और उसके आंखों से अश्रु धारा बह उठी। 


बिलासपुर आ गया था। मालती ने अपना सामान समेटा और ट्रेन से नीचे उतर गई। मूंगफली और चने वहीं ट्रेन में ही सीट पर रखे थे। मालती मन ही मन दृढ़ निश्चय कर चुकी थी कि अब वह कभी भी किसी से मोल भाव नही करेगी। दूसरों की मदद करेगी और कुन्ती जैसी महिलाओं से अधिक से अधिक सामान खरीद कर उनको सम्मान के साथ उनकी मेहनत की कमाई अदा करेगी। 


शायद इन कार्यों से ही कुन्ती के पसीने का कर्ज मालती के सिर से उतर जाए।। उस ट्रेन सफर ने मालती को एक नई सीख दी थी।




शिखा गोस्वामी निहारिका

मारो मुंगेली छत्तीसगढ़ 

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