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मैं शिक्षक हूँ।

मैं शिक्षक हुँ।


मैं गुरु नहीं हूं, मैं शिक्षक हुँ।

मैं द्रोण नहीं हूं,

जो शिष्यो में भेद करुं,

कौरव-पांडवो को तो ज्ञान देता

पर एकलव्य ?

उसका तो अँगूठा कटवा लेता।


मैं परशुराम भी नहीं हूं,

जो क्रोधाग्नि में जलुं,

ब्राम्हणों को तो शस्त्र शिखाता,

पर कर्ण?

उसको तो विस्मृति का श्राप देता।


मैं तो केवल एक शिक्षक हूँ,

राष्ट्र निर्माण करता हूँ।

पर न समझे साधारण मुझको,

मैं विद्या का केवल दास हुँ।

मुझे सन्मान का कोई मोह नहीं।


कलम चलाने वाले हाथों से

तलवार भी चला शकता हूँ।

इन कोमल तरुओं की टहनियों से,

नदी पर बांध बना शकता हूँ।

मुझे बाढ़ से कोई भय नहीं।


सत्ता का डर न दिखाओ मुझको,

मैं किसीका दास नहीं।

चाणक्य बन शकता हुँ मैं,

चंद्रगुप्त को सम्राट बना शकता हुँ ।

मुझे कीसी नंदवंश से आश नहीं।


हाँ मैं शिक्षक हुँ

छात्रों के दिलमें रहता हुँ।

संस्कृति का जतन करता हुँ

मुझे नई प्रणाली से कोई द्रोह नहीं।


मैं गुरु नही, मैं शिक्षक हुँ।


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