भगतसिंह
भगतसिंह
23 मार्च की शाम अचानक, सतलुज में उफान चढ़ा।
न बारिश थी, न बांध टुटा, ये बाढ़ कहाँ से आ गई ?
मीठा जल सतलुजका अचानक खारा कैसे हो गया?
आँसु थे शायद उसके, जो शैलाब बनकर घूंट गए।
डर चुके थे अंग्रेज़ सारे, नींव हिली थी प्रसाशन की
दबा दिया उन नारों को, जो गुलामी के खिलाफ उठे थे
काँपा था साम्राज्य जो मुफ़लिसों को दबाते थे,
धमाके से खोल कान, पर्चे यलगार वाले बाँटे थे।
आज़ादी के मतवालोका डर उनमें इतना फैल गया,
फाँसी पर भी विश्वास न था, तब शवों को काटा था।
इतने पर भी शांत न हुए, जलाया सतलुज किनारे पर,
बहा उन अधजले अंगो को, कायर सारे भागे थे।
रक्त नहीं था वह लावा था, जो उन रगों में दौड़ा था,
घुलकर रक्त "बिंदु" जल में अब, ज़र्रे ज़र्रे में फैला था।
इसी लावा के कारण, सतलुज का पानी उफान चढ़ा,
फांसी तो सिर्फ देह को मिली,लहू अब हर वीर में था।
चरखा तब भी मौन था, ये कैसा आंदोलन था?
एक ही लक्ष्य की प्राप्ति में, विचारों में असहयोग था।
अपनों ने ही छला हर दम, देश का दुश्मन कहाँ गैर था?
सत्ता की भूख थी उन्हें, अंग्रेज़ से ज्यादा अपनो से बैर था।
सच्चे सपूत क्रांतिकारी थे तुम,पर आतंकी कहलाए गए,
भगत तुम सिंह थे, सियारों की चाल से मारे गए।