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‘लाखों में एक थी मेरी अम्मीजान’ - शहनाज सुल्तान अहमद

गुलमोहर वाली खाला...

फलों से लदा बग़ीचा सजाया।

पड़ोसी सहेलियों के लिए पूजा के फूल इकट्ठा करती...

दिनभर पान खाती बगीचे में गलबगिया करती...

सारे ख़ानदान को लेकर चलती...

माथे पर शिकन तो आज़माये...

सच में ऐसी ही थी...

‘थी’ नहीं ‘है’... मेरे घर में... मेरे किचन में...

मसालों में, अचारो में, जेम-जैली में, अनाज के रख-रखावन में...

खाने में, डायनिग टेबल के मेन्यू में...

सब दूर छुपी है, पर दिखाई नहीं देती...

सच में मेरी अम्मीजान लाखों में एक...

सारे घर में बिखरी पड़ी हैं...

जिस कमरे में जाऊँ अम्मी नज़र आती हैं...

मेरी पेंटिंग में, मेरी क़सीदाकारी में...

मेरी चादरें, मेरे तकियो में... मेरे कुशन्स में...

मेरी पैनल में, दिवारों में...

दस्तरख़ान में...

घर के हरेक कोने से उसकी परछाई नज़र आती है

ज़िन्दगी में इतना कुछ...

उसकी क़ीमत

कैसे चुकाएँ...?

 

पापा के कंधे-से-कंधा मिलाकर खड़े होकर उनका

साथ दिया... आठ भाई-बहनों की परवरिश की...

घर-परिवार सुख-दुःख में चलाया...

क्या-क्या माँ का इतिहास बताऊँ...

पाँच क्लास पास थी...

बच्चों को एम ए, एमएससी, इंजीनियरिंग कॉलेज की पढ़ाई करवाई...

मुग़ल-साहित्य पढ़ने और उर्दू भाषा की जानकारी रखती थी सब माँ 

 

चलता-फिरता एनसायकलोपिडिया थी।

क्या-क्या नहीं सिखाया

सच में लाखों में एक थी

मेरी प्यारी अम्मीजान

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