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काश ! उस समय मोबाइल होता --डॉ संध्या जैन

     पाठशाला शब्द सुनते ही मन मुदित हो जाता है और मेरी पाठशाला तो और भी अपनेपन का एहसास कराती है ।
      मकान की नींव  मजबूत हो तो पूरा मकान पक्का व अच्छा बनता है । ठीक उसी प्रकार शिक्षा की नींव  मजबूत हो तो शिक्षा रूपी भवन विद्यार्थी की ज्ञान शिला बन जाता है ।पाठशाला ऐसा ही भवन है जहां विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास होता है ।
         आज वर्षों बाद यानी लगभग 56 वर्षों पूर्व कि अपनी पाठशाला को याद करती हूं तो मन बाग - बाग हो जाता है । सोचती हूं कि यदि उस समय मोबाइल का जमाना होता तो न जाने कितने ही फोटो अपने बच्चों व परिचितों को दिखाकर अपनी स्मृतियों को तरोताजा कर खुशियों के रंग बिखेरती । पर हाँ उस समय कैमरे से ब्लेक एंड व्हाइट फोटो तैयार किए जाते थे । कुछ का इक्का - दुक्का मेरे एल्बम में भी है अमूल धरोहर के रूप में ।
        मेरी पाठशाला का परिवेश ही अलग होता था । घर से तैयार होकर बस में बैठना खिड़की के पास जगह मिल जाए तो क्या कहने।  बस में कंडक्टर का अनुशासन बच्चों को मुंह पर उंगली रखकर बैठने की हिदायत दी जाती थी । बच्चों को बात करने , शोर मचाने , मस्ती करने के लिए मना किया जाता था ताकि ड्राइवर को गाड़ी चलाते वक्त परेशानी ना हो ।


        स्कूल आते ही बस का सफर खत्म होता तो बस से उतर कर अपनी कक्षा में निर्धारित डैक्स पर कंधे से अपना बस्ता उतारकर रखती जिसमे करीने से विविध विषय की पुस्तके कवर चढ़ी हुई कॉपियां होती थीं । एक रफ कॉपी भी ,  इसके कई भाग विषय के रूप में बंट जाते थे । पूरा कंपास जिसमें रबर - पेंसिल - पेन - शॉर्पनर होते थे । हम पांचों भाई - बहनों के बस्तों  पर पिताजी में चित्रकार संतोष जड़िया से कलात्मक तरीके से नाम लिखवा दिए थे । ऐसे में हमारा बस्ता अलग ही दिखता था ।
         पहली घंटी बजते ही कक्षा के बाहर  कद की उचाई के अनुसार लाइन बनाकर प्रार्थना स्थल तक जाते । आंखें मूँद कर सच्ची प्रार्थना करना तो जैसे वहीं से सीखा । 
        व्यायाम , खेल , प्रार्थना के साथ ही पढ़ाई भी  । खेल के मैदान में भी अनुशासन होता था ।इसी में बंध  कर लंगड़ी , घोड़ा बदाम छाई , टीपी - टीपी टो , नदी - पहाड़ जैसे सामूहिक खेलों के साथ ही झूले , फिसलपट्टी , चकरी आदि का भी मजा लेते ।
         नलों में शुद्ध पानी मिलने पर घर से नहीं ले जाना पड़ता था । अपनी ओक से पानी पीने का अंदाज ही निराला था । नाश्ते की घंटी बजने पर नाश्ता हाल में पंक्तिबद्ध हो कर जाते । एक के पीछे एक जिसे आज की भाषा में कहे तो वीर सैनिक अनुशासनबद्ध चले जा रहे हो । दूर से ही अच्छे रास्ते की खुशबू भी भूख बढ़ा देती ।छहो दिवस का अलग-अलग स्वादिष्ट नाश्ता बनता । नाश्ता क्या भर पेट जितना खाना हो खाओ ,  बशर्ते झूठा ना छूटे । स्वावलंबन का पाठ यहां भी सीखा ।  तैयार एक जैसी थालियों में सजा नाश्ता लेकर हॉल में बिछी हुई टाटपट्टीयों पर बैठते ।  यहां भी खाने के पहले छोटी प्रार्थना आँख मूँद कर , हाथ जोड़कर , आलथी - पालथी मारकर एक स्वर में करते । खाने के पश्चात अपनी थाली भी नियत स्थान पर स्वयं ही उठाकर रखनी होती थी । शिक्षिकाओं को इतनी कड़ी निगरानी कि एक बच्चा भी ना तो झूठा छोड़ता और ना ही कभी भूखा रहता । वार के अनुसार नाश्ता तय था । मुझे आज भी याद है दाल - चावल , सब्जी - पूड़ी -  हलवा , भजिए , सेंव - पोहे विविध फल  उस दिन पूरी थाली में फल ही होते थे ,  ऐसे बच्चों के लिए जो आज ही फल खाने में कतराते हैं या बस मनपसंद फल ही खाते हैं । एक अच्छी सीख मिलती थी की सभी फल खाना चाहिए और स्वस्थ रहने के लिए फल भी कितने जरूरी है ।
        इतना ही नहीं एक पीरियड  हस्तकला का भी होता था । रंगीन कागज से फूल बनाना ,  चटाई बनाना , जंजीर , झालर , माचिस के खोखो से सोफा सेत व मोटे गत्तों से चप्पल , मकान आदि बनाने की कला आज ही स्मृति पटल पर है । अब सोच रही हूं कि पोते के बड़े होने पर उसे भी ये सब सिखा दूंगी । यही तो है दादी अम्मा का भी अनुभव । इसी श्रंखला में गीत - कहानी - नृत्य , नाटक आदि भी सिखाए जाते थे । अच्छा प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों का चयन वार्षिकोत्सव के लिए होता था । मैं भी ऐसी भाग्यशाली विद्यार्थियों में से थी । महीनों रिहर्सल   होती थी । छुट्टी वाले दिन हमारे लिए अलग से बस आती थी , अलग से नाश्ता बनता था । "या कुन्देन्दु तुषार हार धवला "  " भारत माता तेरा आंचल " हरा-भरा , धानी - धानी जैसे कि गीत - नृत्य तो आज भी याद है , सुनते ही पैर थिरकने लगते हैं । 
         शुद्ध व सुंदर लेखन की बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है लगता है , आज भाषा में व्याकरण की अशुद्धियों का न होना इसी का फल है ।
       बहुत कुछ और भी है - - -  पर सार रूप में यह तो जरूर कहूंगी की शिक्षा के मंदिर में नैतिक मूल्य  ,सदाचार व निर्मल जीने की कला के साथ ही विद्यार्थी का शारीरिक , मानसिक , बौद्धिक व सामाजिक यानी सर्वांगीण विकास होता है । 
        नॉट -  यह संस्मरण लगभग 55 वर्ष पूर्व का है । इंदौर के बाल विनय मंदिर , छत्रीबाग का है ।
 9893164637

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