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इंदौर वासियों की देन है हिंदी - रानी नारंग

 
मुझे आज भी याद है मैं अमृतसर में अपने बड़े भाई  का हाथ पकड़ स्कूल जाया करते  थी मैं दूसरी में और भैया आठवीं में पढ़ते थे, नीचे की मंजिल पर कानों का अस्पताल था और ऊपर स्कूल था, अक्सर बचपन में बच्चे गोल मटोल हुआ करते हैं तो मैं भी वैसी ही थी और उस पर मेरी मां मुझे अलग-अलग डिजाइन की फ्रॉक पहना कर भेजती थी।

           उस समय पढ़ाई की अहमियत तो इतनी नहीं मालूम थी पर स्कूल जाना अच्छा लगता था क्योंकि स्कूल में सभी शिक्षक  शिक्षिका मुझे अपने पास बुलाते दुलार करते और कुछ ना कुछ खाने को देते  क्योंकि बच्चों को प्यार और खाना अच्छा लगता है। हम बच्चों को ब्रेक में नीचे उतरने की इजाजत नहीं थी तो दो लड़के कुछ खाने पीने की चीजें क्लास में ही बेचने आते थे और उनके पास भी जो बच जाता मेरी गोदी में डाल कर चल देते और मैं क्लास में खाती रहती इस कारण कुछ खाने से ज्यादा ही लगाव हो गया।

            फिर पिताजी ने काम धंधा दिल्ली में कर लिया और हम दिल्ली आ गए और तीसरी क्लास में दिल्ली के स्कूल में दाखिला लिया। जोकि सिर्फ लड़कियों का ही स्कूल था और पांचवी तक एक ही अध्यापिका पढ़ाती थी। उनका नाम शांति था जैसा नाम था वैसे ही खुद थी, बहुत सादगी में रहती थी और मैं उस स्कूल से 11वीं पास करके ही बाहर निकली तब भी जब भी शांति मैडम से मुलाकात होती बहुत प्यार से मिलती।

           हम स्कूल में पेम पट्टी ले जाते थे और एक लकड़ी की  तख्ती भी होती थी जिस पर लकड़ी की ही कलम से स्याही में डुबोकर श्रुतलेख लिखकर लिखाई सुधारी जाती थी और फिर उसको मुल्तानी मिट्टी से पोचा जाता था तो हमारे तो कपड़े स्याहीऔर मिट्टी में ही सने रहते थे।

           धीरे धीरे पढ़ाई का महत्व समझ आने लगा और मुझे सबसे अच्छा विषय गणित लगता था मैं हमेशा गणित में मैडम से एक  अध्याय पहले करके रखती थी अगर किसी सवाल में कोई परेशानी आए जब तक वह सुलझ ना जाए रात को नींद ही नहीं आती थी फिर छठी में एक नया विषय अंग्रेजी आया जिसको की रटकर ही पास करती थी और उस समय हमें हर विषय की अलग  अध्यापिका  पढ़ाती  थी एक अध्यापिका जो की गृह विज्ञान की बहुत तेज थी और सभी बच्चे उनसे बहुत डरते थे मैं भी,पर ना जाने एक दिन मन में क्या आया, मैंने सोचा इनको तो अपनी दोस्त बनाना ही है, फिर धीरे-धीरे उनसे डर खत्म हुआ और उनके विषय में भी मैं अच्छी थी तो वह मुझे पसंद भी करने लगी तो धीरे-धीरे उनसे दोस्ती हो गई। जिनसे कि मैंने अभी दो साल तक अपनी बात जारी  रखी जब भी मैं उनको फोन करती तो एक ही बात कहती कि मैं तेरे को कभी भूल नहीं सकती और बहुत खुश होती,

            हालांकि अध्यापिका तो सभी बहुत अच्छी थी और मैं विद्यार्थी भी, कोई कोई विषय में ठीक-ठाक थी जैसे की अंग्रेजी और हिंदी नौवीं में जब विषय  चुनने को कहा गया तो मैं गणित पढ़ना चाहती थी पर मेरे सिवा कोई और गणित विषय लेना नहीं चाहता था और प्रिंसिपल का कहना था कि आप तीन विद्यार्थी और ले आओ तो मैं एक अध्यापिका गणित की भी रख लूंगी पर कोई विद्यार्थी गणित लेने को तैयार ना था  और पिता जी स्कूल बदलने को तैयार ना थे, फिर मैंने अपना मन बदला  और क्योंकि मुझे  हिंदी साहित्य में पढ़ना कठिन लगता था  तो मैंने हिंदी छोड़ पंजाबी भाषा को चुना  क्योंकि एक तो यह मेरी मातृभाषा थी दूसरा खालसा स्कूल होने की वजह से अध्यात्म  में रुचि भी बहुत  रही और हमें धार्मिक विषय भी लगता था  वह भी मेरा मनपसंद था,

           यादें तो बहुत हैं पर अभी इतनी ही बस। मेरे लिए आश्चर्य की बात तो यह है की मैंने शादी से पहले ना तो हिंदी पढ़ी और ना ही बोली फिर भी आज हिंदी में लिखती हूं बोलती हूं पढ़ती हूं यह सब इंदौर वासियों की देन है जबकि मैंने पंजाबी में ही एम ए और एम फिल की हुई है।

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