शिक्षा के साथ परिस्थितियों से लड़ने के गुण भी सिखाए - मुन्नी गर्ग
ब्यावर राजस्थान में राजकी माध्यमिक विद्यालय डिग्गी मोहल्ला में पढ़ी। पहले पाठशाला कहते थे अब स्कूल कहते हैं ।मेरे स्कूल में सिर्फ लड़कियां ही पढ़ती थी। हर क्लास में लगभग 30 बच्चे थे। बहुत बड़ा स्कूल तो नहीं मगर दो मंजिला पुराने टाइप का 25 कमरों का एक असेंबली हॉल कवर वाला जहां दो कक्षाएं लगती ऑफिस कार्यालय गेम्स लाइब्रेरी विज्ञान सिलाई प्याऊ व बाथरूम बने थे। चौकीदार का एक छोटा सा कमरा था। स्कूल के कमरों के बाहर बरामदा व डोली उस पर कुछ गमले रखें रहते । एक पेड़ भी था जहां तक मुझे याद है नीम का पेड़ था।
सभी स्टाफ अपनी लगन से कार्य करतें। बच्चों को खूब मेहनत से पढ़ाते रिजल्ट भी अच्छा रहता। टीचर को उस समय बहन जी कहते थे प्रधानाध्यापिका का व्यवहार बहुत ही अच्छा वह प्रेम पूर्ण था। उनका सभी से काम करवाने का तरीका अनूठा था।
हां तो अब मैं अपने स्कूल के बारे में बताती हूं ।मैं पहली कक्षा में स्कूल गई खूब रोए थोड़ी देर बैठी रही ।फिर कामवाली बाई के साथ घर भिजवा दिया ।कुछ दिनों में रोज स्कूल जाने लगी वहां। टाट पट्टी ( छोटी लंबी दरी ) पर बैठते थे। दीवार में काला ब्लैक बोर्ड था थैले में स्लेट पेंसिल लेकर जाते थे। कभी बहन जी डांटती थी तो बैठे-बैठे डर के मारे कपड़े गीले हो जाते ।वहां से उठते ही नहीं फिर आकर बाई उठाती दरी साफ करती वह हमें घर पहुंचा देती क्योंकि घर पास में ही था।
जब छठी कक्षा में आई तो लाइट ब्लू कलर की फ्रॉक ,लाल रिबन, दो चोटी ,काले जूते यही हमारी यूनिफॉर्म थी। बस्ते ( थैली ) में किताबें काफिया पेंसिल - रबर - कटर । हाथ में दो स्लेट एक स्लेट पर 1 से 100 तक गिनती फिर 100 से 1 तक उल्टी गिनती, 40 तक पहाड़े। दूसरे स्लेट में एक तरफ सुलेख दूसरी तरफ अक्षर स्वर ,व्यंजन ,बाराखडी सभी शब्दों की लिखना जरूरी था। स्लेट में ऊपर दो छेद होते उसमें डोरी बंधी रहती लटकाकर बड़ी संभाल कर ले जाते ।टिफिन में एक छोटा सा कटोरदान होता उसमें रोटी व अचार होता ।कभी - कभी दूसरे कटोरदान में नुक्ती - चक्की - इमरती - जलेबी - पकौड़ी होती ।जब कोई शादी ब्याह होता या लावणा आता था हम चारो सहेलियां एक साथ खाना खाते खूब मजा आता ।कभी कोई सहेली खाना नहीं लाती तो हमारे साथ खा लेती। हम देखते कक्षा की कोई लड़की अकेली बैठी है व टिफिन भी नहीं है, तो उसे बुला लेते व साथ में खाना खिलाते। यदि कभी किसी लड़की की तबीयत खराब होती तो उसे पकड़ कर ले जाते। घर तक उसका बस्ता भी दूसरी लड़की उठाती। बीमार लड़की बड़ी नाजुकता से चलती व मन में इतराती देखो सब मेरा ध्यान रखती है ।
उस समय हमें खर्चे के लिए एकन्नी मिलती थी ।हम सब एक दिन एक लड़की की खर्ची दूसरे दिन दूसरे की ।इस प्रकार खर्चा करती। स्कूल के बाहर बोर, इमली ,आलू की चाट ,कचोरी खाते और बेचने वालों को काका जी बबुआ जी कहते थे। कभी-कभी तेल के बनने वाले वहां के स्पेशल पापड़ भी खाते थे।
बहन जी की कोई परिचित की लड़की होती तो वे उसे घर बुलाकर पढ़ाती। वह परीक्षा के समय वीआईएमपी बताती कक्षा में हमें आई एम पी बताती ।मगर हम भी चालाक से मीठी-मीठी बातें करके सब पता कर लेते थे। इस प्रकार हम आगे आठवीं कक्षा में आ गए।
अब तो बड़े मजे हैं। हमारी विदाई समारोह भी था। हम दूसरे स्कूल में जाने वाले थे। खूब अच्छे कपड़े पहन कर गए खूब गाने गाए कचोरी व नुक्ती का नाश्ता किया । फिर सभी बहन जी के पांव छुए । सातवीं व आठवीं की लड़कियों से गले मिलकर खूब रोये । बिछड़ने का दुख जो था। हम बड़े हो चुके थे। व समझने भी लगे थे। हमारी बहनजी हमें सचेत करती कि यदि रास्ते में तुम अकेली कहीं जा रही हो व कोई लड़का परेशान करे तो तुम चप्पल से या हाथ की मुक्कि से नाक पर मार देना । वह नाक संभाले तब तक तुम भाग जाना या शोर मचा देना ।
यानि शिक्षा के साथ-साथ परिस्थितियों से लड़ने के गुण भी सिखाती। स्कूल में बड़ा मजा आता था। आज भी जब पीयर जाती हूं तो स्कूल की तरफ जाना हुआ तो पुराने दिन याद आ जाते हैं ।कई बार अंदर जाकर देखती भी हूं मगर परिवर्तन प्रकृति का नियम है। वह तो है ही। मगर हमारी यादें आज भी वही पुरानी है ।जैसे व्यक्ति अपना पहला प्यार नहीं भूलता। वैसे ही मैं भी मेरे स्कूल को नहीं भूलती। आई लव यू बचपन का स्कूल
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