बाल पत्रिकाएं पढ़कर पठन-पाठन की प्रवत्ति जागृत हुई - निशा चतुर्वेदी
कोई मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज की कश्ती वो बारिश का पानी
यह गीत जब भी गुनगुनाती हूं तो अपने बचपन की यादों में गुम हो जाती हूं । सोचती हूं कोई लौटा दे मुझे वो बीते हुए दिन , जिसमें न कोई तनाव न कोई जिम्मेदारी है और न कोई प्रतिस्पर्धा थी । बस , बचपन की मासूमियत , नादानियां , सच्चा मन , भोलापन , हंसना , खेलना , शैतानियां और मस्ती थे । मैंने अपना बचपन , बचपन की तरह ही जिया । रोटा पानी , गुड्डे गुड़ियों के संग खेलना , बालू रेती और मिट्टी के घर बनाना , कागज की कश्ती बनाकर वर्षा के पानी से भरे गड्ढे में उसे छोड़ना , कागज के राकेट बनाकर उसे पूरा जोर लगा कर आकाश में उड़ाना, रंग बिरंगी तितलियों के पीछे भागना और उसे पकड़ने का प्रयास करना , बगीचे में झूला झूलना , फिसल पट्टी पर फिसलना, लकड़ी की छोटे-छोटे पहियों वाली गाड़ी को पकड़कर , ठुमक-ठुमक कर चलना , कागजों पर रंगीन चित्रों को उकेरना आदि गतिविधियों में लिप्त रहना ।
पापाजी का सख्त अनुशासन , मम्मी जी की डांट फटकार के साथ समझाइश , संयुक्त परिवार की छत्रछाया , दादी - नानी की प्रेरक कहानियां , मीठी लोरियां ,मित्रों के संग खेलना कूदना व शैतानियां , भाई बहनों के साथ स्कूल की शिक्षा दीक्षा, बरसात के मौसम का आनंद , मोहल्लों व बाड़ा संस्कृति आदि - यह मेरी बचपन की पाठशाला के छोटे-छोटे अध्याय थे जिन्हें पढ़कर मैं धीरे-धीरे बड़ी होती गई और मुझे पता ही नहीं चला ...।
पापाजी के सख्त अनुशासन से बचपन के हर कार्य व्यवस्थित करने की आदत बनती चली गई । पापाजी बस आंख उठाकर देखते और हम उनके मन के भाव समझ जाते थे कि वह हमारे किस कार्य से खुश हैं और किस कार्य से नाखुश । जो उन्हें पसंद नहीं होता वह कार्य हम फिर दोबारा करने की हिम्मत भी नहीं करते थे । यूं तो बचपन में उनके साथ गुजारे अनगिनत किस्से और संस्मरण से मेरा बचपन संवरता और निखरता गया । शुद्ध हिंदी और सुंदर लेखन पर उनका बहुत जोर होता था । उन्होंने खाली पेजों को मोटे धागे से सिलकर अपने हाथों से एक कॉपी हमें बना कर दी थी, जिस पर बड़ी निप वाला पेन को नीली स्याही की बाटल में डूबे डुबोकर हमें एक पेज पर प्रतिदिन शुद्ध लेखन करना होता था । वह प्रतिदिन नियम से उसका निरीक्षण भी किया करते थे । यदि एक भी अक्षर अशुद्ध होता और लेखन भी सुंदर ना होता तो फिर बस खैर नहीं ! इसी तरह कई अच्छी बुरी आदतों के लिए उन्होंने डाटा तो प्रोत्साहित भी किया । उस समय जरूर गुस्सा आता था परंतु धीरे-धीरे अपनी समझ के साथ-साथ पापाजी का सख्त अनुशासन भी समझ में आने लगा ।
मम्मी की डांट फटकार व समझाईश- बचपन में यदि शैतानियां उधम मस्ती न की तो बचपन ही क्या ? हम पांचों भाई बहन ,आसपास की मित्र मंडली सभी मिलकर बहुत मस्ती करते और हमारी शैतानियां ऐसी होती थी कि बाद में मम्मी की बहुत डांट फटकार पढ़ती थी । मां तो मां होती है। अक्सर हमारी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश करती थी । पर जब पानी सिर से ऊपर निकल जाता तो शिकायत पापाजी तक पहुंच जाया करती थी । फिर क्या ? जब मम्मी का गुस्सा उतर जाता तो मुझे समझाती और जिम्मेदारियों का अहसास भी कराती । मम्मी प्राइमरी स्कूल में टीचर थी । उन्हें छोटे बच्चों को खेल-खेल में जीवन में संस्कारों का पाठ पढ़ाने की अच्छी आदत थी । मेरी शैतानियां व मम्मी की डांट फटकार की भी एक लंबी फेहरिस्त है ।
संयुक्त परिवार होने से हमेशा बड़े बुजुर्गों की छत्रछाया हमारे सिर पर रही । बड़े लाड प्यार और दुलार से हमारी परवरिश हुई । आपस में मिलजुल कर कार्य करना , सुख दुख में एक दूसरे के लिए खड़े होना , हर चीज बांट कर खाने की आदत थी । बड़ी दीदी के कपड़े छोटे होने पर मैं उसे बड़े प्रेम से पहनती थी और मेरे बाद मेरी छोटी बहन । इसी तरह हर सामग्री का बराबर उपयोग होता था । एक ही बड़े कपड़े में हम तीनों बहनों के एक जैसे कपड़े सिलते थे। मोहल्ले के बच्चे हमें बैंड बाजा पार्टी चिढ़ाते। बहुत गुस्सा भी आता था । बड़ी दीदी छोटे भाई बहनों का ध्यान रखती। आपस में तालमेल , सुरक्षित बचपन और परिवार की ताकत - संयुक्त परिवार का ही परिणाम थी ।
बाड़ा और मोहल्ला संस्कृति - बचपन में हमारा परिवार एक बहुत बड़े बाड़े में रहता था , जिसमें करीबन 10 - 15 किराएदार रहते थे । जगह बहुत छोटी थी मगर दिल सभी के बड़े थे । ऐसा लगता था मानो पूरा बाड़ा एक संयुक्त परिवार की तरह है । बाड़े में मराठी ,मालवी , गुजराती , निमाड़ी, राजस्थानी आदि विभिन्न भाषी परिवार के लोग रहते थे । बाडे में हम उम्र के बच्चे भी बहुत थे । दिन भर हमारी उधम मस्ती चला करती थी । हम सभी तीज त्यौहार एक साथ मिलजुल कर मनाते थे । दीपावली के समय बाड़े के सभी बच्चे एक साथ मिलकर पटाखे फोड़ते , खेलते कूदते । एक दूसरे को देख कर मैं भी बहुत सारी अच्छी बातें सीखते चली गई । मन में एक दूसरे के प्रति न द्वेष ,न ईर्ष्या और नहीं आपसी प्रतिस्पर्धाए थी । बाड़े में पारिवारिक वातावरण था । मुझे अच्छी तरह से याद है ,मम्मी भी अन्य महिलाओं के साथ मिलजुल कर कुल्लई ,बड़ी पापड़ बनाती। गेहूं किसी के भी घर के हो सभी साथ में बैठकर गेहूं बिनते थे । अपने अपने घरों में बने विभिन्न प्रकार के व्यंजनों को रोज आदान-प्रदान होता रहता था ।
हम लोग जिस मोहल्ले में रहते थे वहां पर गणेश उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था । श्री गणेश स्थापना से लेकर विसर्जन तक मोहल्ले में अलग-अलग प्रकार की गतिविधियां व प्रतियोगिताएं होती थी , जिसमें बाड़े के अलावा पूरे मोहल्ले की मित्र मंडली बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थी । रस्सी कूद , नींबू रेस ,तेज दौड़ ,सुगम संगीत , रंगोली ,डांस आदि प्रतियोगिताएं आयोजित होती थी । जिसमें सभी अपनी अपनी तरफ से प्रयास करते थे कि वे जीते परंतु यदि वे हार भी जाते तो किसी भी प्रतियोगी बच्चे में बदले की भावना नहीं होती थी और न ही किसी बच्चे पर अभिभावक का दबाव रहता था कि उसे प्रथम पुरस्कार ही मिलना चाहिए । जिसे भी पुरस्कार मिलता सभी उसे सहर्ष स्वीकार करते थे । स्वस्थ प्रतिस्पर्धा से सभी के मन भी आपस में खुले हुए थे । किसी भी बच्चे में असफल होने पर न निराशा का भाव और नहीं एक दूसरे को नीचा दिखाने का भाव था । बाड़ा व मोहल्ला संस्कृति का मेरे बचपन की पाठशाला में बहुत बड़ा योगदान रहा है ।
मित्र मंडली के संग खेलना कूदना - स्कूल से आने के बाद बस्ता फेंकना और दिनभर हंसना खेलना और उधम मस्ती करना और यदि स्कूल की छुट्टी हो तो फिर क्या बात ? बचपन में हम सभी मित्र मंडली बंदी साखली , छिपाछाई ,गुल्ली डंडा ,नदी लिया कि पहाड़ ,डब्बा डुरिया ,आंटी ,अंग मंग चौक चंग पे , पांचे , लंगडी ,आंख मिचोली , कैरम , शतरंज ,ताश आदि इस तरह के खेल खेला करते थे। जिससे शारीरिक और मानसिक दोनों का विकास होता था । साथ ही सामूहिक खेल खेलने से एकता की भावना भी जागृत होती थी । दादी नानी की राजा रानी ,परियों ,कछुआ खरगोश, चंदा मामा ,चांद तारों की प्रेरक कहानियों से बहुत प्रेरणा और ऊर्जा मिलती थी। स्मरण शक्ति भी मजबूत होती थी । मन में अनेक जिज्ञासा होती थी जिसका समाधान परिवार के बड़े लोग किया करते थे । मां की मीठी लोरियां - बचपन में कितने भी थके हुए होते थे परंतु जब तक मां की मीठी लोरियां नहीं सुनते जब तक मीठी नींद भी नहीं आती थी । फिर गहरी नींद के साथ बड़े-बड़े सपने जो आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे ...।
स्कूल की शिक्षा दीक्षा में सबसे अहम भूमिका गुरुओं की रही उन्होंने जो बचपन में नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाया वह आगे तक काम आया। स्कूल की सामूहिक प्रार्थना से मानवता , इंसानियत की भावनाएं प्रबल हुई । राष्ट्रगान , राष्ट्रगीत से देश प्रेम जागा । एक कतार में लगकर पीटी करना ,लेझीम ,डंबेजऔर अन्य गतिविधियों में हिस्सा लेकर अपनी भागीदारी सिद्ध करने से व्यक्तित्व विकास में काफी काफी मदद मिली । स्कूल के सहपाठी भी एक दूसरे को अपनी कॉपी ,पाठ्यपुस्तके , पेन, पेंसिल आदि देने में सहयोग करते थे । खुले मैदान में एक साथ बैठकर टिफिन खाने का आनंद ही कुछ और होता था ।
घर का वह बीडी बटका- स्कूल से घर पहुंचते ही सबसे पहले बस्ता पटकने और रोटी पर तेल ,नमक , मिर्ची डालकर या फिर अचार का मसाला लगाकर बीड़ी बटका बनाकर बड़े चाव से खाते । जलती सिगड़ी में आलू ,रतालू डाल देना और उसे भून कर खाना - बचपन का वह स्वाद अब कहां ? उस समय न तो कोई प्रदूषण और ना ही एलर्जी का खतरा था ।
बाल पत्रिकाएं - उस समय पराग , नंदन ,लोटपोट , चंपक , चंदामामा आदि बाल पत्रिकाएं प्रकाशित होती थी ।उन्हें पढ़कर पठन-पाठन की प्रवत्ति जागृत हुई । साथ ही हिंदी भाषा का भी विकास हुआ । इन बाल पत्रिकाओं में जो प्रेरक कथाएं , कविताएं , प्रसंग होते थे उनसे मेरे बाल मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता था । यह पत्रिकाएं भी हम सभी बच्चे एक दूसरे से लेकर पढ़ते थे । गर्मी की छुट्टियों में इन्हीं बाल पत्रिकाओं का वाचनालय भी खोलते जिसमें 5 - 10 पैसे शुल्क लेकर पत्रिकाएं एक दिन के लिए पढ़ने को देते थे । इस कार्य में भी बड़ा मजा आता था । एक दूसरे की होड़ में हम सभी बच्चे सभी बाल पत्रिकाएं पढ़ लिया करते। फिर एक दूसरे से उस पर विचार विमर्श करते थे ।
बरसात के मौसम का मजा - सबसे अधिक मौज मस्ती इसी मौसम में होती । बादल छाते ही बाहर निकल कर चिल्लाना , पानी बाबा आजा ककड़ी भुट्टा लाजा , भोलापन इतना कि इस तरह से चिल्लाने पर पानी सचमुच ही आ जाएगा ....! पानी गिरते ही कपड़े निकाल कर भीगना , तब घर के बड़े बुजुर्ग भी यही कहते थे कि जाओ बारिश में नहा लो शरीर की सारी घमोरियां इससे चली जाएगी । बरसाती होते हुए भी उसे नहीं पहनना और भीग कर आने में जो मजा आता था ,उसकी उसका एहसास कुछ और ही था।
पानी से भरे गड्ढों में कागज की नाव छोड़ना और फिर उसे डगमग करते अपनी मंजिल तक पहुंचते देखने में ताली बजाकर अपनी जीत का जश्न मनाना । पानी से भरे डबरों में पेड़ डालकर छप छप करना । मेंढकों की टर टर , कोयल की कूक की आवाज की नकल बनाना जैसे अनेकों किस्से बरसात के मौसम में याद आते हैं । यही तो बचपना है जिसे जीने का अंदाज ही निराला था ।
बचपन की पाठशाला का समग्र जीवन में बहुत महत्व होता है । यह किसी भवन की नींव की माफिक होता है । जैसा कि कहा जाता है ,नींव जितनी मजबूत होती है , इमारत भी उतनी ही बुलंद होती है । इस तरह बचपन की पाठशाला से विविध आयामों के साथ बुनियादी तौर पर जो जो सीख और नसीहत हमें मिलती है , हमारा जीवन भी समग्र दृष्टि से हर क्षेत्र में मजबूत होता चला जाता है ।
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