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‘ओ मेरी प्यारी माँ’ - डॉ पुष्पा रानी गर्ग

माँ यह जेठ का सूरज

अभी से बरसाने लगा था अंगारे

कि एक टुकड़ा बादल का

आ गया उसके सामने

मुझे लगा,

तुम ही छाया कर रही हो

मेरे सिर पर अपने आँचल से

शीतलता पहुँचा रही हो मुझे

माँ, कल रात

तेज़ बुखार में तप रही थी मैं

‘माँ... माँ...’ कर पुकार रही थी तुम्हें

कि अचानक महसूस हुआ

ठंडी हथेली का स्पर्श माथे पर

और फिर बुखार भी

उतरने लगा धीरे-धीरे

सुनो माँ!

आज एक गुलाब

खिला है मेरे गमले में

और तुम्हारे आँचल की

खुशबू फैल गई है मेरे चारों ओर

और मैं तितली बन

उड़ान भर रही हूँ तुम्हारे

आस पास

बताऊँ माँ - - - ?

आज मेरी बेटी के मुख से

पहली बार ‘माँ’ शब्द निकला है

वह मेरे गले में बाँहें डाल

लिपट गई है मुझसे

माँ मुझे लगता है, मैं ही

‘माँ... माँ...’ करती

लिपटी हूँ तुमसे... और तुम

प्रसन्न होकर

चुम्मा दे रही हो मेरे गालों पर

ओ मेरी माँ! तुम से इतनी दूर होकर

जब भर आती है मेरी आँखें

तब तुम जाने कैसे

मिटा देती हो ये दूरियाँ

दिलाने लगती हो अहसास

मेरे आस-पास होने का

तुम धरती-सी गंभीर हो

सब कुछ सह जाती हो चुपचाप

तुमारा ह्रदय आकाश-सा विशाल

सागर-सा गहरा है

सारे सुख-दुःख समो लेती हो तुम

अपने भीतर, कभी शिकायत नहीं करती

बस सदा मुस्कुराती रहती हो

माँ! तुम सचमुच

ईश्वर का ही रुप हो

इस धरती पर

मेरी प्यारी माँ!

तुम हो, तभी तो मैं हूँ

और जो मैं हूँ

वह तुम ही तो हो!!!

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