‘यद्यपि’ - डॉ कल्पना जैन
यद्यपि
रौशन कर दी तुमने
सारी संभावनाएँ विकास की
बना दी ज़िंदगी की पहचान
खोल कर
विकास के सारे पायदान
यद्यपि
एक अकेली तुम
प्रवाह बन बहती रहीं
पल-पल हमारे लिए
तटों से टकराती रहीं
यद्यपि
हमारे अस्तित्व की
जिजीविषा में
तुम अकेली लहर बन
सागर में समाती रहीं
यद्यपि
शब्द अशेष हैं
शब्दकोष भी अधूरा
पर शब्दों की परछाइयाँ बन
तुम मुझमे पूर्ण हो, पूर्ण हो।