खोया आत्मविश्वास लौटा दें उन्हें - स्वाति तिवारी
सुनो ,
क्या यह संभव है कि
हम जिन्दगी के पिछले पन्नो को
पढ़ते -पढ़ते कभी उनमे उतर भी जाएँ ?
सुनो ,
क्या तुम भी मेरे साथ
चलना चाहोगे उन अनमोल क्षणों में ?
चलते चलते जहाँ से हम यहाँ तक आ गए ,
फिर चलते है ना उन देखी अनदेखी जगहों पर ?
सुनो ,
मैं तुम्हे दिखाना चाहती हूँ ,
अपनी पहली पाठशाला ,पर
तुम चलो मेरे साथ पहले चलते है
उस घर जहाँ मैं बार बार जाना चाहती हूँ ,
हाँ ,सही सुना तुमने ,चलते है सीधे माँ के घर .
सुनो ,
वहां एक अनूठा चूल्हा है ,
हाँ माँ का चूल्हा-सिगड़ी जिसकी ,
ताप से पूरा घर गरमा जाता था सर्दी भर ,
उस चूल्हे पर माँ रोटियां नहीं ,
चाँद उतारती थी थाली में चूल्हे की गर्माहट में
लाल होता माँ का सुन्दर चेहरा फिर से देखने ,
जो मुझे अच्छा लगता था .
और वो कुशल कारीगर से चलते
हाथ देखने है मुझे फिर से ,जो बिना सांचे भी ,
एक सी गोल गोल रोटियां सेंकते थे .
पल क्षण में चाँद सी रोटी सीधे थाली में डालते
लाल कांच की चूड़ियों से भरे सुन्दर सधे हाथ ,
जाने कैसे माप लेते थे रोज के आटे को ,
और
नाप लेते थे रोटियों की एक सी गोलाई .
माँ का वह उगते सूरज सा अरुणाभ चेहरा
याद था अब तक ,पर अब खो सा रहा है
माँ के चहरे की झुरियों में .
मैं अब भी खोजती हूँ उन झुरियों में वही माँ
कभी कभी कांपते हाथ आजाते है किचन में
पर अपने किचन में ,माँ का
वो आत्मविश्वास कहाँ से लाऊं ?
जो देखा है मैंने उस अनूठे चूल्हे के पास
मेहमान एक हो या दस
माथे पर कभी सिलवटें नहीं देखी थी
फरमाइश बाटी की हो या पोली की
तीज त्योहारों की रंगत माँ के चहरे पर होती थी
और देर रात ,दीपाली की थकान से चूर माँ
जाने कैसे चुपके से बेसन की चक्की ,
और मोयन वाले खस्ता बना लेती थी ,
सुनो ,चलो ना माँ के साथ उस घर
जहाँ उसका आत्मविश्वास छुटा था ,
और चहरे का आफताब भी ,
हाथों का नाप -माप भी
चूल्हे की गर्माहट को
लौटा लाते है माँ के लिए
चलते है माँ से साथ
माँ के गाँव -घर ,वो अक्सर नींद में वहीँ जाती है ,
वहीँ, जहाँ चोक की रंगोली से
चौके की सोंधी खुशबू तक
माँ ही माँ होती थी वहां
माँ को देते है उपहार उनका ही घर अपने बचपन के साथ .