‘लौट आओ तुम’ - शोभा दुबे
ईश की अनुपम कृति, ईश का अनुपम उपहार,
संस्कृति रक्षक, धरोहर पालक, तुम अटूट विश्वास,
पूजा की घन्टी और गायत्री का छंद तुम,
ॐ सब उस ईश को कहते है,
पर मेरे लिए तुम ही शिव का ॐ,
फूलों के पराग-सी, यादों के मीठे सपनों-सी,
तपते हुए रेगिस्तान में, बारिश की मीठी फुहार-सी,
ठंड के मौसम में, गुनगुनी धूप-सी
ख्वाबों के दामन को सच करती हुई माँ तुम,
निश्छल प्रेम के समंदर में, उसके मोती-सी माँ,
नदियों के कल-कल में, धरती की अनुपम छटा-सी,
गुनगुनाती स्वर लहरियों के, सुर ताल-सी तुम माँ,
शब्दों के आख्यानों से परे, अंनत के उस पार से परे,
अब तुम मेरे पास नहीं हो *माँ*
विकल मन, अब सिर्फ़ तुम्हें, तुम्हें ढूँढता रहता है,
हर पल, हर क्षण, कभी घर की चौखट के अंदर
कभी सुबह मंदिर के दरवाज़े पर,
तुम्हारे लगाए बाग के फूलों में, पेड़ों की ठंडी छाओं में,
कानो में गूँजता रहता है तुम्हारे गीता पाठ को वो स्वर
वो स्नेहसक्त आँखें, और ममता का समंदर
पर रेत की तरह फिसल जाती है वो स्मृतियाँ मेरे हाथों से,
और हाथों में कुछ भी नहीं ठहर पाता है,
*माँ* फिर से एक बार लौट आओ तुम, फिर से लौट आओ