‘माँ पर एक ग़ज़ल’ – डॉ. सुधा चौहान राज
बहुत सोच-समझकर ख़ुदा ने माँ को बनाया होगा
सजदे में सर सबसे पहले उसने झुकाया होगा।
सब कहते हैं माँ के चरणों में जन्नत होती है
यह नज़ारा भी सबसे पहले उसने ही देखा होगा।
माँ, तू काशी, काबा, गीता और कुरान है
तेरी ममता से रोशन यह सारा जहान है।
ख़ुद गीले में रहकर, सुखे में सुलाया होगा
सारी रात बाँहों के झूले में झुलाया होगा।
मैं जब-जब रोया, माँ काम छोड़ कर आई
मेरे गंदे गीले गालों पर चुंबन की झड़ी लगाई।
कहते हैं ख़ुदा हर जगह नहीं पहुँच सकता,
इसीलिए बदले में उसने माँ को बनाया होगा।
आँचल में अपार ममता भरकर उसने,
उसे अपने से भी बेहतर उच्चतर पाया होगा।
वह जानता है, कि मैं हर कर्म तराजू में तौलता हूँ
पर माँ के आँचल में हर अपराध क्षम्य हो जाते हैं।
माना तेरे दर पर हर मुरादें पूरी होती हैं
पर माँ तो बिन माँगे ही झोली भर देती है।
माँ की ममता का अंदाज़ा ‘राज’ तुम क्या लगा पाओगे
चाक हुआ कलेजा भी बोल उठा- ‘बेटा, चोट तो नहीं लगी?’