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‘माँ का व्यक्तित्व और मेरी कलम’ - डॉ सुनीता श्रीवास्तव

बहुत पीड़ा होती होगी नव माह मुझे रखना

कोख में रख साथ उठना-बैठना-सोना और काम करना

आसान नहीं था माँ ये सबकुछ सहना

माँ ने जिस समय मुझको कोख में लाया

पुलकित होंगी कितना मन होगा हर्षाया

सोचती होंगी वो तो मुझको प्रतिपल ही

निश्चय ही उनका रोम-रोम होगा मुस्काया

देकर अपने रक्त से मुझको जीवनदान

देकर अपनी हर खुशियों का बलिदान

पिलाकर अपनी छाती का दूध मुझको

किया जो ये उपकार मुझ पर है महान

मेरी बाल-लीलाओं पर वो मुस्काई होंगी

दिन-रात मुझ पर ममता की लुटाई होंगी

लगाकर अपनी छाती से मुझको सदा वो

अपने दुःख में भी प्रतिपल मुस्कराई होंगी

मेरे सुख के लिए कितनी रातें जागी है

अपने कितने ही अरमानों को त्यागी है

सारा दिन घर और फिर मुझको संभाल

अपनी पीड़ा को ऐसे भूली जैसे बैरागी है

मेरे सुख के लिए त्यागे कई कार्यक्रम होंगे

संघर्ष तो तलवार की नोंक सम रहे होंगे

वो कोमल फूल मुझ को गोद में उठाकर 

बन फ़ौलाद न जाने कितने रास्ते नापे होंगे

मुझको देने के लिए वो ज्ञान और संस्कार

अपने सपनों को रौंद मुझको दिया आकार

कैसे करूँ मैं उनकी ममता त्याग का बखान

माँ को लिखने में तो कलम भी बेबस लाचार

मैं उन्हें एक दिन में बोलो कैसे बाँध पाऊँगी

कौन से तराजू में उनकी ममता तौल पाऊँगी

लूटा दूँ उन पर अपनी हर श्वास का कतरा 

तो भी उनका मोल मैं कभी न चुका पाऊँगी

करती है मेरी तरक्की में वो क़िस्मत पर नाज़

दुआ, ख़ुशी, सुरक्षा का पहनाती है मुझको ताज

उनके आशीष से ही मिला है मुझको सबकुछ

बना दूँ अपने तन को उनके पैर की जूती आज

कहते हैं सभी बुढ़ापा बचपन को दोहराता है 

बालक बड़ा और ये वृद्ध बालक बन जाता है

लौटाने का ईश्वर ने दिया हमको भी एक मौक़ा

सेवा से सुकूँ मिला पर ऋण नहीं उतर पाता है

पर बेटी हूँ न मैं लिखने की गुस्ताखी कर जाती

पर ये कलम कहाँ उनका व्यक्तित्व लिख पाती

पूरी दुनिया की किसी भी कलम में नहीं साहस

फिर भी माँ को लिखने का प्रयास कर जाती

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