‘चेहरे की लकीर’ - विजय पुष्पम पाठक, लखनऊ (अतिथि कवयित्री)
चेहरे की एक-एक लकीर पर
वक्त की करवटें
हो जाती हैं नुमाया
धँसी आँखों में
अतीत के जाने कितने
भुगते-देखे अनुभव
घूमते हैं चल-चित्र की तरह
पेशानी के बल
चाहे-अनचाहे अहसासों ...
हाथ की उभरी नसें
जाने कितने क्विंटल छीले गए आलू
गूँधे हुए आटे
और धोए गए कपड़ों की
गवाही देती हैं
और ज़िंदगी की उतरती साँझ पर
गुणा-भाग
जोड़-घटाव
और हासिल
सिफ़र!!!
जब किये-कराये पर पानी फ़ेर
कहा जाता है
तुमने हमारे लिए किया क्या !!!
या छोड़ दिया जाता है
किसी स्टेशन पर अकेले
या किसी वृद्धाश्रम के दरवाज़े पर
या फिर बहुत दया की तो
घर के सबसे पीछे वाले छोटे कमरे में
जहाँ से उनकी परछायी भी ना पड़े
आगे के हिस्से की भव्यता पर .....