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‘माँ अंतिम समय में’ - डा. चंद्रा सायता

माँ ना सोना ना चाँदी ना हीरे जवाहरात ।

माँ के आगे किसी और की क्या बिसात?

 

जिगर में छुपायाए रहती शबनमी माहताब।

शाखों को मगर दिखाती मंज़िल-ए-आफ़ताब।।

 

मैंने देखा है माँ को पल-पल बड़ा होते हुए।

बचपन से अपने, ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए।।

 

आज बिस्तर पर लेटे-लेटे ताक रही हमें ।

सिखा रही वह  जिंदगी का फलसफा हमें।।

 

उसकी आँखों से शबनम गुमशुदा थी अभी ।

हिदायत थी ‘जाने वाले पर रोया नहीं करते कभी’ ।।

 

उसके खट्टे मीठे जीवन से कुछ धागे चुन

हंसीं ख्वाबों की तस्वीर ली है मैंने बुन।।

 

मेरे लिये मेरे बच्चे, जो भी चाहे सोचते होंगे।

मुझे तो फ़क़त अच्छाई के पौधे रोपने होंगे।।

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