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‘माँ तुझे क्या कहूँ!’ - मुन्नी गर्ग

माँ तुझे क्या कहूँ!

तू तो उससे भी ज़्यादा सहनशील है

आकाश कहूँ तुझे तो

तेरे आँचल से छोटा है

माँ तुझे क्या कहूँ--------

समुद्र कहूँ तुझे तो

तू तो स्वयं रत्नों की खान है

क्या कहूँ तुझे तो

तेरी कोख से प्रगटे भगवान है

माँ तुझे क्या कहूँ

तुझे पवन कहूँ तो

तेरी छठी इंद्रि तो उससे भी तीव्र है

तू तो स्वयं काली है, रणचंडी है

माँ तुझे क्या कहूँ

जन कहूँ तुझे तो

तू तो स्वयं दूध की धारा है

अमृत कहूँ तुझे तो

तू तो स्वयं अमृत की खान है

माँ तुझे...

गुरू कहूँ तुझे तो

तू स्वयं प्रथम गुरू है

और गुरू ने भी तो स्वयं तुझसे ही शिक्षा ली है

चंद्रमा कहूँ तुझे तो

तू स्वयं दीपक की लौ है

तुझे सूरज कहूँ तो तू स्वयं दुनिया का उजाला है।

माँ तुझे क्या कहूँ!

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