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पृष्ठ/अध्याय 2




पूरे जोश के नाच गाना चल रहा था। वेदप्रकाश जी की खुशी उनके चेहरे से झलक रही थी।

उनके साथ पूरा परिवार मस्ती में डूबा हुआ

था।

बहुत ही धूम धड़ाके और गाजे-बाजे के साथ उनकी बारात रवाना हुई।

और वह बडे सन्मानमय ढंग से अपनी बीवी को ब्याह कर अपने धर ले आये।

जैसे ही बारात घर पर आई उनकी 'मां' उमा देवीजीने अपनी बहू के ऊपर से पानी ओवार के पिया। उसकी बलाए ली।

अब लाला वेदप्रकाश जी बहुत बेताब थे अपनी बहू को देखने के लिए।

वह दौर था जिस समय  शादियाँ होती थी तो लड़की लड़के को एक दूसरे को दिखाया नहीं जाता था।

सिर्फ घर की औरतें लड़की देख कर शादी पक्की कर देती थी।

उस समय शादी 'दो लड़का-लड़की की नहीं' मगर 'दो खानदानो--- दो परिवारों' के बीच होती थी।आज वेदप्रकाश जी को अपने दिल पर काबू नहीं था।

वह हर हाल में अपनी बीवी को देखना चाहते थे जल्द से जल्द। आखिर इंतजार के बाद वह घड़ी आ ही गई।

जब प्रकाश जी को मौका मिला अपनी बीवी को देखने का! उसे महसूस करने का।

देर से वह कमरे में आए। जैसे ही घूंघट ओढ़े बैठी बीवी का घुंघट उठाया तो उनका दिल धक से रह गया।

ऐसा लगा जैसे कोई नूरानी चेहरा स्वर्ग से उतरकर सीधा धरती पर उनके सामने आ गया हो।

उनके पास शब्द नहीं थी अपनी बीवी की सुंदरता बयां करने के लिए।

गोरा रंग भूरी आँखें और वह आँखों से उनके लिए प्यार और सत्कार के भाव झलक रहे थे।

ऐसी पाक और पवित्रता की मूरत उन्होने कभी नहीं देखी थी।

वह उनके कायल हो गए। ऐसी हीन भावना में खूप से गए 'कहां परियों की मल्लिका',और कहाँ सावले रंग से ढका हुआ मैं..!

पर जब उन्होंने अपनी पत्नी की आँखों में अपने लिए सिर्फ प्यार और सत्कार देखा तो वह सब कुछ भूल गये।

बहुत सी बातें हुई दोनो के बीच। अपनी जिंदगी के बारे में। आने वाली हसीन जिंदगी के बारे में..!

दोनो के मन मिले। एक दूसरे की नजदीकियों रातरानी का खुमार और सुंदरता का वह शबाब उनकी निगाहों में छा सा आ गया।

हसीन रात थी। उस रात का अंधेराभी आज बहुत प्यारा लग रहा था।

ऐसे दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हो वैसे आपस में सिमट कर खो गए।

एक नई जिंदगी नई उम्मीद संजोए सबेरे के रूपमे उनका स्वागत करने बेताब थी।

जिंदगी अब बहुत ही खूबसूरत लगने लगी है। वेदप्रकाश जी, उनकी माता जी, सभी बहनें बहुत ही खुश थे।

वक्त बहोत ही तेजी से भाग रहा था।

लेकिन धीरे-धीरे उस खुशियों में जोल आ रहा था। जैसे कुछ बात थी जो उनके मन को चूभने लगी थी।

उनकी पत्नी के चेहरे पर उदासी साफ झलकने लगी थी।

घरवालों और समाज की नजरें भी उन्हें परेशान करने लगी।

क्योंकि वह अब तक मां नहीं बन पाई थी!

जैसे-जैसे समय गुजर रहा था सब की बेचैनी भी बढ़ रही थी।

परिवार के मुखिया खुद लाला करोड़ीमल भी बेचैन रहने थे।


बहनों के अकेले भाई होने की वजह से वेदप्रकाश जी को बच्चा ना होने वाली बात सबको बहुत ही खल रही थी।

और ऊपर से लोगों की बातें, लोगों के ताने उन्हें कुछ ज्यादा ही परेशान कर रहे थे।

ऐसे में एक दिन लाला करोड़ीमल के मुह बोले भाई शमशेर सिंग उनके पास आए। और बोले,

"तू किसकी वेट कर रहा है? किसका इंतजार कर रहा है? तेरे पास कितना पैसा, कितनी जमीन ज्यायदात है अगर उसको संभालने वाला वारिस ही पैदा ना हुआ तो क्या फायदा है ऐसी बहू लाने का? उसके साथ यह रिश्ता बनाए रखने का?

तू वेद प्रकाश की दूसरी शादी करवा दे।जब यह सब बातें हो रही थी तो मनोरमा जी ने अपने कानों से सब सुन लिया।

मनोरमा जी यानी वेदप्रकाश जी की बीवी

के भीतर जैसे कोई कांच टूटा हो ऐसा दर्द उठा।

बहुत ही व्याकुल हो गई वह उदासी ने उनको घेर लिया था।

काफी हताश होने की वजह से दोड कर अपने कमरे में चली आई।

अपनी ही बेड पर ढेर होकर फूट फूट कर रोने लगी।

तभी वेदप्रकाश जी वहाँ आये उसे रोता हुआ देखकर पूछते हैं।

"मनोरमा तू क्यों रोने लगी है?"

भीगी हुई पलके उठा कर मनोरमा पूछती है,"क्या आप मुझे छोड़ दोगे? दूसरी शादी कर लोगे?"

वेदप्रकाश जी उसका हाथ अपने हाथों में लेकर उसके चेहरे को अपनी उंगली से उठाकर कहते हैं,

"मनोरमा तू फिक्र न कर, मैं तुझे कभी नहीं छोडूंगा!

बहुत ही सच्चे मन से प्यार किया है मैंने तुझे।

बच्चे की बात, कोई भी बात हम दोनों को अलग नहीं कर सकती। तू फिकर ना कर। हम कोई न कोई हल ढूँढ लेंगे इस बात का।हमारा भी बच्चा होगा अभी देरी कहाँ हुई है अपनी शादी को। सिर्फ 5 साल तो हुए हैं"

अपने पति की  बातें सुनकर उसके दिल को थोड़ी तसल्ली हुई।

उसका मन शांत हो गया और वह उनके सीने से लग गई।

लेकिन अभी भी उसके मन में एक डर था कोई अंजाना सा डर।

कभी उनके सास-ससुर या नणदो ने कुछ नहीं कहा था।

लेकिन वह पहले ही रहने लगी और इस बात का असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ने लगा।

खुदी वेदप्रकाश जी अपनी लता बेल जैसी बीवी को मुरजाते हुए देख रहे थे।

पर वो कुछ नहीं कर पा रही थे

तभी उनके कस्बे में एक संत महात्मा का आना हुआ!

वो संत पूर्ण ब्रह्मचारी थे!

उनके चेहरे पर अजब सा तेज था!

नगर के लोग बहुत बढ़ने लगे थे उस संत को

लाला करौडीमल अपने बेटे और बहू को लेकर उनके पास जाते है

और उनको अपनी परेशानी बताते हैं कहते हैं कि हमें बच्चे की जरूरत है आप हमें कोई वरदान दो

संत काफी जानकारी उन्होंने जैसे ही बहू और बेटे को देखा उनकी नब्ज देखी फिर कहा मैं एक आयुर्वेदिक दवाई देता हूं जिससे बहु को बहुत जल्द ही संतान प्राप्ति होगी

दवाई लाला जी के हाथ में देते हुए कहा भगवान जल्द ही उनकी झोली भर देगा!

एक उम्मीद का सहारा लिए लालाजी घर आते हैं बहू  बेटे वह दवाई खिलाते हैं!

पर उसका कोई असर नहीं होता अभी भी इंतजार शायद उनकी किस्मत में था

देखते देखते एक साल और बीत जाता है

लेकिन लाला जी हार नहीं मानते..!

वह फिर से उन संतों के पास जाते हैं बार-बार जाते हैं तो संत कहते हैं तेरी निष्ठा और लगन एक दिन तुझे उसका परिणाम जरूर देगी

वेद प्रकाश के जीवन में वह दिन आ जाता है उनकी तरफ जैसे ईश्वर से भी सही नहीं गई थी

बहू के पांव भारी हो गए थे

तब लाला जी अपने घर में बड़ा यज्ञ करवाते हैं और संतों की खूब सेवा करते हैं

बहुत ही चाव से एक-एक दिन गुजरता है बेसब्री के साथ। बहुत ध्यान रखते हैं सब अपनी बहू का। लाला जी की बहू उमादेवी भी बहूरानी की बलाए लेते हुए थकते नहीं थे।

समय को गुज़रते कहाँ देर लगती है। वह दिन भी आ गया जब उनको हॉस्पिटल लिजाया गया।

मगर यहाँ भी उनकी बुरी किस्मत ने काले साए की तरह उनका पीछा नहीं छोड़ा।

उनके यहाँ बेटा हुआ लेकिन चंद सांसे लेने के पश्चात ही उसने दम तोड़ दिया था।

परिवार के सारे लोग इस सदमे से बहुत ही बुरी तरह टूट गये थे।

खास करके मनोरमा जी। नौ महीने अपने पेट में उस बच्चे को रखकर, अपने हाड मांस और रक्त से पोषण करने के बाद जब बच्चे को मरा हुआ पाया। मनोरमा जी सहम ---सी गई। जैसे उनके सारे अरमान एक ही झटके में बिखर गये थे।

वेदप्रकाश सबकुछ समझने के बावजूद कुछ नहीं कर पा रहे थे। दर्द ने उन्हें किस तरह छलनी कर दिया था। वह हालात के आगे कुछ कर भी तो नहीं सकती थी।  किस्मत के आगे लाचार थी।

​खाली हाथ। खाली झोली लेकर मनोरमा जी हॉस्पिटल से घर आ गई।

मनोरमा जी की आँखों से आंसू सूखते नहीं थे।

​मगर ससुर जी ने हार नहीं मानी। बहू बेटे को समझाया। और वापस दोनों को संतो के पास ले आये। संत ने उन्हें दुबारा आशीर्वाद देते हुए कहा, "बेटी यह तो पिछले जन्म का कोई कर्जा था जो तुने उतार दिया

अब तेरे सिर पर कोई कर्ज नहीं है। देखना अब फिर से तेरे घर में चिराग की रोशनी होगी। उजाला होगा। जल्द ही तेरे घर का आंगन खुशियों से महक उठेगा।

तेरी झोली भरेगी, और ईसी साल में भरेगी। बस तू खुद को टूटने मत देना। भरोसा रखना।

मनोरमा जी को संतों की बातों पर विश्वास था क्योंकि एक बार उनके आशीर्वाद से झोली भर गई थी। उनके मन में फिर से एक नई आशा की किरन ने जन्म लिया।

संत वचन से उसे तसल्ली हो गई थी। फिर वह सास ससुर के साथ घर आ जाती है।

​इंतजार फिर शुरू होता है। दिल में उम्मीद की एक किरन फूटती है जो आगे चलकर हकिकत का रूप लेने वाली थी।

​और एक दिन मनोरमा शरमाते हुये अपनी सास को अच्छी खबर सुनाती है।

लेकिन इस बार एक एक कदम फूँक-फूँक कर रखती है। वह भी और उमा देवी जी भी बहुत केअर करती है। वह अपनी बहू का बहुत खयाल रखती है। जैसे ही उनके प्रसव का समय नजदीक आता है सब बेचैन हो उठते हैं।

उन्हें शहर के एक बड़े हॉस्पिटल में ले जाया गया। वह दिन था क्रिसमस के एक दिन पहले का।

मनोरमा जी प्रसव वेदना से बुरी तरह क्रिश्चियन हॉस्पिटल में तड़प रही थी।

डिलीवरी आसानी से नहीं हो रही थी डॉक्टर कह रहे थे 'बच्चा काफी हेल्धी है।'

थोड़ा समय लगेगा। लेकिन मनोरमा जी की जान हलक में अटकी हुई थी।

बहुत इंतजार। बहुत तड़प। यातनाये और परेशानियों के पश्चात जन्म होता है उस लड़की का।

​अपनी इस कहानी की नायिका का।

​नायिका होने के उपरांत वह कहानी की जान भी तो है। (क्रमशः)







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