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मूलमंत्र था देश प्रेम -वन्दिता श्रीवास्तव


             आज भी स्वप्न मे स्मृतियो मे बचपन की पाठशाला दीपित'हो होती रहती है सजीव रहती है।सम्भवतः वही हमारी मूलाधार है जीवन की।प्यारी सजीली सतरंगी मीठी यादें।

           रीवा शहर का सन साठ के दशक का सरस्वती शिशु मंदिर। हमारी प्रथम पाठशाला। बालक - बालिका , आचार्य जी का मनोहारी वात्सल्य युक्त सम्बन्ध। लगभग भारतीय गुरुकुल की परम्पराओं को निर्वाह करता पाठ्यक्रम। घर से पाठशाला गोल रिक्शों पर आते। पूरे रास्ते देशभक्ति के गीत गाते हुए आते।मन हृदय जोश से भर जाते।स्वर लहरियों से राहगीर आकर्षित हो जाते। आज भी वह गाने मन हृदय मे देश के प्रति प्रेम ऊर्जा का संचार करते हैं। प्रार्थना की पंक्तियों मे एकाग्रता के साथ प्रातः स्मरण के मंत्रों का तेजोमय उद्गार होता तत्पश्चात् माँ सरस्वती की ममतामयी मधुर प्रार्थना होती। कक्षा मे पहुंचने के पश्चात कक्षा मंत्र शांति पाठ गाया जाता। तत्पश्चात आचार्य जी कक्षाओं मे प्रवेश करते।

             हिन्दी माध्यम से पढाई मूल मंत्र था विद्यालय का।संस्कृत को उच्च स्थान प्राप्त था।समस्त विषयों को अत्यंत ही सहज सरल तरीके से प्रस्तुत किया जाता। मध्यान्ह भोजन सब शिशु गण अपने घर से लाते।भोजन मंत्र की स्वर लहरियां लहराती। सब भोजन का आनंद उठाते। पानी वाले भइया अत्यंत स्नेह भाव से सबको पानी पिलाते। आचार्य गण प्रत्येक विद्यार्थी का ध्यान रखते। खेल के संकाय मे सूर्य नमस्कार सामूहिक रूप से होता ।फिर सब अपनी रुचि के अनुसार खेल खेलते।     

            विद्यालय समाप्ति हेतु विसर्जन मंत्र होता। सब शिशु अपने रिक्शा की ओर अनुशासित तरीके से पहुंच जाते।

           हर शनिवार को बाल सभाओं का प्यारा दौर चलता। शिशुओ की प्रतिभाओं का प्रदर्शन होता। कला आचार्य जी के सानिध्य मे हम शिशु कला की सतरंगी दुनिया मे खो जाते।उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही शांत था।संगीत आचार्य जी की संगीत की लगन अत्यंत अटूट थी।वो अत्यंत तल्लीन होकर संगीत मे खो जाते। हम शिशु उनके साथ संगत करने की भरपूर कोशिश करते। पाठशाला की शानदार बाल सभा का गठन हर वर्ष होता। सुनियोजित तरीके से चुनाव होते। हम सब प्रचार प्रसार अत्यंत आनंद से करते। हमे भी दो बार पद मिला चिकित्सा विभाग व गुप्तचर विभाग प्रमुख। आनंद ही आनंद। कितने प्यारे खुशियों के फूलों से भरे प्यारे दिन थे प्राथमिक पाठशाला के।

           पाठशाला जाने का चाव बचपन से ही।अवकाश के दिन मन पाठशाला मे रहता। कभी आकस्मिक अवकाश होता मन उदास हो जाता।हर महोत्सव उत्सव महान पुरुषों की जयन्तिया अत्यंत ही उल्लास पूर्वक मनाई जाती। सब व्यवस्था चयनित विद्यार्थी करते। हर शिशु उत्साह से भाग लेता। वार्षिक उत्सव के क्या कहने। कला आचार्य जी विषयों के आधार पर त्रिआयामी सुसज्जित मंच सज्जा करते। संगीत आचार्य जी सुर ताल से नव संसार की रचना करते। मंच के कलाकारों काश्रृंगार करने बाहर से कलाकार आते और अत्यंत ही मनमोहक व सजीव श्रृंगार करते। अभिभावक गण अत्यंत ही आनंदित हो उठते।

             समय समय पर शैक्षणिक भ्रमण भी होता।साथ ही साथ मनोरंजन भ्रमण भी कराया जाता। वर्ष मे तीन बार आचार्य जी प्रगति पुस्तक लेकर शिशुओं के घर उनके अभिभावक गणों से मिलने जाते। तब हम सबसे डरे डरे खड़े रहते। माँ का आँचल पकड़ कर।आचार्य जी स्नेह भाव से हमारे बारे मे माता पिता को बताते। 

            मित्रों का प्यारा समूह। हंसी खुशी खट्टी मिटठी के प्यारे दौर चलते ही रहते। पढाई का गम्भीर भाव सदैव घेरे रहता।सब को आगे बढने की ललक आचार्य गणों द्वारा सतत दी जाती। रिक्शा चालक भइया लोगों का पूरी जिम्मेदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह करना हमेशा हमें सुखी करता था।मेरे जीवन के वे स्वर्णिम दिन थे।जीवन की पाठशाला की नीव इस पाठशाला से ही डली।

           श्रद्धेय आचार्य गणों का शिष्य के प्रति समर्पण अत्यंत ही अभूतपूर्व था।मूलमंत्र था देश प्रेम देश सेवा सर्व प्रथम व हम नागरिक बाद में। देश प्रेम की शिक्षा गुरु जनों का सम्मान मात पिता की सेवा ईश्वर पर विश्वास सत्यप्रेम की राह हर जीव से प्यार जरूरत मंद की मदद इस पाठशाला के मूल भाव थे।हमारा प्यारा सरस्वती शिशु मंदिर। क्या भूलूँ क्या याद करूँ। आज भी हम उन्ही पलों को पुनः जीवन्त करना चाहते हैं। काश।
मेरी पाठशाला 

9425169789

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