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बिठारों इन्हें,,कलक्टर बाई खो - माया कौल


             आज फिर कुछ अनमना सा है, जीवन नदिया के उद्गम में जाने का मन है ।सोचती हूं स्कूल के पहले दिन को जाकर देखूं ।इतनी उम्र गुजार ली है,जब पीछे मुड़कर देखा तो कच्चे रास्ते, पगडंडी, मैदान, और छोटी एकल रास्ते वाली सड़कों की भरमार थी। मैं सबको पार करती, छलांगे मारती, अपने सुव्यवस्थित से अव्यवस्थित मन से आखिरकार, अपने आप को 17 साल की उम्र तक ले ही आई।

            मां हमारी हमसे दूर थीं, तो हम नानी के हवाले थे,,जिन्हें सब लोग मांजी कहा करते थे ,। एक दिन मांजी ने हमें जैसे हड़काते हुए  कहा, इतनी बड़ी हो गयी है बहुत घर मे पढ़ लिया, अब चलो स्कूल में भर्ती कर आये तुम्हे,,।नीली फूलों वाली फ्रॉक पहन कर,पाओं में बांटा की दो बद्दी वाली चप्पल डालकर और एक स्लेट कलम सब्जी वाले थैले में डालकर, गलियों गलियों चलते, हम जुमेराती स्कूल पहुंचे। नानी थोड़ा कम सुनती थीं।

          हम कहे जा रहे थे कि छोटा अ बड़ा आ कमल, कसरत सब पढ़ना और लिखना तो आता है हमे।

          हमारी बातों को अनसुना कर, नानी बडबडाती जा रही थीं तुम्हारी माँ को कुछ समझ थोड़ी आता है,"कंडेक्टर बनाएगी "कंडेक्टर तुम्हे ।गीता रामायण पढ़ ली बहुत है, अब देखो हम गीता पढ़ लेते है ।हमने तो स्कूल का मुंह भी नही देखा तो क्या हम अनपढ़ हो गए?

       नानी बिना चद्दर डाले कहीं निकलती नही थी,,तमाखू बनाना शास्त्रीय बिधि से, और तरीके से खाना, उनकी हॉबी में शामिल था,,,।तमाखू चूने का संयुक्त मिश्रण फिर करीने से काटी गई सुपारी जो पतली पतली झालरों सी होती थी, उसे मिलाना खूब हंथेली पर मलना,फिर उंगलियों से ठपकारना,होले होले एक हथेली से दूसरी हथेली पर ले जाना।और ऐसा चार से  पांच बार करने पर ही उनकी तमाखू तैयार होती थी मुझे सख्त ट्रेनिंग दी गयी थी ।

           आलम पढ़ने का ये था,कि हम र मेंआ की मात्रा रा और म खाली राम,, पढ़ते ,,रटते थे और साथ साथ तमाखूके बनने पर भी ध्यान देना होता था । कुल हाल ये था कि लिखना होता राम ,और प्रेक्टिकल चलता तमाखू मेकिंग का।

          खैर हम तो स्कूल जाते वक्त कॉन्फिडेंस से भरे थे कि पढ़ने के साथ तमाखू बनाने में हमने पी एच डी  कर ली थी,,तो जितने हम आत्मविश्वास से भरे थे,  उतनी ही मात्रा में नानी हमारी झल्लाई हुई,,थी।

          जब हम स्कूल पहुंचे खाना खाने की छुट्टी हो चुकी थी।प्रिंसिपल को बड़ी बहनजी कहा जाता था तो हम बड़ी बहनजी के पास पहुंच गए। उनका सरनेम चटर्जी था सो सब उन्हें चटर्जी बहनजी भी कहा करते थे ।नानी बैठते ही बोली लो, - ये माया को बिठा लो अपने स्कूल में। अटक अटक के हिज्जे कर कर के गीता रामायण पढ़ लेती है।

            फिर उनसे शिकायती लहजे में बोलीं - कोनोऊ जरूरत नहीं रही ,पढबे लिखबे की मनो सुनत को है ?  मां इनकी को हुकम है कि मोड़ी अबे तक घर मे है इस्कूल नई गई ,बस चढ़ गओ पारा सातवें आसमान में। सो लें आये है बिठारों इन्हें,,कलक्टर बाई खो।

           इतना कह जब नानी उठकर जाने लगीं,तो बहनजी बोली  - "अरे मां पिता का नाम तो बताओ । "

         तो मां का नाम तो सावित्री  बता दिया , पिता के नाम बताने पर बोलीं - " इनई से पूछ लो ,सब कछू। अब हम जा रये नहाबे ,,,बैसई खूब देर हो गयी पूजा के लाने भगवान धरे है बिना नहाए धोए ।" और चद्दर सम्हालती ये जा और वो जा।

        उनके जाने के बाद बचे हम और बड़ी बहनजी। फिर हुआ हमारा इंटेरोगेशन। नाम माया दुबे , उम्र कान पे हाँथ लगा के देखा और लिख दी 7 वर्ष , फिर बोली  - "बाप का नाम बताओ तो जरा?"

      हम अभी मन से उथल उथल में ही थे कुछ बोल ही नही  निकला।बहनजी हमारी तरफ बड़े ध्यान से  देख के बोली - " ये गोरा रंग कोई चटेगा क्या? जबान से बोल क्या नाम है उनका?"

      हम फिर चुप!  तमाखू बनाने का कहती तो गोल्ड मेडल जीत जाते हम,,।मन मे सोच रहे थे ,,,,काले दांत है इनके भी तमाखू तो खाती ही होंगी,,जब बनवायेगीं न तो सब समझ आ जायेगा माया कितनी होशियार है।हमें चुप देख वो बोलीं - " अरे घर मे कोई आदमी है तुम्हारे की नही ? "

          हम अपने बड़े भाई बीर दादा को बहुत मानते थे,डरते भी थे , वो हमसे बहुत बड़े थे और बोर्ड ऑफिस में जॉब करते थे। हम तुरंत बोले - " बीर दादा । "

          और उन्होंने नाम लिखा - पिता बीर दादा।

         पहली  कक्षा के हिसाब से हम बड़े थे और पांचवी कक्षा के हिसाब से छोटे तो बहनजी ने हमे सीधे चौथी  कक्षा में बिठाल दिया । इस तरह हमारी पढ़ाई का श्री गणेश हो गया।

       वो तो  11वी बोर्ड की परीक्षा होती थी उन दिनों (ये सन 1959,,,60 की बात है) और बोर्ड आफिस में काम करते थे, भाई हमारे बीर दादा ,उन्होंने जब देखा तो उन्हें बहुत ही अचंभा हुआ ये क्या?भाई को पिता, बना दिया? बोले अपने अफसर से -"अरे ,,ये तो बहन है हमारी ।पिता में बीर दादा कैसे लिखा है ?" तब उन्होंने एफिडेविट दिया और भी जाने क्या क्या किया और पिता का नाम लिखाया - भृगुशरण दुबे।

         घर मे नानी हमारी बार फिर  कटघरे में खड़ी थी।  मां तथा भाई उनसे सवाल जवाब किये जा रहे थे।अंत मे नानी ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया - "सुन रे भईया,ये उल्टे टेढ़े नाम इरगु भिरगू हमसे बनत है नईं।(पिता का नाम कठिन था उनके लिए भृगु शरण)और फिर दामाद को, नाम लेने भी नई चईये,, सो हमने तुमरी जा माया पे ई छोड़ दओ, अब जई से पूछो हमाई ठठरी ना बांधो  समझे??हमरे भगबान न्हाये नईं अबे और हमे बहुत काम है,देर सोई हो गयी है , अब हमाओ पीछा छोड़ो। "

        जब भी वो कभी ऐसी वैसी परिस्थिति में फंसती तुरंत उनके भगवान बिना न्हाये हो जाते थे,,फिर कोई कुछ बोल नही पता और वो पैन तमाखू कैपिटल का डब्बा लिए कमरे से निकल जाती थी विजेता बनकर।
       मां हमारी सब्जी का थैला धो के डाल रही थी आख़िर अब हमें स्कूल जाना जो था रोज,,,।और अब आप सोच रहे होंगे हम क्या सोच रहे थे तब,,हम नई सहेलियों के गुनताड़े में लग गए थे।

9893620682

 

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