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जीवन की सबसे कठिन घड़ी..... तृप्ति दिव्या भूतड़ा


            सबसे पहले तो निवेदन करुँगी कि शीर्षक देखकर आप यह ना समझ ले कि ये मेरे बचपन का कोई क़िस्सा होगा क्योंकि शीर्षक से हम समझ लेते है कि हम स्कूल जाते थे  उन दिनों की बात होगी किन्तु मुझे मेरी पाठशाला में वो संस्मरण लिखना अच्छा लगा जिससे मैं कुछ सीख पाई, जिसने मुझे जीवन में कोई नया पाठ पढ़ाया।कभी कभी जीवन में कुछ ऐसी ही घटना घटित होतीं हैं कि हमारे लिए जीवन का एक यादगार पाठ बन जाती हैं।उससे ही हमें पता चलता है कि वास्तव में जीवन क्या और क्यों है?

            मेरे जीवन में भी अनेक ऐसी घटना घटी जो सामान्य लोगों के जीवन में एक या दो प्रतिशत ही घटती है किन्तु उसमें से भी मुझे लगता हैं कि हर घटना संस्मरण योग्य नहीं है क्योंकि संस्मरण तो वह होना चाहिए जिसे लोग पढें तो उसमें उन्हें भावात्मकता का बाहुल्य अनुभव हो,पढ़ने वाले के कोमल हृदय पर उन कोमल अनुभूतियों की छाप बैठ जाएं।   

           जो घटना आज मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं वह अभी फिलहाल की घटना है जब भारत में कॅरोना का दौर शुरू हुआ ही था।22 मार्च को भारत में लॉकडाउन लगा और 8अप्रैल को ही मेरे पिताजी को कॅरोना हो गया खबर आ गई।उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया गया साथ ही हम घर में रहने वाले चारों सदस्यों को भी क़ुरएन्टिन होने का आदेश मिला।हम पहले ही पिताजी के रिपोर्ट से सदमें में थे कि हमे दस मिनट में पंद्रह दिनों का सामान पैक करके घर बंद करने का भी फरमान जारी हो गया।जीवन की सबसे कठिन घड़ी..... दस से पंद्रह मिनट में घरको संभालू कि क्या रखे क्या ख़राब होने जैसी चीज़े हटाऊँ, किधर ताले लगाऊँ, पौधों में पानी दूँ,  माँ और बच्चों की पैकिंग में मदद करूं,  स्वयं की पैकिंग करूं ,बीच बीच मे आने वाले रिश्तेदारो के फ़ोन उठाऊँ, सरकारी खानापूर्ति करवाऊँ ,पिताजी जो पंद्रह दिन अस्पताल में रहेंगे उनकी तैयारी करूं  और साथ ही स्वयं की भी जाँच करवाएँ.....यानी अनेको कार्य थे समय मात्र दस मिनट।

          खैर जितना हुआ किया ।जरूरी सामान जैसे 4 जोड़ी कपड़े, ब्रश, पेस्ट, कंघा लिए हम चारो क़ुरएन्टिन स्थल के  लिए रवाना हो गए।15 दिन रहे।अब बताती हूँ संस्मरण लिखने का असली मकसद।15 दिन हम रहे.....यकीन मानिए की 15 दिनों में मैंने चार में से दो ही जोड़ी कपड़े पहने,दो जोड़ी संभाल कर रख दिए।

            अब मै बताती हूँ यही तो जीवन में चाहिए क्योंकि वास्तव में हमारी आवश्यकता तो सीमित है किन्तु लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे के डर से हम अति संचय करना सिख गए।देखा जाए तो सीमित साधनों से भी जीवन बहुत आनंद से जिया जा सकता हैं किंतु पता नहीं क्यों हम अति के लिए वास्तिविक सुख खो देते है।और चाहिए.... और  चाहिए  से कभी संतुष्ट ही नहीं हो पाते है।कल की चिंता में आज को खो देते है जबकि यह पता नहीं कि कल देख पाएंगे की नहीं।मैं यह नहीं कहती कि बचत नहीं करनी चाहिए किन्तु अति क्यों?जब जीवन में चार से काम होता हैं तो चालीस क्यों? इस अति के स्थान पर हम किसी की मदद करके तो देखे । वास्तव में देखिएगा जीवन कैसे आनंदित हो जाएगा।अस्तु ।

9302100939

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