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किताबों की पढ़ाई के अलावा व्यवहार की पढ़ाई भी होती है -  वंदना पुणतांबेकर      

             
           बात उन दिनों की है जब मैं फोर्थ या फिफ्थ क्लास में पढ़ा करती थी.हमारा स्कूल घर से यहीं कोई दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर था. हमें पैदल चलकर जाना पड़ता था. हम सभी आसपास के बच्चे मिलकर विद्यालय पैदल जाया करते थे.हमारी प्राथमिक विभाग की प्रिंसिपल आदरणीय बापट मैडम बहुत ही अनुशासन प्रिय और रोबदार व्यक्तित्व की स्वामिनी थी. बचपन में हम जब स्कूल जाते,तब जाते समय तो हम जल्दी-जल्दी चलकर जाते.यदि देर हो गई तो हाथ सन्टी और ऑफिस के बाहर मुर्गा बनना पड़ता. इसीलिए हम अक्सर आधा रास्ता चलकर और आधा रास्ता भागकर स्कूल जाते.जहां भी हमें हमारी मैडम दिखती तो अंतर्मन थर-थर कांपने लगता

         एक बार हम कुछ बच्चे स्कूल से पैदल वापस आ रहे थे.तो हम देखते की हमारी 4 टीचर्स तांगे में बैठकर स्कूल आती और तांगे से ही बैठकर वापस जाती .उन दिनों तांगे की सवारी की भी शान हुआ करती थी.उस तांगे में हमारी प्रिंसिपल मैडम भी हुआ करती थी.एक दिन उन्होंने मुझे दो चार सहेलियों के साथ पैदल आते देखा तो तांगा रोक कर उन्होंने मुझे पास बुला कर तांगे में बैठा लिया.

        मैं डर के मारे उनसे कुछ भी कह ना सकी. मेरा घर आते ही वह मुझे उतारकर आगे बढ़ गई.अब यह अक्सर होने लगा उनका स्कूल से लेट निकलना और हमारी छुट्टियों के बाद थके कदमों से धीरे-धीरे चलना और तांगे का अपनी रफ्तार से सरपट हमसे आगे निकलना व मेरी प्रिंसिपल का मुझे तांगे में मुझे अपने पास बैठा लेना. अन्य बच्चे मुझसे पूछते क्या यह मैडम आपकी कोई रिश्तेदार हैं.मैं ना में सिर हिला देती.

         मैंने यह बात अपनी मां को भी बताया करती. मां मुझे मेरी टीचर तांगे में बैठा लेती हैं आप फीस के साथ उनके तांगे के पैसे भी दे देना. मां सुनी अनसुनी कर देती.

        हमारी प्रिंसिपल का घर हमारे घर के आगे थोड़ी ही दूरी पर था.उसी रास्ते हमारा आना-जाना होता.जब भी मैं उनके दरवाजे के सामने से गुज़रती तो एक डर बना रहता की अचानक बाहर आकर कुछ पूछ ना लें.

          एक बार में माँ के साथ कुछ  सामान लेने जा रही थी.उस दिन रविवार की छुट्टी थी उसी वक्त मेरी प्रिंसिपल मैडम बाल खुले और गाउन  पहने अचानक बाहर आई. मैंने उन्हें हमेशा साड़ी में जुड़ा बांघे  हुये ही देखा था. और आज अचानक इस रूप में देखकर नमस्ते करना ही भूल गई.

          उन्होंने मुझे आवाज लगाकर रोका..मैं मां का हाथ कसकर पकड़ वहीं रुक गई. उन्होंने मुझे बुलाया मेरी मां भी डर गई वह भी कभी किसी से ज्यादा बात नहीं करती थी. तो वह भी थोड़ी घबरा गई.मैंने और मेरी मां ने उन्हें नमस्कार किया.

       मां बोली यह अक्सर आपकी तारीफ करती रहती है, कि हमारी प्रिंसिपल मैडम मुझे तांगे में बैठाकर लाती हैं.

        तभी वह  मेरी ओर मुस्कुराकर देखने लगी.लेकिन कुछ भी नहीं बोली.. मुझे बड़ा डर लगा कि कल कहीं मुझे पनिशमेंट ना मिले. मैं स्कूल जा जाने से घबराने लगी. मां बोली उन्हें डांटना होता तो कल ही डांट देती. उस दिन में घबराए हुए स्कूल पहुंची फिर भी मैडम मेरी तरफ देखकर सिर्फ मुस्कुरा ही रही थी. मेरे मन से थोड़ा डर निकल गया था

       वह तो बचपन की बातें थी तब इतनी बुद्धि कहां होती है. लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई तब समझ में आया कि किताबों की पढ़ाई के अलावा व्यवहार की पढ़ाई भी होती है उनका मूक मुस्कुराना और निस्वार्थ भाव से प्रेम बांटकर अपना बनाना मुझ पर कुछ ऐसी गहरी छाप छोड़ गया कि मैंने जीवन के मूल्यों को उन्हीं से  सीखा.

       कहते हैं  जब माटी गीली होती है तो उसे मनचाहा आकार दिया जा सकता है ठीक वैसे ही मेरी मैडम की निस्वार्थ भावना ने मुझे इंसान बना दिया. अब हमेशा ऐसा लगता है, कि जो अपने पास है उसे दूसरों को देना चाहिए.चाहे वह कोई वस्तु हो या फिर समय.. दूसरों के प्रति निस्वार्थ सेवा ही हमें बहुत सुख और शांति देती है. टीचर्स तो पग-पग पर मिले.लेकिन मेरी प्रायमरी प्रिंसिपल से जो जीवन जीने का सबक मैंने सिखा वह एक मजबूत ठाल बनकर मेरे हरकदम पर मेरा मार्गदर्शन करता रहा.मैं अपने अंतर्मन से उन्हें आदर और श्रद्धा के फूल समर्पित करती हूं. मेरे बचपन का जो डर था.वह बड़े होकर आदर में बदल गया।
        9826099662

 

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