मेरे जीवन का प्रथम सोपान - डॉ ज्योति सिंह
मेरी पाठशाला मेरे जीवन का प्रथम सोपान , जीवन के प्रारंभिक काल की अवधि सचमुच हमारे जीवन की नीव रखती है। अपनी पाठशाला के जीवन की कुछ स्मृतियां आज अमिट हैं। मैं साढे 4 वर्ष की रही हूंगी अपनी नानी से अत्यधिक लगाव के कारण मां - पापा ने उनके पास छोड़ने का निश्चय कर लिया था शायद नाना - नानी एवं मौसी और उनका 2 माह का बेटा और मेरा इन सब से अत्यधिक लगाव वह कारण रहा होगा कि मुझे केजी और माध्यमिक कक्षाओं में नाना -नानी के गांव इटारसी होशंगाबाद से 32 एक किलोमीटर दूरी पर है ,वहां अपनी पहली पाठशाला में जाने का अवसर मिला ।
भगवान की कृपा से स्मृति तो बचपन से ही तेज है अन्यथा वे चित्र आज भी मेरे मन मस्तिष्क में उतने उजले नहीं होते । सच ही कहा जाता है इस उम्र का सीखा जीवन की आधारशिला हो जाता है। मध्यमवर्गीय नाना - नानी ने अपने संवेदनशीलता और संस्कारों से मेरे बचपन को सींचा जो मेरे जीवन की थाती बन गया ।उस जमाने में प्री स्कूल के नाम पर नर्सरी हुआ करती जिसमें मुझे डाला गया। क्योंकि वहां पढ़ाने वाली मैडम मौसी जी की सहेलियां थी तो वह मुझे घर पर ही पढ़ाने आने लगी थीं। क्योंकि कड़क पिता का आदेश था आप लोगों के पास छोड़ तो रहा हूं लेकिन इस के कैरियर पर फर्क नहीं आना चाहिए। तो उस जमाने में हमने प्राइवेट ट्यूशन लेनी प्रारंभ कर दी थी। उसका फायदा यह हुआ कि मेरी भाषिक पकड़ मजबूत बनने लगी ।
पहली कक्षा में मेरा प्रवेश रेलवे द्वारा संचालित प्राथमिक पाठशाला में करवाया गया था क्योंकि मेरे नाना रेलवे में गार्ड थे ।प्राथमिक पाठशाला की मेरी स्मृतियां बहुत मधुर हैं आज भी बचपन याद करती हूं तो मुझे मेरी पाठशाला की वह इमारत खेल का मैदान सब कुछ जीवन्त दृश्य के रूप में आंखों के सामने आ जाता है। मेरे संगी साथी मुझे पढ़ाने वाली बहनजियां, स्कूल जाने का रास्ता बीच में पढ़ने वाला मैदान ,मंदिर और एक बहुत गहरी सी थोड़ी -सी खुली हुई नाली उसके ऊपर बना हुआ छोटा सा पुल यहां से निकलने पर हमेशा दिल धक-धक करता रहता था।
हां तो मुझे याद है वहां जो हमारी बड़ी बहन जी थी जिनका नाम शीला जॉर्ज था। उनकी हिंदी का लेखन इतना सुगठित था कि उनके द्वारा लिखे गए अक्षर मुझे उसी सुघड़ता में आज भी याद है वह भी उनकी हथेलियों से आने वाले खीमाज की खुशबू के साथ ।पहले प्राथमिक कक्षाओं में पेम और स्लेट पर पढ़ाई होती थी पेंसिल और कॉपी दूसरी कक्षा में मिली थी तो पेन तो पांचवी में पकड़ आया था।
पहली में अक्षर ज्ञान पट्टी पर 50 -50 बार लिखकर किया जाता था तो दिमाग में भी अक्षर ऐसे बैठे कि मन हमेशा अक्षर और अर्थबोध से सामंजस्य बिठाता रहता था आज भी यह प्रक्रिया जारी है ।बहुत समय तक अक्षर को उसके साथ लिखकर चित्र के साथ पुकारने की आदत- सी बन गई थी ।जैसे क कमंडल का , घ घर का , फिर धीरे-धीरे मन शब्द संसार में इतना रमा कि आज भी बस इससे खेलना मेरा प्रिय शगल बना हुआ है। वे कविताएं "चल घर चल "
"यह कदम का पेड़ अगर
मां होता यमुना तीरे "
"मैया मैं तो चंद्र खिलौना लेहौं"
" मां खादी की चादर दे दे '
और "खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी "
पूरी -पूरी कक्षा जब कंठस्थ कर उसका पाठ करती थी तो मुहं से अपने आप शब्द झड़ने लगते थे ।कक्षा में करीब 18 उन्नीस बच्चे थे, अपने बाल सखाओं के मध्म मन बहुत रमता था
. एक सहेली थी: शारदा त्रिपाठी बहिर्मुखी तेज कुशाग्र बुद्धि वाली, सुंदर, भूरी -भूरी आंखों वाली कंधे तक कटे भूरे -भूरे बाल और बहुत प्रभावी डोमिनेटिंग ।और कहां मैं ?सांवली -सी ,कमजोर -सी दुबली -पतली, लंबे बालों वाली अंतर्मुखी ।जिसे हर बात से, हर किसी से ,हर वक्त डर लगता रहता था ।हंसना तो आता ही नहीं था। एक रफीक नाम का लड़का था दुबला पतला- सा हम तीनों ही बचपन के साथी थे और तीनों में प्रथम आने की तो होड़ लगी रहती थी कभी कोई तो कभी कोई यह बाजी जीत ले जाता था ।वैसे तो गणित मे कच्ची थी ।लेकिन वह 2 से लेकर 20 तक के पहाड़ों की रोज तोता रटंन आज भी नहीं भूले ।सरकारी विद्यालय की पाठशाला जिसने मुझे दूसरी कक्षा में गीता के महात्मय पढ़ने लायक बना दिया था। कई बार आज के व्यवसायिक शिक्षा के स्वरूप से कई गुना गुणात्मक प्रतीत होती है ।वह पढ़ाई जिसने मुझे शिक्षा के संग भारतीय संस्कार और संस्कृति को बीज रूप में मुझे रोपा और आज जैसी भी हूं, जहां पर हूं ,वहां तक पहुंचाने में सचमुच मजबूत सोपान का दायित्व निभाया।
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