एक अंकुर मेरे मन में - डॉ स्वाति तिवारी
एक अंकुर मेरे मन में
हमारे घर से पाठ शाला के रास्ते में एक लंबा चौड़ा मैदान था अक्सर हम बच्चे तपती दोपहरी में स्कूल जाते थे तो सारे रास्ते कहीं कोई छाँव नहीं होती थी .प्राथमिक स्कूल तक मेरी मम्मी भी उसी स्कूल में अध्यापक थी.स्कूल की हर गतिविधी माँ को भी पता होती थी .एक दिन रास्ते में एक बुजुर्ग को गड्डे खोदते देखा .भरी दोपहर में वह बूढा आदमी पसीने से तरलगा हुआ था ,अपनी एकाग्रता से .मन में वह कहीं कोई स्थान बना चुका था .दो तीन दिन देखा .हम रुकते तो वह मुस्कुरा देते .एक दिन उन्होंने कहा बड़ी प्यास लगी है .मैंने झट से अपनी बोतल से पानी उनकी अंजुरी में डाल दिया .फिर पसीजते हुए मन से पूछा आप ये गड्डे क्यों खोद रहे है ?बाबा ने कहा गुड्डी रोटी के लिए .स्कूल में देर हो रही थी शशी में कहा चल जल्दी बाहर खड़े रहना पडेगा . हम स्कूल पन्हुंचे पर देर हो गई थी और प्रार्थना में जो नहीं होते थे उन्हें पहला पीरियड बाहर खड़े होना पड़ता था .पास वाली क्लास की क्लास टीचर माँ थी ,रजिस्टर लिए निकली तो मुझे बाहर देखा ?क्यों मेरे पहले निकली थी ना देर कैसे हो गई ? मैं थक गई थी तो बैठ गई थी रास्ते में .माँ चली गई उनकी क्लास में .अगले दिन उन बाबा के लिए रोटी कैसे ले जाई जाय यह चिंता थी .ताकि उनको मेहनत नहीं करनी पड़े .उन्होंने कहा था रोटी के लिए गड्डे खोदना पड़ते है .दीदी से कहा जाकर जीजी दो रोटी ज्यादा रखना बहुत भूख लगती है .उस दिन जीजी ने रख दी .जल्दी जल्दी बाबा तक पंहुचाना था रोटी देनी थी .बसते में से डिब्बा निकला दो रोटी कम लगी एक और रोटी और सब्जी कापी से पन्ना फाड़ा और उस पर रख कर देदी .स्कूल पंहुचे माँ सामने ही दिख गई .आज फिर देर ?माँ वो भी टीचर उनकी समझ में यह आ गया था कि कुछ गड़बड़ है .अगले दिन फिर जीजी से कहा एक अलग डिब्बे में दो रोटी देना शाम को खूब तेज भूख लगती है .जीजी ने माँ से कुछ नहीं कहा डिब्बा भर दिया .माँ ने कहा रुको आज मेरे साथ चलना , रोज लेट जाती है .नहीं मैं जा रही हूँ आज देर नहीं होगी .शशी को बताया किस्सा .तेज तेज चलकर गए बाबा दिखा तो डिब्बा पकड़ा दिया शाम को देदेना .और भाग कर स्कुल पंहुची . प्रार्थना में माँ ने देखा तो राहत मिली .माँ आज जल्दी घर चली गई थी तो वापसे में हम बाबा के पास रुके डिब्बा लेना था .आराम से बैठ गए मिट्टी के ढेर पर .बाबा ने बताया तुम रोज स्कूल जाते हो ना पर रस्ते में छाँव नहीं है .बस उसी लिए मैं गड्डे खोद रहा हूँ इनमे बरसात में छाया दार पेड़ लगेंगे .फिर तुम बच्चे मुझे रोज याद करना .कुछ लडके खड़े थे बोले बूढा पेड़ लगाएगा फिर आम खायेगा ?बूढ़े बाबा हँसे मैंने जो आम खाए वो किसी और ने लगाए थे .अब मैंने जो लगाये वो आम तुम खाना ,फिर तुम पेड़ लगाना .बात जाने कैसे दिल में उतर गई .प्रकृति के प्रेम का बीज स्कूल के बाहर की पाठशाला में उन अनपढ़ बाबा ने लगा दिया था .बस ताउम्र उस अनजानी प्राकृतिक पाठशाला से सीखे पाठ का फल है कि आज तक जाने कितने पेड़ -पौधे जहाँ रही वहां लगा दिए . माँ उसके अगले दिन खुद एक डिब्बा खाना भरकर कहा था ये ले तेरे उन बाबा के लिए है?मैं आश्चर्य चकित थी माँ को कैसे पता ?तब पिताजी ने सर पर हाथ कर कहा वो सिर्फ तेरी माँ नहीं टीचर भी है ,नजर हमेशा रखती है . और ये एक पुरानी शर्ट भी ले जा पिताजी ने कहा मैंने देखा है उस आदमी को ,शर्ट फट गई है उनकी दे देना .शायद संवेदना का एक अंकुर तभी उगा था मेरे मन में . पाठशाला के रास्ते में भी बहुत सी पाठ शालाएं होती है .
स्वाति तिवारी ,भोपाल