और ना बस्ते का बोझ पीठ पर बेताल की तरह लदा हुआ - चेतना भाटी
बच्चों को स्कूल जाने के नाम से रोना आता है । मगर पता नहीं क्यों मुझे स्कूल जाना बड़ा सुहाता था । बड़ी चाहत रहती थी स्कूल जाने की ।
माँ बताती हैं कि - जब बाल मंदिर की " बुलानी बाई " ( स्कूल की महिला कर्मचारी जो बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से वापस घर छोड़ने का कार्य करती थी । ) आई तो मैंने कहा - " आज चेतना को बुखार है । स्कूल नहीं जाएगी । " बाई चली गई और वे अपने कार्य में लग गईं ।
मैं पता नहीं कब चुपके से बाहर निकल गई और स्कूल पहुंच गई । अकेले ही !!!
तो अपनी इसी आदत के चलते जब मैं अपनी दादी माँ के पास उत्तर प्रदेश के गाँव में थी तो स्कूल जाने की जिद करती । दूसरे सभी बच्चों को स्कूल जाते देख ।
उस समय स्कूल में प्रवेश की उम्र नहीं हुई थी मेरी । लेकिन मैं आस - पड़ोस के बच्चों के साथ स्कूल चली जाती ।
हमारे मुखिया ताऊजी ने अपना एक कमरा बच्चों के स्कूल के लिए दे रखा था । यह मिट्टी की गजभर मोटी दीवारों और छप्पर वाला हॉलनुमा कमरा था , दो दरवाजों वाला । सामने इतना ही ओटला जिसे चौपाल कहते थे और सामने मैदान । यही थी हमारी प्राथमिक पाठशाला । इस कमरे की दीवार के किनारे-किनारे बिछी टाट पट्टी पर बच्चे बैठते थे । एक गुरुजी कक्षा एक से पांच तक के सभी विद्यार्थियों को पढ़ाते थे बिना ब्लैक बोर्ड के !!!
लकड़ी की काली पट्टी और एक शीशी में घुली खड़िया , सरकंडे की कलम , बस इतना ही काफी था । हो सके तो चार किताबें और इतनी ही कॉपियां बस ।
लकड़ी की काली पट्टी को शीशे के कड़े नुमा घुट्टे से खूब घिस - घिस कर चिकना करना ।
फिर सरकंडे के टुकड़े तोड़कर लाना और छील - छील कर कलम बनाना ।
एक शीशी जो अक्सर वेसलीन या बाम की खाली शीशी होती थी ,क्योंकि उसका मुंह चौड़ा होता था । खड़िया घोल कर भर ली जाती । कलम उसी में रख दी जाती फिर उसमें डोर बाँधी जाती , और कमंडल की तरह एक हाथ में हिलाते चल पड़ते । दूसरे हाथ में तो होती ही थी लकड़ी की पट्टी ।
यह सब कार्य अत्यंत ही आनंददायक , रचनात्मक संतुष्टिदायक होता था और अपने स्वयं के एक अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व - अस्तित्व का एहसास कराता था मुझे ।
स्वाधीनता दिवस पर निकलती प्रभात फेरी में - " झंडा ऊंचा रहे हमारा " गाते , गांव की गलियों में बहते बरसात के पानी से बच-बच कर संभल - संभल कर चलना ! सचमुच बड़ी मशक्कत करनी होती थी स्वयं को और झंडे को भी ऊंचा रखने में । खैर !
फिर विधिवत स्कूल में प्रवेश लिया माध्यमिक कन्या शाला में ।
इतनी सुंदर साफ - सुथरी सर्वसुविधायुक्त थी हमारी पाठशाला । बाउंड्री वॉल से घिरी हुई विशाल जगह के बीचोबीच । गेट से स्कूल तक बजरी बिछी हुई , शेष स्थान में हरी घास का गलीचा डला हुआ । कुछ पेड़ पीपल - नीम आदि के । विशाल परिसर तो खूब याद आता है । इधर से उधर खूब खेलते , दौड़ लगाते ।
शिक्षकों सहित पूरा स्टाफ बिल्कुल अपने घर - परिवार के बुजुर्गों की तरह स्नेहपूर्वक ध्यान रखने वाला । लगता ही नही की घर से बाहर हम स्कूल में हैं ।
वो बिना ट्रैफिक वाली साफ - सुथरी सड़क पर चलते स्कूल जाना , बेफिक्री से । न कोई यूनिफार्म की चिंता ना टिफिन बॉक्स की । छुट्टी में दौड़ते हुए घर आकर खा लो खाना । इतनी पास था स्कूल । और ना बस्ते का बोझ पीठ पर बेताल की तरह लदा हुआ । पट्टी ( स्लेट ) पर लिखते - मिटाते रोज नई इबारत । अतीत का बोझ ( होमवर्क के नाम पर , पेन - पेंसिल घिस - घिस कर भरी हुई तमाम कॉपियों - नोटबुक्स वगैरह ) कंधों पर उठाए नहीं चलते थे । एक थैली में बस कुछ पुस्तकें और चंद कॉपियां बस ।
वार्षिकोत्सव में मंच प्रस्तुति भी करते - गीत - नृत्य -नाटक आदि में । और खेलकूद में भी भागीदारी करते - रस्सीकूद , कबड्डी , खो - खो वगैरह में । सामान्य ज्ञान , रंगोली आदि की भी प्रतियोगिताएं होतीं । जीतते भी और पाते शील्ड - कप , प्रमाणपत्र । छठी कक्षा में अंग्रेजी में सर्वाधिक अंकों के लिए रजत पदक मिला ।
आठवी में छात्र संघ की अध्यक्ष थी । लड़कों के स्कूल में केवल एक लड़की । पिताजी के स्थानांतरण के कारण स्कूल बदलते रहते थे कभी कन्या शाला तो कभी कोएड ।
समय पर स्कूल खुलते । पढ़ाई होती समय पर । परीक्षाएं भी और परीक्षा फल भी निर्धारित समय पर निकलता और छुट्टियां भी समय से ही होती । हर कार्य अनुशासित समय पर ही होता । कहीं कोई गफलत नहीं , गड़बड़ी नहीं । तो बड़ा शांति - सुकून रहता मनो मस्तिष्क में । यह नहीं कि स्कूल खुल गए हैं और किताबें ही नहीं मिल रही है वगैरह ।
वह शांति - सुकून भरा प्रदूषण रहित , खुला - खुला वातावरण !!! बड़ी शिद्दत से याद आता है !!
नवीं कक्षा में हमारे स्कूल से ट्रिप गई थी राजस्थान । तो बाकी सारे समान को एक तरफ छोड़ ( गोया की इस सब के बिना भी काम चल ही जाएगा । ) सबसे पहले , बड़ी याद से , संभाल कर रख ली थी एक कॉपी और पेन ।
बिल्कुल स्वप्रेरणा से ! न कहीं देखा , न सुना और न ही कहा किसी ने ! फिर भी !! बड़े एहतियात से रख लीं संभाल कर कॉपी - पेन !!!
लिखूंगी - कहाँ - कहाँ गए , क्या - क्या देखा ? किया - खाया - पीया सब । और लिखा भी ।
यानी मेरे लेखन की शुरुआत बिल्कुल अलग ढंग से - यात्रा वृतांत - से हुई ।
सचमुच आज स्वयं को बड़ा भाग्यशाली समझती हूँ कि मुझे इतने अच्छे शिक्षक और पाठशालाएं मिलीं जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व को संवारा - निखारा - तराशा । हार्दिक आभार ।
9406635557