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अक्षरा

 

अक्षरा

 

मुमकिन है

युद्ध का आवेग

कुछ थम जाये

थम जाये तो अच्छा हो

वो युद्ध जो बाहर है

दृष्टिगोचर भी

जाने किन बातों का युद्ध है

मुमकिन है

अलग अलग घटनायें हों

केवल

कुछ न कुछ तो हमेशा ही रहता है

पर जघन्य है

खान के मज़दूरों पर पुलिस की गोली

हीरे की खानो में हत्या

पर बड़ी निर्मम रही

पोलीस की बंदूक

बम फटते रहे

कोयले की खानो में

मुमकिन है

अब यही आये दिन की खबर है

घनघोर अलगाववाद

हर कहीं लड़ाई है

पर कैसे बताऊँ

क्या किया उन्होने मेरे साथ?

तब्दील हुई जैसे मेरी ज़िंदगी

लड़ाई के मैदान में

बिना जाने

कि कौन सा सैनिक

किस खेमे का है

कौन मित्र, कौन शत्रु

कौन सैनिक

कौन सिविलियन है

कौन कहाँ का नागरिक

और क्या उसके माने हैं

आखिर कितने लम्बे ताने बाने हैं

कौन सी घंटी दोस्ती की है

कौन खतरे की चेतावनी

जान न पाना

अजब नियती है

मज़दूरों की लड़ाई तो हमेशा से थी

क्या ये भी कहते हैं

जानकार कि हमेशा रहेगी

क्या सशत्र भी है

लड़ाई यह

अगर है

तो बुरा है

उनके अस्त्रों को मात नहीं

पर उनका क्या जो अक्षरों की मज़ूरी करते हैं?

 

----------पंखुरी सिन्हा

 

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