रचना के विवरण हेतु पुनः पीछे जाएँ रिपोर्ट टिप्पणी/समीक्षा

संग संग आया कोरोना का साया: समीक्षा

संग संग आया कोरोना का साया: पुस्तक समीक्षा


एक डॉक्टर ने कहा था, कि कोरोना विषाणु नही भयाणु है, इसका साया, इसकी परछाई इस भयाणु से बड़ी है… और हम इस डर की परछाई में जी रहे हैं..! 

जानकारी का अभाव, अज्ञानता, अफवाहें, परंपरागत रूढियाँ और राजनीति, ये कुछ कारण हैं जिनसे इस परछाई का आकार बढ़ता ही चला जा रहा है… .. 

और यही सब कुछ बड़े ही प्रभावशाली ढंग में व्यक्त किया है, नागेश शेवालकर जी ने अपने प्रथम हिंदी कथा संग्रह "संग संग आया कोरोना का साया!" में… 

दरअसल डर का प्रभाव इतना था कि हम लोग ध्यान ही नही दे पा रहे थे कि कोरोना काल में कुछ मजेदार या "हट के" बातें भी हुई हैं और उन्ही बातों को लेखक ने अपनी कथाओं का आधार बनाया.. 

पहली कथा "कोरोना आया बर्तन है धोना" में अन्ना, जिन्होंने अपने संपूर्ण जीवन काल में कभी एक गिलास इधर का उधर नही किया, वे कोरोना काल में पत्नी का हाथ बटाने के लिए रोज बर्तन धो रहे थे, झाड़ू लगा रहे थे.. 

दूसरी कथा "मेहमान आया कोरोना लाया" में ग्रामीण रुढिवादी विचारों पर तंज कसा है कि कैसे जमाई जी के स्वागत सत्कार में पूरा गाँव कोरोना की चपेट में आ गया! 

"सुषमा का चश्मा" बड़ी ही प्यारी "लवस्टोरी" बन पड़ी है जिसमें टीकाकरण के चलते जीवन के अंतिम एकाकी पड़ाव पर भाऊ साहेब को अपने कॉलेज का प्यार फिर मिल गया! 

"जल्दी के दर्दी" कथा पीत पत्रकारिता पर करारा व्यंग्य है, कि कैसे समाचार पत्र की बिक्री बढ़ाने के लिए संपादक कोरोना जैसे गंभीर विषय को भुना रहे हैं.. 

"सावित्री की वटपूर्णिमा" कोरोना काल के समय अचानक से सोशल मीडिया पर सक्रिय हुई महिलाओं पर आधारित विनोदी कथा है.. 

"हम चले टीका लगवाने" भी एक व्यंग्य कथा है जिसमें घटिया राजनीति और आधी अधूरी जानकारी के चलते पूरा गाँव कोरोना ग्रस्त हो जाता है.. 

"कोरोना का डर, भाग गए चोर" बड़ी मजेदार बन पड़ी है! इसमें एक बुद्धिमती वृद्ध महिला कोरोना को ढाल बनाकर चोरों को भगा देती है.. 

" सभी बेडरूम में बालकनी है… हर शयनकक्ष में संलग्न बाथरूम तो है, लेकिन एक संलग्न रसोई भी है! …हर शयनकक्ष में एक संलग्न पाईपलाइन है, साथ ही ऑक्सीजन प्रणाली भी है" ऐसे फ्लैट हैं "कोरोना नगरी" में जो हल्के-फुल्के मूड़ में भविष्य के भयावह सत्य की ओर इशारा कर रहे हैं कि कहीं सचमुच हमें इस तरह से न रहना पड़े! 

"कोरोना मंडल" चाल में रहने वाले लोगों के रोजमर्रा के जीवन पर कोरोना के साये का वर्णन किया है लेकिन एकदम हल्के फुल्के लहजे में.. 

चाल में रहने वाले दो प्रेमी "सोशल डिस्टेंसिंग" रखकर इश्क भी फरमाते हैं और ऑनलाइन विवाह भी कर लेते हैं..! 

अंतिम कथा जो कि शीर्षक कथा है, "संग संग आया कोरोना का साया" वह भी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित, सामाजिक ताना बाना बुनती एक कथा है, जिसमें गाँव का सरपंच चाहते हुए भी लॉकडाऊन का पालन करने में असफल हो जाता है… 

नागेश शेवालकर जी मराठी के श्रेष्ठ व अनुभवी साहित्यकारों में से एक है. आपका अभी तक का अधिकांश लेखन मराठी में होने के कारण इस हिंदी कथा संग्रह में भी मराठी की छाप है,  मराठी शब्दों और मुहावरों का प्रचूर मात्रा में प्रयोग हुआ है, जो कि बिलकुल स्वाभाविक है… 

लेकिन ये सभी कथाएँ इतनी प्रवाही व प्रभावी बन पड़ी है, कि मराठी शब्द होने के बाद भी वाचन बाधित नहीं होता.

कोरोना जैसे गंभीर विषय पर आधारित होने के बाद भी कथाएँ चेहरे पर एक मुस्कान छोड़ जाती है… और सोचने पर विवश करती है कि क्या सचमुच हम पर कोरोना से अधिक उसका भय तो हावी नहीं हो रहा?? 

रवीना प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक की छपाई एवं पृष्ठ अच्छे हैं. पाठकों को यह पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए.

लेखक नागेश शेवालकर जी को हृदय से धन्यवाद मुझे यह कथासंग्रह भेंट देने के लिए..! 

आपको आपके लेखन के लिए ढ़ेर सारी शुभकामनाएँ !! 


©ऋचा दीपक कर्पे




टिप्पणी/समीक्षा


आपकी रेटिंग

blank-star-rating

लेफ़्ट मेन्यु