यह विश्वास की बात है, अंधविश्वास की नही: लोटन बाबा
यह विश्वास की बात है, अंधविश्वास की नही: लोटन बाबा
एक फेमस डॉयलॉग है कि यदि किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने की कोशिश में लग जाती है..
कहते हैं, हमारी ये जो धरती ब्रम्हांड में टिकी है वह विश्वास के बल पर टिकी है…
एक शक्ति है, जिसे हमने ईश्वर का नाम दिया, उसपर विश्वास रखा कि वह है हमारे साथ..हर संकट का समाधान है उनके पास.
विश्वास के आगे- पीछे धीरे- धीरे कुछ उपसर्ग प्रत्यय जुड़ते चले गए फिर वह अविश्वास, अति विश्वास, अंधविश्वास और विश्वासघात में बदलता चला गया … और धरती पर बखेड़े शुरू हो गए..
तो बस, इसी शब्द "विश्वास" और उसके विविध रूपों के चारों ओर लोट लगाता उपन्यास "लोटन बाबा"
विश्वास ही तो था माँ को संतोष पर..संतोष को बच्चू बाबा पर और बच्चू बाबा को गाँव वालों के अंधविश्वास पर!
निमाड़ की आबोहवा ही ऐसी है, ऊपर से सूखा-सा, धूल भरा दिखाई देता है लेकिन एक बार जो निमाड़ की धरती पर पैर रख दिया उससे प्यार हो जाता है! और बस ऐसा ही है यह उपन्यास भी!
जब किताब का मुखपृष्ठ देखा, नाम पढ़ा मुझे लगा कोई गंभीर, राजनीतिक पृष्ठभूमि की या वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर तंज कसती कथा होगी.. उसका अंत भी शायद सकारात्मक न हो, या आधा अधूरा हो.. जैसा कि आजकल फैशन में है कि अजीब-सा अंत करके पाठकों को सोचता हुआ छोड़ दो!
लेकिन भैया किताब हाथ में ली और मैं तो धीरे धीरे उसमें घुसते चली गई, धंसती चली गई!
पहले आठ दस पन्नें पढ़े और लगा यह ज़रूर किसी असफल प्रेमी की कथा होगी..
लेकिन इस उपन्यास ने तो सफल प्रेम के मायने ही बदल कर रख दिये!
क्या प्रेम को पा लेना ही उसकी सफलता का पैमाना है? क्या प्रेम को किसी पैमाने में बाधा ही जा सकता है? आज के इस हूक अप, ब्रेक अप के रेगिस्तान में लोटन बाबा एक ओएसिस हैं!
मेरी एक धारणा गलत साबित हुई..
अगले कुछ पन्ने पढ़े, और लगा ज़रूर यह अंधभक्त नायक अपने ढोंगी गुरू का शिकार हो जाएगा..
लेकिन जिसका मन गंगा जैसा पवित्र और निश्चल हो, वह दूसरों के मन का मैल भी धो देता है..
हृदय परिवर्तित कर देता है..
अत: मेरी दूसरी धारणा गलत सिद्ध हुई.
आगे कुछ पन्ने फिर पढ़े और लगा कि जिस तरह लोटन बाबा गाँव के धार्मिक, सामाजिक मसले सलटा रहे हैं, यह उपन्यास अब राजनैतिक रंग लेगा, बाबा ज़रूर राजनीति में जाएंगे…
लेकिन नही! बड़े ही हलके फुलके ढंग से वे समस्याओं के चक्रव्यूह को भेद कर बाहर निकल आये! समझदार होने के लिए शिक्षित होना जरूरी नही है.. यह सीखना चाहिए संतोष से!
मेरे सभी प्रेडिक्शन फेल हो रहे थे.. सब कुछ अप्रत्याशित था और फिर मैंने अंदेशा लगाना बंद कर दिया!
उपन्यास ऐसा है कि रोमांच बढ़ता चला जाता है, एक तरफ क्या होगा आगे, यह जानने की उत्सुकता धड़कने तेज कर देती है, घबराहट बढ़ा देती है तो दूसरी तरफ संतोष और पंकजा के निस्वार्थ निश्चल प्रेम की बयार एक शीतल अनुभूति प्रदान करती है..
कहीं कोई अतिरेक नही, सहजता और रोचकता के साथ कहानी आगे बढती जाती है .. किताब हाथ से छूट नही पाती…
और जब कहानी खतम होती है तो हम विचारों के एक अलग "लेवल" पर होते हैं!
लोटन बाबा कहते हैं, "हम अक्सर चाहतों के साथ रहना चाहते हैं, हक़ीक़त को नजरअंदाज करते हुए.. ऐसा संभव नही है."
और अब मैं ज्यादा विस्तार से लिख कर उपन्यास का रोमांच नही खत्म करना चाहती इसलिए विराम देती हूँ..
इतना जरूर कहूँगी कि उपन्यास भावपक्ष और कलापक्ष के सभी पहलुओं पर खरा उतरता है!
देशकाल, भाषा और चरित्र चित्रण लेखक के गहन अध्ययन को दर्शाता है!
अमिताभ जगदीश जी को बहुत सारी शुभकामनाएं देते हुए अंत में इतना कहना चाहूँगी कि
आजकल के तनावपूर्ण जीवन में यदि सचमुच आप कुछ "हट के" पढ़ना चाहते हैं, तो "लोटन बाबा" अवश्य पढ़े.
लोटन बाबा से मिलकर आपको आपके कई सवालों के जवाब मिल जाएंगे..
पुस्तक: लोटन बाबा
लेखक: अमिताभ श्रीवास्तव
प्रकाशन: शॉपिज़न प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 135
कीमत : 202/- (शॉपिज़न पर)
©ऋचा दीपक कर्पे
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