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मां - मेरी मां

आज फिर वक्त के उन गलियारों में

घूम आने का दिल करता है,

जहां कई अनमोल रिश्तों में एक

मेरा और मेरी मां का नाता है।


पल्लू पकड़कर मां का मैं

उन्हें पुकारती रहती थी तब,

आज जगह बदल गई

मैं मां और सामने बेटी थी अब।


मां की छाती से लिपटकर

कितना सुरक्षित लगता था तब,

आज गले मिलने को तरसते

क्या वक्त आ गया है अब।


चिपक कर मां के वक्ष से

अमृत रसपान करते थे,

गोद में उनके बैठते ही

सिंहासन मानो पा जाते थे।


उंगली पकड़ उनकी आते जाते

रास्ते पर ना कभी गिरते थे,

हाथो में  जब वो लेती हाथ

हम सपनो में खो जाते थे। 


क्या खाना है, क्या नही

सब कुछ मां जानती थी,

नजर ना लगे बच्चोको

कितने उपाय मां करती थी।


कौनसा ऐसा प्रश्न नही

जिसका हल मां के पास नही,

कैसे बुझाती है यह पहेलियां

थी अनपढ़ पहेली खुद वही।


कदम कदम पर साथ

कभी आगे कभी पीछे थी,

जब मैं चढ़ रही थी ऊंचाईयां

सीढ़ी पकड़ वह नीचे थी।


रोती आँखोसे विदा किया

जब ससुराल मैं चली थी

नासमझ मैं बिछुड़ने का दर्द समझी

वह मेरे बंधित होने से आहत थी।


जब पेट में मेरे अंकुर

एक हिलोरे ले रहा था,

तब मां ने ही आनेवाले

सत्य का अहसास कराया था |


उस मां को क्या मैं भेट दूं?

आज जब मातृदिन है,

बस रहे हाथ हमें सर पर

भगवान इन्हे इतनी लंबी उम्र दे।

सौ. अनला बापट

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