सच्चे रिश्ते
सच्चे रिश्ते
"कल हल्दी है बिटिया की, आपके बिना अधूरा रहेगा सब फंकशन।" स्मृतिने अपने खास दोस्तो, मीरा एवं मुरारी को आमंत्रित करते हुए कहा।
और यह सच भी था की उसके पति विनयके जानेके बाद स्मृतिको उन दोनोका बहुत सहारा था। स्मृतिकी पेंशन लगवाने, नौकरी लगवाने से लेकर, घर किरायेपर चढ़ाने तकके सारे कामोंमें उन दोनोंने बहुत मदद की थी। और दो महीने पहले जब बिटिया, माही की शादी तय हुई तबसे तो जैसे मीरा, मुरारी की खुद की बेटी को शादी हो रही हो, इस तरह दोनो काम कर रहे थे। कभी कभी स्मृति सोचती,"आखिर क्या रिश्ता है मेरा इनके साथ? कुछ भी तो नहीं ,सिर्फ पड़ोसी है हम। फिर भी कितना कुछ करते है ये लोग हमारे लिए।माही से तो कितना प्यार है दोनो को..काश, भगवान उनको एक बच्चा दे देता तो ...।"
ना चाहते हुए भी विनयकी मृत्युसे लेकर अबतकके जीवनचक्रमें, अपनो परायोने कैसे उसके साथ व्यवहार किया था, सब आंखों के सामने से एक चलचित्र की भांति चल पड़ा।
जब विनय का देहांत हुआ था, तब माही सिर्फ दस साल की थी।
दस साल की बिटिया के साथ जब वह ससुराल पहुंची तो देवर देवरानी के चढ़े मुंह, विधवा सास की मजबूरी सब याद आ गया। जब मायके पहुंची तो भैया भाभीने कैसे उसे ससुराल रहने के लिए कारण बताए थे, सब एक एक करके उसे याद आ रहा था।
पर मीरा और मुरारी दोनो ने उसे कुछ समय देकर, यथार्थ से लढकर उसे अपने पैरो पर खड़ा करवाया। नौकरी, पेंशन इत्यादि काम निपटे,तो उसके बड़े घर में थोड़े बहुत बदलाव करके उसे किराए पर चढ़वाया, ताकि घर के किराएसे होनेवाली आमदनी, माहीकी शादीके लिए जमा होती रहे।
सोच विचार में रात गुजार गई।
सुबह बिटियाकी हल्दी पर, जब मीरा हल्दी लगाने आगे आई, स्मृतिकी सास आगे आई और बोली," बांझ हो, क्यों अपशुकन कर रही हो, इसे हल्दी लगाकर?"
सासका यह बोलना स्मृति और उसकी बिटिया दोनोको खल गया। स्मृति उठी और मीरासे जबरन हल्दी लगवाई। यह देख सास कुछ गुस्सा हो गई, पर मीराने अनदेखी कर दी।
शादीके समय जब कन्यादानका समय आया, सासने अपने बेटे यानी स्मृतिके देवरके नामकी गुहार लगाई। स्मृतिने भरेपूरे मंडप में साससे पूछा,"क्यों करवाऊ मैं इनसे कन्यादान?"
सास बोली,"बाप नही है, तो चाचाका अधिकार बनाता है।"
"क्या किया इन्होंने मेरी बिटिया के लिए? जब हमे सहारेकी जरूरत थी तो उन्होंने मूंह मोड़ लिया था आज किस बात का हक जाता रहे है ये?" स्मृति एकदम उबल पड़ी।
उसे गुस्सा हुए देख, उसका भाई आगे आया,"दीदी गुस्सा ना करो, हम कर देते है बिटियाका कन्यादान।"
"नही! तुम भी नही करोगे!" वह गुस्सेसे बोल पड़ी। तुमने कौनसा अपना कर्तव्य पूरा किया मेरी बिटिया के प्रति?"
"तो कौन करेगा,आप?" भाभी ने जानबूझकर आगमें घी डालनेका काम किया।
"नही, मैं नहीं करूंगी। कन्यादान करेंगे, मीरा और मुरारी! उन दोनों ने पिछले बारह तेरह सालोमे हमे जो अपनापन दिया है उसके बदले में यह कन्यादान तो बहुत छोटा है, पर मैं उन्हीं को कहूंगी करने के लिए।"
स्मृतिने आधिकारिक तरहसे इस तरह कहा की लोग सामने कुछ न बोल पाए पर अंदर आपस में खुसरपुसर होने लगी।
यह देख मीरा ने स्मृतिसे कहा, "स्मृति रहने दो, लोग बहुत कुछ बोल रहे है।और बिटिया को आशीर्वाद देनेके लिए हमे कन्यादान करनेकी जरूरत नहीं,हमारे आशीर्वाद तो सदैव उसके साथ है ही।"
तब स्मृति बोली,"मीरा, शायद तुम भूल रही हो की यह बोलने वाले वही लोग है,जिन्होंने अपने कर्तव्यकी पूर्ति अच्छेसे नही की है। ये लोग होते कौन है हमारे रिश्तेको तौलने वाले? दोनो तरफसे बोलने वाले ये लोग बाद में ऐसा भी बोलेंगे की मीराने क्या नही किया स्मृति के लिए पर स्मृतिने..। अतः इनकी बातो को मन पर ना लो और बिटियाका कन्यादान करो मेंरी और माहीकी खुशी के लिए।"
आखिर मीरा और मुरारीने ही कन्यादान किया।
तेईस साल की बिटिया दुल्हन बन जब मायकेसे ससुराल जा रही थी तो सबसे ज्यादा रोनेवालो में स्मृतिके अलावा मीरा और मुरारी भी थे।
विदाई के बाद धीरे धीरे घरसे मेहमानभी विदा हो गए। तब अकेली पड़ी स्मृतिको अकेलापन ना खले, इसलिए मीरा स्मृतिको जबरदस्ती अपने घरले गई।
पता नही शादीकी थकान थी या माहीके जानेका दुख, मीरा बीमार पड़ गई। दो दिन के लिए गई हुई स्मृतिको कुछ ज्यादा दिन वहा रुकना पड़ा क्युकी मीराकी तबियत खराब हो गई।
चार दिनकी बीमारीका बहाना हुआ, और मीरा चल बसी। अचानक हुई मीराकी मौतसे मुरारी जितने दुखी थे उतनी ही स्मृति और माही भी।
माही अपने पति नीरवके साथ आई।
नीरवने शादी के वक्त हुए सारे तमाशे को देखा था अतः उसने स्मृतिको सलाह दी,"मम्मी आप मुरारी अंकलकी देखभाल कर रहे हो, लोग आपका उनके यहां रहना अलग नजरसे देखते है,इसलिए अच्छा होगा आप शादी करले।"
नीरवका यह कहना स्मृतिको बहुत गुस्सा दिला गया पर उसने अपने गुस्सेपर संयम रखते हुए कहा,"बेटा लोगोका क्या है, लोग तो ऐसा भी बोलेंगे की हमारा कुछ अफेयर होगा हमदोनोनेही मीराको मारा होगा। या यह भी बोलेंगे की मुरारीने मेरी एकलताका फायदा उठाया,पर हमे पता है की सच्चाई क्या है। मुझे बताओ आप तो इस नई पीढ़ी के है, क्या एक स्त्री और पुरुष में सिर्फ मैत्री नही हो सकती? जरूरी है की उनके रिश्तेको कोई नाम दिया जाना चाहिए? मैं, मुरारी और मीरा हम तीनो सिर्फ मित्र थे और मैं इस मैत्री के रिश्ते में ही रहना चाहती हूं क्योंकि इससे उमदा कोई नाता नहीं है यह मैं अनुभवसे समझ गई हूं।और हां आप भी लोगोकी सुनने के बजाय लोगोको समझने की कोशिश करेंगे तो शायद आपकोभी समझ में आएगा की लोग तो दोनो तरफसे कहते ही रहते है, हमे तय करना है की हमारा जीवन हमे कैसे जीना है !"
स्मृति की बात सुनकर नीरज उसके स्पष्ट और खुले विचारोसे अभिभूत हो उठा, उसने उठकर स्मृतिके चरण छुए और बोला,"मम्मी आपके विषय में मैने मनमे कई गलतफहमियां पाली थी,जो आज सब मिट गई।आप सच में बहुत अच्छे और सच्चे हो।"
स्मृतिके मन में आया चलो कमसे कम एक व्यक्तिके आंखोके आगे का धुंधलापन दूर हुआ,और उसे सच्चे रिश्तेका अर्थ समझमें आया।
©सौ. अनला बापट
७०४३३४९८१७
राजकोट