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मझधार

मझधार

जो लोग खो जाते हैं, वो दरअसल कहाँ जाते हैं? क्या वो कभी लौट के नहीं आते? मैं जब भी आसमान में देखता हूँ तो मुझे बादलों का झुरमुट नज़र आता है। आपस में सटे हुए बादल। ऐसा लगता है मानो एक दूसरे से कभी जुदा होने वाले न हो। पर सहसा हवा का एक तेज़ झोंका आता है और सब बिखेर के रख देता है। सब कुछ तितर-बितर हो जाता है। मझधार में फंसी नाव तूफानों से लड़कर, थककर कभी-कभार हार मान लेती है, ठीक उसी तरह।

‘पाँच साल बाद इंडिया लौट रहे हैं, घर नहीं जायेंगे पहले?’ धारा ने बिना मेरी ओर देखे ख़ामोशी तोड़नी चाही।

हर तरफ़ अँधेरा छाया हुआ था। मैंने गाड़ी को सुनहरी झील के रस्ते मोड़ दी थी। धारा अब भी खिड़की के बाहर झांक रही थी। अँधेरे में क्या खोज रही होगी? बीते पल टटोल रही है? शायद दिन के भ्रमित कर देने वाले उजालों में जो नहीं पा शकी वो? क्या जवाद देता मैं उसके सवाल का? क्या यह कहता कि मत्स्या से मिलने जा रहा हूँ, जो पाँच साल से कहीं खो गई है? खो गई? ऐसे कैसे खो गई? कोई कैसे खो जाता है?

‘मैं अगर कहीं नहीं मिली, तो यहीं पे मिलूंगी।’ मत्स्या ने एक बार कहा था, सुनहरी झील में पीपल का पत्ता नाव की तरह बहाते हुए... मैंने भी तब कह दिया था, मैं तुम्हें खोने ही नहीं दूंगा, ढूँढने का अवसर ही नहीं आएगा!

‘एक पुराने दोस्त से मिलना है।’ मैंने आगे का रास्ता देखते हुए धारा से कहा। ‘घर तो कभी भी जा सकते हैं।’

‘ठीक है। मुझे आगे वाले मोड़ पर छोड़ देना। मैं ख़ुद चली जाउंगी घर...’

‘ऐसे कैसे तुम्हें बीच राह में छोड़ दूँ? वो भी आधी रात...’

‘तुम पहले ही मुझे छोड़ चुके हो।’ धारा ने आँखें बंध कर लीं। ‘अँधेरा अब मुझे परेशान नहीं करता, कम से कम वो साथ में तो होता है!’

मेरे पास कोई जवाब नहीं था। पाँच सालों से कई सारे अनकहे जवाब तलाश रहा था। मै मत्स्या के बारे में सोचने लगा। जैसे वो मेरे रूबरू थी। तुम्हें पता है, मत्स्या, जब तुम कविता लिखती हो, तुम तुम नहीं रहती? जैसे खो जाती हो कहीं; सबसे दूर हो जाती हो। जब तुम कविताई करती हो ना, मैं मैं बन जाता हूँ; जैसे मिल जाता हूँ ख़ुद से; तुम्हारे ओर क़रीब आ जाता हूँ। तुम्हें खो जाना पसंद है; मुझे मिल जाना।

‘अकेले ढूँढ पाओगे उसे?’ धारा ने इस तरह मेरी ओर देखा जैसे एक अरसे बाद कोई अपने किसी परिचित को देखता हो।

‘तुम आना चाहोगी मत्स्या से मिलने?’ मैंने जवाब के बदले सवाल किया।

जवाब तो उसने भी नहीं दिया। एक और सवाल खड़ा कर दिया – ‘क्या तुम्हें यकीन है कि तुम उसे मिल पाओगे?’

धारा बेग खोलने लगी। उसने एक साड़ी निकाल ली। सफेद साड़ी, जिसकी किनारी लाल थी। मत्स्या जब सुबह सुबह झील के किनारे चली आती थी, तो वो बंगाली साड़ी पहनकर आती थी। वो हल्के उजाले में कविता लिखती रहती और धुंध उससे सूरज निकलने तक लिपटी रहती थी। मुझे वो मंज़र याद आया जब मत्स्या कविता लिखती थी – अपना दायाँ पैर झील के पानी में डुबो देती थी वो। मैं उन रंगबिरंगी मछलियों से जलने लगता था, जो उसके पैर के तलवे को चूमती रहती थीं। उसकी उंगलियाँ कलम से लफ़्ज़ों को कागज़ पे बिखेरती रहती। उन शब्दों में मैं खुद को ढूँढने लगता, तभी हवा का एक तेज़ झोंका आकर उस कागज़ को उड़ा ले जाता। मैं उन हवा की हर परतों से जलने लगता, जो मत्स्या के लिखे लफ़्ज़ों को अपनी आगोश में लिए आसमान में उड़ गई थी। वो ऐसे ही खो जाती थी। उसे खो जाना पसंद था, और मुझे मिल जाना।

झाड़ियों से गुज़रते हुए मैं गाड़ी को सुनहरी झील के किनारे तक ले गया। मैं एक झटके से उतर गया। ख़ामोश पानी को घूरने लगा। कोहरा पहले से ज़्यादा नज़र आ रहा था। मैं उस पत्थर की ओर लपका जहाँ बैठकर मत्स्या कविता लिखती थी। वो पत्थर ख़ुश्क पड़ा था, क्योंकि तालाब से पानी की बूँदें अब उस पर गिरती नहीं होंगी; क्योंकि अब पानी में मछलियाँ उछलती नहीं होंगी; क्योंकि रंगबिरंगी मछलियों के साथ गुफ़्तगू करने के लिए किसी ख़ूबसूरत पैर का तलवा अब नहीं था वहाँ।

मैं मुड़ा। दूर धुंध पहनकर कोई खड़ा था। वो ही लाल-सफेद साड़ी, बंगाली फ़ैशन की... मैं उस ओर खिंचा चला गया।

‘मत्स्या?’ मेरे मुँह से दबी-सी आवाज़ निकली। मैंने धुंध की परतों को दोनों हाथों से हटाने की कोशिश की। धूमिल-सा दृश्य कुछ साफ़ हुआ।

‘मत्स्या नहीं – धारा।’ उसके मुँह से निकला।

मैं उदास हो चला। मत्स्या को कहाँ ढूँढता?

‘वो झील देख रहे हो, मानव?’ धारा ने कहा।

मैं झील की ओर देखने लगा। कभी काँच के जैसा पारदर्शी रहने वाला पानी आज मटमैला लग रहा था।

‘देखो तो, उसमें रंगबिरंगी मछलियाँ तैरती नज़र आ रही है?’ धारा जैसे मुझे मौका dदे रही थी; आख़िरी मौका। ‘और वो सुनहरी मछली भी... अगर है, तो मैं मत्स्या बन जाऊँगी, फिर से – पहले वाली मत्स्या।’

मैं दौड़कर झील के किनारे पहुंच गया, जहाँ से गहरे पानी के तह तक झांक सकूँ। पानी बहुत आलसी हो गया था। काहिल हवा के झोंकों के साथ उछलता-कूदता पानी कब थककर सो गया, पता ही नहीं चला। पता चलता भी कैसे, पाँच साल तो यहाँ विराना ही बसता रहा होगा। मैं वहीं पे लेट गया, पेट के बल। हाथ पानी में डाल कर यूँ हिलाने लगा मानो किसी गहरी नींद में सोये हुए अनजान व्यक्ति को जगाना चाहता हूँ। मैं चाहता था कि मछलियाँ मुझे दिख जाएँ। पर कीचड़ के आलावा कुछ मेरे हाथ नहीं लगा। मैंने अपना सिर झुका लिया। शरीर को हल्का छोड़ दिया जैसे समाधि में लेटा हूँ।

सहसा मुझे कुछ याद आया। मैं गर्मजोशी में उठ खड़ा हुआ। पीछे मुड़ा। मुझे लगा था धारा वहाँ से चली गई होगी, लेकिन वो वहीँ खड़ी थी, किसी चहेते पल का इंतज़ार करती हुई। मैं लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर दौड़ पड़ा। नज़दीक जाकर गहरी साँसे लेने लगा। ‘मुझे लगा...’ मैं कुछ कहना चाह रहा था, पर बोलने वो लगी।

‘क्या लगा, कि मैं खो गई हूँ? यही लग रहा था ना तुम्हें? बरसों से...’

मैं उसे देखता रहा; उसे सुनता रहा।

‘मैं तो यहीं पर ही थी, लंबे अरसे से!’ अब उसकी आँखें बोल रही थी। ‘खो तो तुम गये थे, मानव! कई सालों से। जब से मिले हो तुम, खो ही तो गये हो! तुम्हें तो मिल जाना पसंद था ना?’

मैं सहमा सा उसे देखता रहा। ज़िंदगी की आपाधापी में मैं इतना व्यस्त हो गया था कि मत्स्या तक को भूल चुका था। अब लगता है, किस काम की थी वो भागदौड़? सुखमय तो थे कॉलेज के पुराने दिन... एक साथ पढ़ना; एक साथ क्लास बंक करना; और फिर अकेले में मिलना, घूमना, ढेर सारी बातें करना...

कविता लिखना धारा का शौक था, मानो कविता की गोद में वो सुस्ताने लगती थी। वो लिखती रहती और ठंडे पानी में छोटी छोटी मछलियों के साथ लुका-छिपी खेलती रहती थी। उन रंगबिरंगी मछलियों में एक मछली सुनहरी थी। धारा ने तो उसका नाम भी रख दिया था – मत्स्या... वो उसे बड़ी प्यारी लगती थी। जैसे वो पानी में तैरती जाती, वैसे ही धारा की परिकल्पना का दायरा फैलता जाता। मत्स्या तैरती रहती; धारा लिखती रहती; और ऐसे ही उनके मासूम अनुराग का कारोबार चलता रहता था। फिर वो नाम धारा को इतना पसंद आया कि उसने अपना तख़ल्लुस भी ‘मत्स्या’ ही रख दिया।

मैंने उसकी ही ज़ुबानी उससे इज़हार कर दिया था... वो बैठी थी झील के किनारे, अपना दायाँ पैर पानी में डुबोकर। कुछ लिख रही थी; उसका उल्टे हाथ से लिखना मुझे बेहद पसंद था। मैंने पीपल के एक हरे पत्ते पे कुछ लिखकर पानी में उसकी ओर बहा दिया। कॉलेज में जैसे हम कभी-कभी कागज़ के हवाई जहाज उड़ाया करते है, किसी ख़ास का नाम उस पर लिखकर। लेकिन बिना पायलोट वाला प्लेन उसपे  जिसका नाम लिखा हो उस ‘रनवे’ को छोड़ कहीं ओर ही लेंड कर देता था। लेकिन पत्ता बहता बहता उसके पैर से लिपट गया। उसने पानी में से पत्ता निकाला। पढने लगी – ‘सुना है, मत्स्या, तुम जहाँ जाती हो वहीँ की हो जाती हो! एक बार जब तुम खंडहर घूमने गई थी, तो वहाँ का ज़र्रा-ज़र्रा अपना लिया था। चिंघाड़ती खामोशियाँ, ढहती दीवारें, छटपटाती बेलें... सबको तुमने गले लगा लिया था। जानती हो, अब वहाँ अमिट आबादी रहती है? सुनो... तुम मेरे घर क्यों नहीं चली आती?’

और वो मुस्कुरा दी। साथ में वो सारी मछलियाँ भी ख़ुशी की मारी गोते लगाने लगीं। हम करीब आते चले गए। मानव और धारा... इतने निकट कि... फिर हमने शादी कर ली। फिर? फिर क्या? उड़ गये दोनों अमरीका, वो भी एक साथ... और पीछे छूट गये वो सुहाने पल, सुनहरी झील और रंगबिरंगी मछलियाँ; साथ में वो सुनहरी मछली भी।

मैंने धारा का हाथ थाम लिया, कसकर। उसे खिंचता हुआ झील के किनारे तक ले आया, जैसे गुज़रे हुए लम्हों को खिंच के वर्तमान में लाया जाता है, ठीक उसी तरह। मैंने धारा को एक पत्थर पे बिठाया। उस पत्थर में जान आती हुई मैंने महसूस की। मैं उसके पैरों के करीब बैठ गया। उसकी साड़ी को पैरों से थोडा-सा उपर तक उठाया, घुटनें तक। उसके गोरे पैरों को मैं कुछ देर तक ताकता रहा। मानो चाँद बदली से निकल आया हो। फिर उसके बायें पैर को हल्का-सा ऊँचा कर के उसपे उसका चेहरा टिका दिया। दायें पैर को सहलाते हुए आगे किया, फिर धीमे से पानी में डूबो दिया।

मैं पानी में नज़रें ठहराते हुए कुछ पल वहीँ बैठा रहा। इस उम्मीद से कि पानी में कोई हरकत हो। कुछ पल कशमकश के बीतने के बाद मैंने उसके पैरों में हल्की सी थरथराहट को महसूस किया। मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा। झील का पानी धीरे धीरे पारदर्शी होता नज़र आ रहा था। कुछ मछलियाँ धारा के पैर के इर्द-गिर्द घूम रही थीं। फिर धीरे धीरे वे सभी रंगबिरंगी मछलियाँ उसके पैर के तल को चूमने लगीं; झूमने लगीं।

मैं भी ख़ुशी से लहरा उठा। धारा फिर से मत्स्या बन चुकी थी, पहले वाली मत्स्या, पाँच साल पहले वाली कॉलेज-गर्ल, जो कविता लिखा करती थी; जो कविता जीया करती थी।

मैं उसके पैर चूम रही उन रंगबिरंगी मछलियों से जलने लगा, ख़ास कर वो सुनहरी मछली, जिसका नाम मत्स्या था, जो मेरी मत्स्या को गुदगुदी करती हुई चूमे जा रही थी; और मत्स्या भी उसे लाड लड़ाते हुए खिलखिलाकर हंसे जा रही थी। पर इस जलन में मैंने महसूस किया कि मेरे हृदय पर प्रेम की बूँदा-बाँदी नहीं, तेज़ बर्फ़बारी हो रही है!

***समाप्त***

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