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एक प्रेम कहानी - जंगली जलेबी

क प्रेम कहानी- जंगली जलेबी 

वह पहले की तरह आज भी पूरे ग्यारह मिनिट लेट थी। 

लड़का सामने सीढ़ियों की ओर निगाहें बिछाए उदास सा बैठा था। वह समय से कुछ पहले ही आकर यहाँ नियत स्थान पर बैठ गया था। लड़के को डर था कि यदि न पहुंच सका तो वह कहीं आकर, लौट न जाए! लड़के के दिल में न जाने कितनी, नामालूम सी हलचलें हो रहीं थीं। 

वह आएगी या नहीं आएगी! इसी को सोचता हुआ लड़का मायूसी में घिरा बैठा था।

 

तभी वह एक बैग को कंधों पर टांगे दूर से आती दिखाई दी। 

लड़का सोच में डूबा अपने नाखून चबा रहा था! अभी वह अपने में गाफिल ही था कि आकर वह न जाने क्या कहेगी! पिछले दिनों कुछ बातें ऐसी हो चुकीं थीं कि अब लड़के को खुद पर भी भरोसा नहीं था। 

गलती तो उससे भी हुई थी, पर क्या करे! कहे कैसे! अब तो वह समय गुजर गया था। 


उनके बीच उस रात न जाने किस झोंक में बहस बढ़ी थी और फिर बहसें बढ़ते हुए एक दूसरे से अलग हो जाने तक की सीमा पार गईं। लड़की ने रोते हुए अपने दिल की ख़्वाहिश जाहिर कर दी थी, 


-"मैंने न जाने क्या सोच कर तुमसे प्यार किया था!! लेकिन गलती मेरी ही थी। मैं अभी और इसी वक्त यहाँ से जाना चाहती हूँ। आज के बाद मैं तुम्हारी शक्ल तक नहीं देखना चाहती।" 

लड़के ने भी धमकी भरे स्वरों में फौरन कह दिया था,

 -"ओक्के, कल जाती हो तो आज ही और अभी चली जाओ। मुझे बहुत खुशी होगी!" लड़के का चिढ़ा हुआ जवाब आया था। 


दरअसल उस लड़की की भी जुबान लड़के की मनमानी, रोज की बहसें और जरा जरा सी बातों पर क्रोध करने के कारण अपने आप ही फिसल गई थी। 

वह रात भर दूसरे कमरे में पड़ी सिसकती रही और सुबह बिना कुछ कहे सुने, अपना बैग उठा कर चली गयी थी।


उसे यों जाते देख कर लड़के का दिल धक से रह गया। दिल ने कहा कि जा, दौड़ कर उसका हाथ पकड़ ले, उसे मना ले! कह दे कि मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा! मैं अब कहीं भी तुम्हारे बिना सुखी नहीं रह सकूंगा! मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं!  जो हो गया, वह गलती से हो गया! मत जाओ न!" 

लेकिन अपनी ईगो के चक्कर में वह कुछ भी नहीं कह पाया।  


पूरे तीन महीने का समय गुजर गया था। 

लड़की सधे कदमों से उसके समीप आती जा रही थी। उसके एक हाथ में पानी की बोतल थी और दूसरे हाथ में एक लिफाफा था। ऐसा लगता था कि वह उस लिफाफे को किसी को देने का विचार रखती थी, इसलिए हाथ में अलग से रख रखा था। 


लड़के ने सोचा, कहीं वह इस लिफाफे को ही देने तो नहीं आई थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़की उस रात की बात अभी तक भूली ही नहीं थी। जबकि वह तो भूल भी चुका था! उसे तो बस लड़की और उसका प्यार भरा सानिध्य याद रह गया था।  

लड़का यह भी अंदाजा लगा रहा था कि उसने झोंक में आकर लड़की को अलग होने की जो झूठी धमकी दे दी थी, कहीं वह उसी को क्रियान्वित करने के उद्देश्य से तो यहाँ तक नहीं आई है! वरना लड़का तो हैरान भी हुआ था कि बुलाने का आग्रह करने पर वह एक झटके से कैसे मान गई!

अगर ऐसा होगा तो वह क्या करेगा! 

उस दिन तो बहस पर बहस बढ़ती गई थी वरना लड़का तो आज भी उस के साथ आधे चाँद के नीचे अपने दिल की ख्वाहिशें लड़की के साथ शेयर करना चाहता था। 

उसने अपने सिर को उठा कर देखा। पेड़ पर ढेर सारी जलेबियाँ लटक रही थी टेढ़ी मेढ़ी मगर रसीली खट्टी मीठी जंगली जलेबियाँ।


क्या इन्हीं की तरह प्यार की लाइफ भी टेढ़ी मेढ़ी और खट्टी मीठी होती होगी! 

कभी प्यार की चाशनी से भीगी सरपट दौड़ती सड़क तो कहीं काँटों भरी राह में उलझते खटास पूर्ण लम्हे! जिसने इन दोनों को समझ लिया, वही अंततः सफल राही बनकर मंजिल पार कर पाया।  


लड़का तो आज भी उन सरदीली रातों को लड़की का हाथ थामे हुए, पुराने बचपन के किस्से बार बार उसके फूल से होंठों से सुनते हुए, उन्हें दोहराना चाहता था।

 उसके बदन पर अपनी अंगुलियों से सितार के राग छेड़ने का सुख लेना चाहता है। 


उसके शर्माते चेहरे पर फूंक मार कर, उसे खिलखिलाने पर मजबूर कर देने का आइडिया लड़की को इतना पसंद आता था कि लड़का जितनी बार भी उसे हंसाता, वह अपनी शोख निगाहों, मुसकुराते होंठों और  झुकी हुई पलकों से उसे उतनी ही बार निमंत्रण देती कि और हंसाओ, हंसाते रहो मुझे। 


लड़का आज भी गर्मियों की तारों भरी रातों में अपनी छत पर बिस्तर बिछा कर लेटना चाहता था मगर यहाँ महानगर की आपाधापी में उन्हें बस बालकनी ही मिल पाती थी। 

छत पर तो वे रातों को तारों के नजारे, जब गाँव जाते कभी, तो ही देख पाते थे। 

तब लड़की उसके सीने पर अपना सिर रखे हुए, किसी टूटते तारे से मन ही मन अपनी दुआ मांगती होती थी और लड़का चुपके से तारों की हल्की सी रोशनी में मुसकुराता हुआ उसे देखता होता था। 


वे कितने सुकून भरे पल होते थे! 

लड़का अभी भी मन की वादियों में, उन गुजरे हुए प्यार भरे पलों में पूरी शिद्दत से टहल रहा था।

वह वहीं लौट कर वापिस जाना चाहता था और लड़की को बड़ी आस लगाए, हसरतों वाली निगाहों से देख रहा था। 

सुना था आजकल वह किसी सहेली के साथ पी जी में रहने लगी थी।

 जब उसकी निगाह लड़की के हाथ में पकड़े हुए लिफाफे पर गई तो वह मन ही मन दहल गया। जो लड़के को अपना दिल तोड़ने का संदेश देता लग रहा था। 


तब तक लड़की उसके बिलकुल नजदीक आ चुकी थी। 

उसने अपने हाथ के लिफाफे को झुककर पेड़ के बगल में उग आई जड़ों की गुंजलक और छोटे से पत्थर के एक टुकड़े के बीच रख दिया है। फिर कंधों पर टंगे बैग को भी उतार कर लड़के के बगल में रख दिया है। तब तक लड़के ने अपना हाथ आगे बढ़ाया और उसे सहारा देते हुए बैठने का इशारा किया। 


लड़की ने अपने गले में पहने मोरपंखी स्कार्फ को खोलते हुए हथेलियों में भरा और अपने नीले टाइट जींस और नीली बूटियों वाली गुलाबी कुर्ती को समेटती हुई, वहीं बगल में चुप चुप सी आ बैठी थी। कोई चार महीने पहले यह कुर्ती लड़के ने उसकी सालगिरह के अवसर पर गिफ्ट की थी। उसे लड़की के तन पर देख लड़के को अच्छा सा लगा। 


चारों ओर घास उगी हुई है और सर के ऊपर था जंगली जलेबियों का वही छायादार पेड़, जहां बैठना उन्हें पसंद था।

 खूब हरी भरी छायादार पत्तियाँ और टेढ़ी मेढ़ी, गोल, मीठी जंगली जलेबियों के कुछ हरे, कुछ कत्थई फल उस पर लदे पड़े हैं। 

यह स्थान उन दोनों के बैठने का पसंदीदा स्थान रहा, जबसे वे इस शहर में आए थे। जब से वे कालेज में पढ़ रहे थे, तब भी, उसके बाद भी हमेशा। 

इस पार्क में लोगों की ज्यादा आमद नहीं रहती थी। छुट्टी पड़ते ही, लड़की सप्ताह भर के ऑफिस और घर के कामों से, अकसर ही ऊबने लगती। 

तब वह प्रस्ताव रखती,

 -"चलो हम घूमने चलें, यहाँ दो कमरों के मकान में मेरा दम घुटने लगता है। मुझे कुछ देर खुला आकाश देखना है।"

लड़का भी लड़की की बात मान कर फौरन अपनी टी शर्ट, जींस बदलता और कार की चाबी उठा कर रेडी हो जाता चलने के लिए।

 उस शहर में वे जबसे पढ़ने आए थे, उनकी छुट्टी वाली शामें ऐसी ही गुजरती थीं लेकिन तब वे वहाँ ऑटो रिक्शा से जाया करते थे। 

पहले भी वे अपने रहने की जगह से, समय तय करके पहुँचते थे। फिर एक दूसरे की धड़कनों की मौन आवाजें सुनते हुए घंटों बैठे रहते। जब तक लड़की चलने के लिए नहीं कहती थी। लौटते हुए कहीं स्ट्रीट फूड खाते पीते और अपने हॉस्टल या पीजी चले जाते। कार की चाबियाँ तो बहुत बाद में आईं थी, जब उन्होंने शादी कर ली थी। 

कहते हैं कि यदि लवर्स की शादी हो भी जाए तो भी लड़की उम्र भर प्रेमिका ही बनी रहती है। वह उतने ही अटेन्शन, नाजो नखरे से, मानिनी बनकर, उसी अंदाज से जीना चाहती है, जिस तरह से लड़के के साथ पहले रहती थी।

पर वही यह भी चाहती है कि लड़का पूरी तरह से टिपीकल पति बन कर रहे और अपने पति होने की सारी जिम्मेदारियाँ उठाए! उससे बेशर्त, बिना आधिपत्य के, उसकी हर छोटी से छोटी बात का खयाल रखते हुए, केयर करते हुए प्रेम करे, तब उसका वह रूप स्त्री को सबसे ज्यादा लुभाता है! 

वही रूप उसे पुरुष के साथ जन्म जन्मांतर तक बांधे रखने में सक्षम होता है लेकिन होता यह है कि पुरुष इन बातों की उम्मीद स्त्री से तो करता है, पर खुद भूल जाता है। विवाह होने के बाद आधिपत्य करना खूब जानता है जो करना चाहिए, वही नहीं करता। 


अब तक लड़की पास आ चुकी थी। लड़के को याद आया, शादी के बाद लड़की सोलहों श्रंगार किए हुए गाँव से शहर लौटी तो उससे दिल्लगी करते हुए पूछने लगी थी, 

-"अब मैं तुमसे ऐ जी....  ओ जी..... कहूं या वही पहले जैसे नाम लेकर पुकारूँ! 


तब लड़का भी दिल खोल कर हँसा था, -"ना जी, मुझे तो ऐ जी... ओ जी.... कहलाते हुए शर्म आएगी। तुम तो मुझे, पहले जैसे नाम लेकर ही पुकारा करो! वरना मुझे लगेगा कि मैं न जाने किस सावित्री, सुनीता बाई को अपने गाँव से व्याह कर ले आया। फिर दोनों एक दूजे के गले में बाहों के हार पिरो कर देर तक हंसते रहे थे।

न जाने किस की नजर लग गई हमारी उन दिल्लगियों को! लड़के ने सोच कर बड़ी सी आह भरी। 

उस ने लड़के के उदास चेहरे को देखते हुए धीरे से उसे पुकारा, 

-"कैसे हो वैभव!"

ऐसा लग रहा था कि लड़की के स्वर भीगे हुए हैं और आवाज कहीं दूर से आ रही है!

 -"तुम कैसी हो बिन्नी!" वैभव ने नजर चुराते हुए, उसे तिरछी निगाहों से देखते हुए पूछा। उसके स्वर मुलायम हो रहे थे।  

बिन्नी ने जवाब नहीं दिया, वह चुप ही रही, पर उसकी आंखों में गिले शिकवे उलाहने थे। शायद कहना चाहती थी कि इतने दिन हो गए, मैं कहाँ गई! कैसे हूँ! जानना तक नहीं चाहा था! 

क्या यही था तुम्हारा प्यार। इतने दिनों में एक बार याद तक नहीं किया! अब ध्यान आया कि मैं भी हूँ इस दुनिया में! पर कहा कुछ नहीं। थोड़ी देर बाद प्रकट में वह बोली, 

-"लो, तुम्हारे लिए कुछ लाई हूँ।" बिन्नी ने वैभव के हाथ में लिफाफा थमाना चाहा। 

लड़के ने लिफाफे को देख लिया था, पर हाथ तक नहीं लगाया। उसे जिन पेपर्स के रखे होने का अंदेशा लिफाफे में था, उसको सोचकर वह हाथ लगाता भी क्यों! वह बात बदल कर फिर से बोला,

-"तुम्हारी जॉब अच्छी चल रही है!"

-"हूंअ, ठीक ही चल रही है।" बिन्नी ने एक लंबी सी हूंअ के बाद कहा। पूछा भी, 

-"और तुम्हारी!"

-"मेरी भी ठीक ठाक चल रही है!" वैभव के दिल में बिन्नी से बात करते हुए झंझावात से चल रहे थे।  

-"लो देखोगे नहीं, इसमें क्या है!" एक बार फिर बिन्नी ने वह लिफाफा उसे थमाया। अबकी बार वैभव ने वह लिफाफा पकड़ लिया, पर उसने उसे खोला नहीं। पूछ कर ही उसने काम चलाया,

-"इसमें क्या है!" 


-"खोल कर तो देखो।" अबकी बार जवाब देते हुए बिन्नी के प्रसन्नता भरे स्वर उसे जरा सा आश्वस्त भी कर रहे थे और डरा भी रहे थे। उसने सोचा, क्या इसने किसी और को पसंद कर लिया होगा!!

 वैभव ने भी बिन्नी से कहा,

-"लो, मेरे पास भी तुम्हारे लिए कुछ है!" 

उसने एक सफ़ेद रुमाल में लिपटा हुआ कुछ उसे पकड़ाया। लड़की ने अधीर होकर रुमाल के सामान को अपनी गोद में रखा और देखने लगी। उसमें से खोलने के पहले ही उसमें से खुशबू आ रही थी। रुमाल में से बहुत सारी रसीली जंगली जलेबियाँ निकली।" 

लड़की के मुख पर हंसी बिखर गई।

 -"तुमने तोड़ीं हैं मेरे लिए! अभी!"

-"हाँ और क्या! अभी तुम्हारे आने से पहले ताजा ताजा तोड़ीं हैं। मालूम है कि तुम्हें ये बहुत पसंद हैं।"

पहले भी हमेशा जब बिन्नी यहाँ आकर बैठती और सीजन होता जलेबियों का तो वह उससे तोड़ने की मनुहार, इसरार तब तक करती रहती थी, जब तक वह राजी नहीं हो जाता था। फिर भी वैभव कहता, 

-"यार! इन्हें तोड़ते वक्त मेरे उँगलियों में ढेर सारे कांटे चुभ जाते हैं, फिर कई दिनों तक दर्द होता रहता है। तुम्हें तो बस जलेबी दिखती है उसके कांटे नहीं दिखते!" 

वह फिर से इसरार करती, 

-"वैभव, तोड़ दो न प्लीज!" तब वैभव नखरे दिखाता हुआ कहता,

 -"इतनी सारी तो पड़ीं हैं, उठा लो!" तब बिन्नी भी ठुनकते हुए कहतीं, 

-"इश्श ....जमीन पर पड़ी चीज भी कोई खाता है! क्या पता वहाँ पर कौन कौन से कीटाणु होंगे।"

वह उसे चिढ़ाता, -"प्यार के कीटाणु होंगे!"

फिर वह जलेबियों को तोड़ते हुए अपने रुमाल में रखना चाहता तो बिन्नी अपनी छोटी सी नोकदार नाक चढ़ाते हुए कहती,

-"तुमने खाना खाने के बाद ना जाने कितनी बार इससे अपनी नाक पौंछी होगी! रुको, इन्हें मेरे दुपट्टे में डाल दो।" वह उन जलेबियों को रुमाल तक ले जाने के पहले ही अपने दुपट्टे या स्कार्फ की झोली बनाकर उसके सामने कर देती। फिर उन्हें अपने दुपट्टे या स्कार्फ के कोने में सहेज लेती और वैभव झेंपा सा कहता रह जाता , 

-"कसम से, ये रुमाल बिलकुल धुला रख कर लाया हूं। तुम भी न बस हद करती हो!" पर बिन्नी न मानती। 

आज भी वही बातें बिन्नी को याद आ गईं थीं। उसने झट से वैभव के हाथों को थाम कर अपनी ओर खींच लिया। देखा कि उसकी उँगलियों में दो तीन जगह पर काँटों के चुभने के निशान थे। 

वह अपने आस पास देखती है उसे कुछ जंगल जलेबी की ताजी गिरी हुई पत्तियाँ भी दिखतीं हैं, वह जलेबियों के रुमाल को सहेज कर वहीं बैग के ऊपर रख देती है। 

गिरी हुई पत्तियों में से नर्म नर्म को चुना, दूर जाकर उन पत्तियों को धोकर लाती है। फिर उनको अपनी हथेली पर रख खूब मसल कर, उसका रस वैभव के हाथों के कांटे चुभे निशानों पर अच्छी तरह से लगा दिया। फिर बोली,, 

-"जहां से दर्द मिलता है वहीं उसकी दवा भी मौजूद होती है। तुम्हें पता है न कि इसकी पत्तियों के रस में दर्द को कम करने का आश्चर्यजनक गुण होता है।" बिन्नी को ऐसी ढेर सारी छोटी मोटी काम की बातों की जानकारी है, जिसे देखकर वैभव प्रभावित होता रहा है। 

बिन्नी को प्यार भरी निगाहों से देख कर वह मुस्कुरा दिया, उसने बिन्नी के वाक्य को दोहराया,


-"जहां से दर्द मिलता है वहीं उसकी दवा भी मौजूद होती है, मगर मुझे दवा नहीं, केवल दर्द ही मिला।" 

उसका इशारा बिन्नी की ओर ही था। वह बात को टाल गई,

-"तुम्हें अब तक याद है कि मुझे ये जंगली जलेबियाँ बहुत पसंद हैं!" बिन्नी की आँख की कोरें भीग उठीं। तब वैभव जवाब दिया,

-"हाँ, इनका नाम भले ही जंगली है और होती भी हैं टेढ़ी मेढ़ी, पर इनकी मिठास अनूठी होती है।" वैभव का मन हुआ कि कह दे कि जैसे तुम्हारा प्यार। पर कहा नहीं, जाने दिया। 

-"वैभव, देखो ना उस लिफाफे में क्या है!"

बिन्नी का आग्रह देख कर वह उस लिफाफे को धड़कते हृदय से उठा कर खोलता है। उसमें मौजूद अनेक कागजों को देखकर वह हैरान रह जाता है। उसने जल्दी से बिन्नी से पूछा, 

-"ये तो मेरे द्वारा तुम्हें क्लास में दी हुई परचियाँ हैं। तुमने इन पर्चियों को अब तक संभाल कर रखा है!"

-"हाँ और क्या ! इनमें किसी का प्यार बसा हुआ है। मैं इन्हें क्यों न संभाल कर रखूं!" बिन्नी के चेहरे पर एक उजाला छा जाता है। 

वैभव को याद आ गया था कि वे जब एक ही क्लास में पढ़ते थे और जब सबके सामने कुछ कहते नहीं बनता था। तब, बिन्नी पर जब उसे बहुत प्यार आता था, तब वह चुपके से एक पर्ची किताब में रख कर बिन्नी को पकड़ा देता था। 

बिन्नी भी उस परची को अपनी कापी में सरका कर, किताब वापस वैभव को लौटा देती थी। उन दोनों को ही वे परचियाँ देख कर, शादी के पहले के वे तीन चार साल याद आ गए। जिनमें आँखों ही आँखों में उनकी बातें और इशारे हुआ करते थे। दिल से लेकर दिमाग तक पागल हो उठता था पर वे अपने दिल की बात को कह पाएँ, ऐसे मौके कम ही मिलते थे। परेशान रहते थे कि एक दूसरे से कैसे एकांत में मिलें। 

अपने दिल की बात करने को वे इतने अधीर रहते थे कि कई बार पीरियड बंक करके लाइब्रेरी में मौन बैठे एक दूजे को ताकते थे और पर्चियों में लिख लिख कर एक दूसरे से अपने दिल की बातें किया करते थे। 

दोनों के दिलों में गुद्गुदी होती थी। फिर परिवार वालों को मनाने में उन दोनों ने एड़ी चोटी एक कर दी। एक के परिवार वाले मानते थे तो दूसरे के बिगड़ जाते थे। ऐसे ही कुछ समय कटा। अंततः किसी तरह शादी हुई और उन दोनों की जॉब भी इसी शहर में एक साथ मगर अलग कंपनियों में लगी। 


जब यहाँ रहने लगे, तब समझ आई कि प्यार हो तो दुनिया रंगीन तो लगती है। पर जीवन और गृहस्थी चलाने के लिए उनका हाल चिड़ी और चिड़े जैसा हो गया।

 समय के साथ कई बार आपस में बहसें होनी स्वाभाविक थी। ऐसे ही बहसें बढ़ीं, नतीजा सामने था। 

फिर बिन्नी ने वैभव के हाथ पर अपनी हथेली रख दी। 


-"वैभव, मैं ही शायद गलत थी। आई एम सॉरी।" 

-"नहीं बिन्नी, मैं गलत था, मैं तुम्हारे बिना ऐसे रह गया हूँ जैसे बिना आत्मा के शरीर। अब मैं कभी मनमानियाँ नहीं करूंगा, कभी बहस नहीं करूंगा! अपने घर चलो।" वैभव ने इन खाली दिनों में प्रेम के बिना, बहुत कुछ महसूस किया था।  

-"सच्चा प्रेम लेने नहीं देने का, समर्पण करने का नाम है। वह किसी जंगली जलेबी जैसा टेढ़ा मेढ़ा तो है पर बहुत रसीला और मन को महकाने वाला है। चलो इसका स्वाद लें!" वैभव ने बिन्नी का बैग अपने कंधे पर तंग लिया और एक हाथ में उसका हाथ थाम उसे अपने साथ ले चला।

बिन्नी ने धीमे से वैभव के कंधे पर सिर रख कर कहा, -"अब मैं भी तुम्हें कभी छोड़ कर नहीं जाऊँगी।"

इति शुभम

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कथाकार-  शोभा शर्मा - कहानी के सर्वाधिकार सुरक्षित 


 

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