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पागलपन

किसी के ,
रहने या ना रहने से,
अब फर्क नही पडता मुझे।
जो भावनाएं, जज्बात थे,
वो तो कब के छलनी हुए,
अब प्यार का पानी नही,
ठहर सकता प्रेम के पत्तो पर,
कभी कभी कुछ बूंदे रुकना,
भी चाहे तो कोई,
कहा रुकने देता आकर जिंदगी मे,
फिर से चलकर चला जाता है,
यह तो पागल सा दिल है,
जो किसी की यादों के महल मे,
आज भी रातों को दिया जलाये,
बैठा है उसके इंतजार मे,
हर रोज आभास करता,
सूर्य की पहली किरण के साथ,
किरणें यादों के साथ साथ,
जज्बातो को हर रोज जिंदा रखती,
कोई तो है इस दुनिया मे,
जिसका इंतजार यह आँखे,
हर रोज है करती,
नही तो कब का बुलावा,
आ चुका होता रब का,
शायद जिंदा हु उसके आनेकी,
आस मे, फिर से कोपल खिलेंगे,
प्यार के, बारिस मे बादल भी,
शोर मचाएंगे, हर जख्म मेरा,
फिर से सवर जायेगा।
उसके आभास भर से ही जिंदा हु मे,
नही तो कब का ,
आमंत्रण दे दिया होता मौत को,
बस इस पागल दिल को ,
यह दुनिया पागल ही बना रहने दे,
बाहर जितनी शांति मेरे चेहरे पर है,
कोई झाँककर देख ले मेरी रूह को,
उसको एहसास हो जायेगा,
मेरे दर्द के सागर का,
फिर बोलना भूल जायेगा
इसका दिल तो पागल है।
हा है मेरा दिल पागल,
उसके फिर से लौट कर आने,
के इंतजार मे,
मुझे पागल ही रहने दो ना,
अच्छा लगता है मुझे यह,
दिल का पागलपन।
भरत (राज)

 

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