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एक ट्रेन कथा


मित्रों ! शापिज़न मंच की ओर से आयोजित 'एक ट्रेन कथा' (सफर जिसने आपकी जिंदगी बदल दी) नामक शीर्षक से एक कहानी लिखने का सुअवसर प्राप्त हुआ है इसके लिए मैं समस्त शापिज़न परिवार को धन्यवाद देता हूं ! साथ ही साथ मैं उनके अपने शापिज़न परिवार के किसी सदस्य को इस प्रतियोगिता से अलग रखकर परिवार की मर्यादा का पालन करने के लिए बधाई देता हूं ! सम्भवतः ऐसा करना जरूरी इसलिए भी हो गया है क्योंकि शापिज़न परिवार में एक से बढ़कर एक हीरे मोती हैं ! अक्सर देखा गया है कि जब कभी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती रही हैं तब निर्णायक बंधुओं द्वारा प्रतियोगिता को निष्पक्ष रुप से सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी रही है ऐसे में शापिज़न परिवार का यह निर्णय सराहनीय है, वंदनीय है, शिरोधार्य है ! शापिज़न परिवार के इस निर्णय से सभी वरिष्ठ, युवा, स्थापित एवं नवागंतुक लेखकों द्वारा इस प्रतियोगिता में भाग लिया जाना न सिर्फ इस प्रतियोगिता को पुरस्कार पाने तक सीमित रखेगा अपितु यह हम सभी लोगों के विचारों को शापिज़न परिवार तक पहुंचाने और उनसे अवगत कराने का महत्वपूर्ण काम करेगा जो निश्चित ही एक सफल प्रयास साबित होगा !


मेरा यकीन मानिए पिछले साढ़े चार महीनों से एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी में नौकरी मिलने की वजह से समय की अपार कमी हो गई है जहां नौकरी, स्वयं एवं परिवार को समय देने के बाद इतना समय ही नहीं बच पा रहा कि मैं कलम को भी कुछ मौका दे सकूं ! सच कहें तो कोरोना के दौरान रिटायरमेंट होकर घर पहुंचना और उस दौरान किसी उचित जगह पुनः स्थापित न हो पाना ही मुझे लेखन की ओर प्रेरित किया था ! आज जबकि मैं किसी संस्था (शापिज़न) से जुड़ा हूं तो यह मेरी नैतिक जिम्मेदारी है कि मैं उनके लिए उपयोगी साबित होऊं ! आज मुझे यह लिखने में कोई संकोच नहीं कि यदि प्रधान सम्पादक एवं हिन्दी विभाग प्रमुख का भरपूर सहयोग न मिला होता तो शायद अभी तक हम गुमनाम ही रह रहे होते ! 


मुझे इस लेख के लिए न्योता मिलना इस बात की ओर इंगित कर रहा था कि इस प्रतियोगिता में मुझे अवश्य भाग लेना है परन्तु बीतते समय के साथ मेरी इस प्रतियोगिता में भाग लेने का अधिकार भी क्षीण होता जा रहा था वो तो भला हो मेरे वजूद का जो हर पल मुझे अहसास कराते रहता है कि अभी आप सही कर रहे हो, अभी आप ग़लत कर रहे हो, इतनी गलती चल जाएगी अथवा अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है वगैरह -२ ! देखा जाए तो ऐसा सबके साथ होता है लेकिन सभी लोग इस पर अमल नहीं कर पाते ! अक्सर देखा गया है कि जो लोग किन्हीं कारणवश घर परिवार से दूर रह रहे हैं उनका मोबाइल पर घंटों बैठे रहना आम बात हो गई है ऐसे में जरूरी है कि वे अपने दिल और दिमाग दोनों की सुनें और अपना जीवन खुशहाल बनाएं !


मित्रों ! एक सैनिक के जीवन में ट्रेन का सफ़र कुछ -२ ऐसे होता है जैसे कोई आम इंसान अपने ससुराल के लिए प्रस्थान कर रहा होता है जब उसे इस बात की पूरी जानकारी होती है कि जाना तो पड़ेगा ही ! ठीक ऐसी ही स्थिति एक फौजी की होती हैं जब वह अपनी जिंदगी जी रहा होता है ! कभी बिन बुलाए मेहमान की तरह उसे कहीं जाना पड़ता है तो कहीं मेहमाननवाजी करवाने के लिए, लेकिन दोनों ही सूरतों में उसका जाना तय रहता है ! वैसे ट्रेनों में चलने की शुरुआत तो तभी हो गई थी जब मैं केवल एक साल का था ! मेरे पिता जी उस समय सेना में थे और जब उन्हें लगा कि मुझे दूसरे शहरों में भी जाना चाहिए तो उन्होंने मुझे कंधे पर बिठाकर मेरी यह इच्छा पूरी की ! यहां मैं ख़ासतौर पर आग्रह करना चाहूंगा उन माता- पिता से जो बग्गी में अपने नौनिहालों को रख देते हैं यह जताने अथवा बताने के लिए कि वे बड़ी अच्छी परवरिश कर रहे हैं तो क्षमा कीजिए जितना करीब आपका बच्चा आपकी गोद अथवा कंधे पर महसूस करता है उतना उस निर्जीव सी बग्गी पर तो कतई नहीं ! खैर मैं यहां सिर्फ अपनी राय प्रकट कर रहा हूं और कुछ भी नहीं !


ट्रेनों में सफर के अपने प्रारम्भिक दौर में मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि ज्यादा कुछ सोचने की जरूरत है ! उसकी दो बजहें थी एक भारत की आबादी और दूसरी लोगों की आपसी समझ-बूझ ! नब्बे के दशक में अक्सर स्लीपर क्लास खाली मिल जाता था जो वक्त के साथ -२ भरने और ठूंसने पर आकर रुक गया है जिसे देखते हुए यह कहना पड़ रहा है कि जनरल और स्लीपर में अब कोई खास अंतर नहीं रह गया है ! जहां एक ओर इसका मुख्य कारण जनसंख्या है तो वहीं दूसरी ओर निश्चित ही रेलवे विभाग की लापरवाही दिखाई देती है जिसमें ज्यादा से ज्यादा धन उगाही करने और रिजर्वेशन डिब्बों में जनरल यात्रियों को भरने से है जो पहले से टिकट कन्फर्म करवाए यात्रियों की जान सांसत में डालते हैं ! भगवान जाने कब इन लोगों को सद्बुद्धि आएगी, आएगी भी या नहीं, कहना थोड़ा मुश्किल है !


खैर छब्बीस वर्षों के लम्बे सैनिक जीवन में मुझे हर परिस्थिति में सफर करने का मौका मिला ! कभी सीट पर तो कभी सीटों के बीच की खाली जगह जहां अक्सर लोग जूते चप्पल निकल कर पैर रखते हैं, कभी बैठकर तो कभी लेटकर, कभी पूरी सीट तो कभी आधी ! एक बार तो हद ही हो गई ! ट्रेन करीब -२ नौ बजे चलनी शुरू हुई ! मेरे पास कोई बर्थ नहीं था सब वेटिंग लिस्ट एक- दो -तीन पर आकर रुक गई ! ऐसे में सरकारी क्वार्टर में जाने का मेरा कोई इरादा नहीं था सो हम लोग एक खाली सीट पर आकर बैठ गए, पूरी रात कोई नहीं आया ! सुबह जब टी टी मामा आए तो पता चला कि जिनकी सीट थी उनकी स्लिप में ठीक से प्रिंट नहीं हुआ था और वे महोदय किसी दूसरे से उलझे रहे रातभर कि सुबह देखेंगे कैसे आप मेरी सीट नही देंगे ! वैसे हंसने वाली बात यह है कि मेरी एक भी सीट कन्फर्म नहीं हुई थी और मैं अपने दो छोटे बच्चों और धर्मपत्नी के साथ पूरी इमानदारी से उस सीट पर विराजमान रहा ! सुबह टी टी साहब ने आदर सहित एक सीट भेंट की लेकिन नज़राना लिए बगैर नहीं, और भी न जाने कितने ही उदाहरण हैं जब हम ने किसी को सीट आफ़र की और कभी औरों ने हमें सीट आफ़र की, कभी हमने लोगों को बैठाया तो कभी लोगों ने हमको बैठाया, कभी हमने लोगों को मना किया तो कभी औरों ने हमें मना किया, इस तरह ट्रेन का सफर तो खट्टे मीठे अनुभवों से भरा हुआ है ! यहां मैं एक बात बता दूं कि ऐसा नहीं है कि मैं आकर्षण में विश्वास नहीं करता लेकिन क्षणिक आकर्षण के वशीभूत होकर अपना जीवन दांव पर लगाने जैसी भूल करना मेरी किताब के किसी पन्ने में मौजूद नहीं और यही कारण है कि अनगिनत बार अकेले और परिवार के साथ सफर करने के बावजूद मेरे साथ कभी कोई अप्रिय घटना नहीं घटी ! 


घटना सन् 2008 की है जब ट्रेन में सफर के दौरान मेरी मुलाकात एक संत से हुई जिनकी एकमात्र मुलाकात ने ही मेरे जीवन की दशा एवं दिशा को बदलने का भरपूर काम किया ! उनके एक कथन ने न सिर्फ मेरी समझ पर प्रश्न-चिन्ह लगाया अपितु मुझे यह अहसास कराया कि मेरा अब तक का प्राप्त ज्ञान केवल शून्य के बराबर है ! मेरा यकीन मानिए उस दिन न तो बहुत ज्यादा मेरी उनसे बात हुई और न ही मैं उनसे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ था परन्तु जो प्रश्न उन्होंने मुझसे किया था उसने मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया ! मैं अपनी नई पोस्टिंग पर अकेला ही सफर पर जा रहा था ! मेरी सीट कन्फर्म थी अतः मुझे मेरे अलावा किसी से कोई खास लेना-देना भी नहीं था पर ट्रेन के उस डिब्बे में कोई और भी सफर कर रहा था जिससे अवश्य मेरा साक्षात्कार होना बाकी था, सम्भवतः जरुरी भी था ! ज्यादा तो याद नहीं परन्तु एक बात अवश्य है कि उनके वस्त्र आम इंसानों से हटकर थे ! यह भी तय है कि उन्होंने साधुओं जैसे वस्त्र भी नहीं पहने थे और उन्होंने अपनी बात भी बड़ी शालीनता से मेरे सामने प्रस्तुत की थी जिसका जबाब मुझे न चाहते हुए भी देना था ! अक्सर ऐसे मामलों में सामान्यतया लोग बीच का रास्ता अपनाते हैं और किसी तरह पीछा छुड़ाने की फिराक में रहते हैं लेकिन मेरे मामले में ऐसा नहीं था कारण कि फिराक गोरखपुरी का पुस्तैनी घर मेरे ननिहाल की तरफ पड़ता है अतः मुझे अवसर पड़ने पर उनकी मर्यादा का ख्याल भी रखना पड़ता है !


सबसे पहले तो मैं आपको बता दूं कि भले ही मोबाइल ने हम लोगों के जीवन में बेदखल करना शुरू कर दिया था पर मेरी बात ही कुछ और थी, कहने का मतलब यह नहीं कि मैं किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हूं अथवा मुझे सामाजिक बने रहने से कोई परेशानी है अपितु मैं यह कहना चाह रहा हूं कि मेरा किला अभेद्य है और मेरे किले में बिना मेरी अनुमति के दरवाजा नहीं खुलता फिर प्रवेश करने की बात तो दूर की कौड़ी साबित होगी ! सच कहूं तो इसका भी अपना ही मज़ा है ! वैसे दूर-२ तक दूरदर्शन के सिवाय इस प्रकार के लोग मुझे कम ही दिखाई देते हैं ! मेरे पास एक छोटा सा फोन था जो रोमिंग के कारण कभी कभार ही उठता था ! मेरी कोशिश तो बस यही रहती थी कि जितनी जल्दी काम निपट जाए उतना ही बढ़िया ! अफसोस कि आज की युवा पीढ़ी वो मज़ा नहीं ले सकती जो मज़ा उस दौर में हुआ करता था !


खैर आते हैं उस अपरिचित परन्तु मेरे लिए अपनों से बढ़कर व्यक्ति से मिले मेरे अनुभवों की चर्चा करते हैं ! ट्रेन में सफर के दौरान मैंने पाया कि कुछ लोग आम आदमियों से हटकर अलग ही तरह के वस्त्र धारण किए घूम रहे हैं जो आते जाते लोगों का ध्यान अपनी तरफ केंद्रित करा रहे थे ! इस दौरान मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जो उन्हें भी बार -२ दिख जा रही थी ! चूंकि हर बार मैं उन्हें देखने के चक्कर में किताब को परे रख देता था और उनके जाते ही फिर पढ़ने लग जाता था तो उन्हें ऐसा लगा कि जरुर दाल में कुछ काला है ! इसी क्रम में वे मेरे पास आए और पूछने लगे, 'यह कौन सी किताब है जो आप पढ़ रहे हैं?' मैंने अपना ध्यान किताब से हटाकर आगंतुक की तरफ किया तो पाया कि मेरे सामने साक्षात कोई दैवी शक्ति से भरपूर आत्मा खड़ी है जो मेरा उद्धार करने आई है ! मैंने उत्तर में कहा कि, "मैं मुंशी प्रेमचंद जी की किताब पढ़ रहा हूं जिसमें उनके द्वारा लिखी गई कहानियों का संग्रह है !" यह सुनकर उनकी ओर से दूसरा प्रश्न किया गया कि, "क्या आपने 'श्रीमद्भागवत गीता' पढ़ी है ?" मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि, "नहीं" परन्तु मैंने एक सवाल मिश्रित उत्तर देने का प्रयास किया वो ये कि, "श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने का अभी समय नहीं है और जब मैं अपनी जिम्मेदारियों से मुक्ति पा लूंगा तब श्रीमद्भागवत गीता पढ़ूंगा !" यह सुनकर उन्होंने प्रश्न किया कि, "क्या तुम्हें लगता है कि जब तुम्हारी सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी तब तुम्हारे पास समय रहेगा पढ़ने के लिए अथवा जब तुम्हारी सब जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी तब तुम जीवित भी रहोगे पढ़ने के लिए और तीसरा यह कि जब तुम्हारी सारी जिम्मेदारियां खत्म हो जाएंगी और तुम्हारे पास श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने का समय भी रहेगा परन्तु इस प्रश्न का उत्तर दो कि, "क्या उस समय जब तुम श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने के बाद उसमें लिखी किसी बात पर अमल करने योग्य रहोगे अथवा किसी और को कुछ बताने, दिखाने अथवा समझाने के लिए तुम्हारे पास कितना समय रहेगा ?"


इतना बड़ा प्रश्न सुनने के बाद मैं थोड़ा घबरा गया ! मेरी स्थिति सामान्य करने के उद्देश्य से उन्होंने एक साधारण सा प्रश्न किया, "आप श्रीमद्भागवत गीता पढ़ना कब से शुरू कर रहे हैं?" मैंने झट से उत्तर दिया, "बहुत जल्द" इसके सिवाय मुझे कोई दूसरा उत्तर नहीं सूझा ! सबसे पहले तो मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि, "आपने यह प्रश्न इस डिब्बे में बैठे किसी और व्यक्ति से क्यूं नहीं किया ?" इस प्रश्न के जबाब में उनका उत्तर और भी उत्साह वर्धक था ! उन्होंने कहा, "मैं बार -२ देख रहा था कि आप पुस्तक पढ़ रहे थे मगर आपका ध्यान बार -२ मेरे वस्त्र और मुझ पर अटक जा रहा था ऐसे में मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं आपका उचित मार्ग दर्शन करुं !" 


ट्रेन से उतरने के बाद सबसे पहले मैंने 'श्रीमद्भागवत गीता' की पुस्तक खरीदी और पूरे अट्ठारह अध्याय पूरी इमानदारी से पढ़ा ! यहां मैं इस बात का विशेष तौर पर उल्लेख करना चाहता हूं कि श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने के बाद एक ओर जहां मुझे मेरे शून्य ज्ञान होने का बोध हुआ तो वहीं दूसरी ओर जब ज्ञान से मेरा साक्षात्कार हुआ तो मेरे सोचने, समझने और कार्यशैली में विशेष रूप से बदलाव हुआ ! जहां पहले निराश होने का कभी कभार कारण मिल जाया करता था परन्तु श्रीमद्भागवत गीता पढ़ने के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ ! बहुत ज्यादा तो लिखना यहां तर्क संगत नहीं परन्तु अपने भीतर का अंधकार दूर करके मुझे बड़ी आत्मिक शांति मिली है ! ट्रेन में उस संत की छोटी सी मुलाकात ने मेरा जीवन ही बदल दिया ! इस लेख के माध्यम से मैं अपनी कृतज्ञता जाहिर करता हूं और आशा करता हूं कि आप जहां कहीं भी होंगे ऐसे ही लोगों का भला कर रहे होंगे !


धन्यवाद !


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